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Friday, 15 November, 2024
होमदेशजहां की नालियां भी गुलाब जैसी महकती हैं- वर्ल्ड फ्रैगरेंस डे पर भारत की इत्र नगरी कन्नौज पर एक नज़र

जहां की नालियां भी गुलाब जैसी महकती हैं- वर्ल्ड फ्रैगरेंस डे पर भारत की इत्र नगरी कन्नौज पर एक नज़र

प्राचीन नगरी कन्नौज का इतिहास मुगल बेगम नूरजहां के इत्र तैयार कराने से जुड़ा है. इसने हाइड्रो-डिस्टिलेशन तकनीक से ‘इत्र’ बनाने की अपनी विरासत को अब भी वैसे ही बरकरार रखा है.

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कन्नौज: उत्तर प्रदेश के प्राचीन शहर कन्नौज के बारे में ऐसा कहा जाता है कि यहां तो नालियों तक में इत्र बहता है. और यह कोई अतिशयोक्ति भी नहीं है.

भारत की इत्र राजधानी, जहां लगभग 300 छोटी, मध्यम और बड़ी डिस्टिलरीज हैं, में एक भीनी खुशबू पूरी आबोहवा में हमेशा घुली रहती हैं और शहर भर में जहां-तहां, यहां तक की नालियों में भी गुलाब और अन्य फूलों के हिस्से बिखरे पड़े रहते हैं.

कन्नौज में डिस्टिलिंग तकनीक से परफ्यूम या ‘इत्र’ बनाने की मुगल शासनकाल की सदियों पुरानी परंपरा आज भी चली आ रही है. दुनिया के पुराने इत्र बाजारों में अब भी परफ्यूम तैयार करने के लिए डिस्टिलिंग का इस्तेमाल होता है जिसमें मुख्यत: एल्कोहल की जगह सुगंधित तेल का इस्तेमाल होता है.

वुडस्की, फ्लोरल, मस्की और एंड्रोजेनस इत्र बहुत हद तक एल्कोहल आधारित परफ्यूम से अलग होते हैं. वे फूलों और अन्य अवयवों से निकाले गए सुगंधित तेल से बने होते हैं, जो एल्कोहल वाले परफ्यूम के उलट पानी और तेल में घुल जाते हैं. और यह उन्हें ज्यादा सुगंधित और आसानी से सोख लेने वाला बनाता है.

21 मार्च को वर्ल्ड फ्रैगरेंस डे के मौके पर आइये एक नज़र डाले भारत की इत्र राजधानी कन्नौज पर.


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कच्चा माल

भारत परफ्यूम बनाने के लिए आवश्यक 300 प्राकृतिक सुगंधित कच्चे माल में से 31 का उत्पादन करता है और यह दुनियाभर के बाजार में मिंट, चमेली, चंदन, ट्यूबरोज और स्पाइसेज जैसे सुगंधित तेलों का एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता भी है.

इस समय कन्नौज के बाहरी इलाकों में हर तरफ गुलाबी गुलाब खिले नज़र आ रहे हैं, जिसकी खेती बड़ी संख्या में यहां के किसान कर रहे हैं. इन गुलाबों को सबसे ज्यादा सुगंधित माना जाता है और उनमें से निकलने वाला तेल सबसे महंगा होता है. किसान उन्हें लगभग 35 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिचौलियों को बेचते हैं, जो फिर इन्हें शहर पहुंचाते हैं.

कन्नौज में गुलाबी गुलाब तोड़ते हुए एक दृष्य | फोटो: मनीषा मोंडल/ दिप्रिंट

फूलों की खेती करने वाले स्थानीय किसान 23 वर्षीय मोहम्मद शाकिर ने बताया कि वह दो दिनों में लगभग 15-16 किलोग्राम गुलाब उगा लेता है. उसने कहा, ‘मुझे सप्ताह में केवल तीन बार गुलाब के फूलों की कटाई करनी होती है और जैसी फसल रही हो, उसके हिसाब से मुझे 80 रुपये प्रति किलो तक दाम मिल सकते हैं.’

बेला, चम्पा, गेंदा और केवड़ा जैसे अन्य फूल भी काफी लोकप्रिय है. मेंहदी आदि पौधों की जड़ों का उपयोग भी इत्र बनाने के लिए किया जाता है.

नूरजहां पर किंवदंती और भौगोलिक स्थिति का फायदा

कन्नौज में तमाम लोगों के लिए इत्र बनाना तो उनका प्राथमिक पेशा है लेकिन इस कारोबार का न सिर्फ एक समृद्ध इतिहास है बल्कि इसे लेकर कई पौराणिक कथाएं भी प्रचलित हैं.

यहां एक किंवदंती प्रचलित है कि शहर में इत्र बनाने का कारोबार 17वीं शताब्दी की शुरुआत में मुगल सल्तनत की मलिका नूरजहां, सम्राट जहांगीर की बेगम के समय शुरू हुआ था.

बेगम नूरजहां जिस कुंड में स्नान करती थीं उसके पानी में गुलाब की पंखुड़ियों का इस्तेमाल किया जाता था और एक बार उन्होंने ध्यान दिया कि फूल पानी में तेल छोड़ देते हैं और यह निष्कर्ष निकाला कि फूलों से सुगंधित तेल निकाला जा सकता है.

नूरजहां सुगंध को लेकर काफी उत्साहित थी और इसलिए, जहांगीर ने उनके संग्रहण और विकास पर शोध को बढ़ावा दिया. कहा जाता है कि कन्नौज के रहने वाले कुछ लोग (कोई संख्या स्पष्ट नहीं है) बेगम के लिए फूलों से सुगंधित तेल निकालने में कामयाब रहे.

शहर में 1888 में स्थापित एम.एम. रामनारायण परफ्यूमर्स के प्रमुख प्रांजल कपूर के मुताबिक, कन्नौज के भारत की इत्र राजधानी के रूप में विकसित होने की एक वजह इसकी भौगोलिक स्थिति भी रही.

कपूर के मुताबिक, ‘कन्नौज आगरा, कानपुर और लखनऊ जैसे बड़े शहरों के नजदीक स्थित है, और दिल्ली से भी बहुत दूर नहीं है. गंगा के कारण इसकी मिट्टी भी उपजाऊ है, शायद यही वजह है कि मुगल सम्राटों ने इसे इत्र के लिए औद्योगिक क्षेत्र के तौर पर विकसित किया था.’

परफ्यूम तैयार होने वाली जगह | फोटो: मनीषा मोंडल/ दिप्रिंट

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डिस्टिलिंग का पारंपरिक तरीका

कन्नौज में अब भी नए और तेज काम करने वाले स्टीमिंग के तरीके की जगह हाइड्रो-डिस्टिलेशन वाली पारंपरिक पद्धति ही अपनाई जाती है.

शहर के सुगंध कारोबारियों का मानना है कि यह पारंपरिक तरीका बेजोड़ खुशबू देता है.

एक परफ्यूम डिस्टिलर टी.एन. टंडन ने दिप्रिंट को बताया, ‘पारंपरिक तरीके से तैयार इत्र की खुशबू अद्वितीय और बेजोड़ होती है, यही कारण है कि हम आज भी यही तरीका अपनाते हैं और यही कन्नौज के इत्र की सबसे बड़ी खूबी है. टंडन देवी प्रसाद सुंदर लाल खत्री परफ्यूमर्स के मालिक हैं, जिसकी स्थापना 1870 में हुई थी.’

शहर में रहने वाले सभी लोगों किसी न किसी तरह से इत्र बनाने के कारोबार से जुड़े हैं. इस पूरी प्रक्रिया का सबसे पहला चरण तड़के शुरू होता है जब किसान और मजदूर अपने खेतों में मौसमी फूल तोड़ने जाते हैं.

फिर इन फूलों को शहर में स्थित डिस्टिलरीज में लाया जाता है. वहां इन्हें तांबे से बने विशालकाल बर्तन जिसे देग कहते हैं में डाला जाता है. एक औसत आकार के देग में 100 किलोग्राम तक फूल आ सकते हैं. फिर इन देग को कसकर पैक करने के बाद मिट्टी से ढक दिया जाता है ताकि इनमें हवा न जा सके.

ये एक भापका से जुड़े होते हैं, जो तांबे से ही बना हुआ होता है जो देग से निकलने वाली भाप को एकत्र करने के लिए एक कंडेंसर की तरह काम करता है और इसे पानी की टंकी में रखा जाता है. देग को एक भट्टी पर रखकर आग जला दी जाती है और भापका उससे निकलने वाली भाप को एकत्र करता है.

कपूर ने बताया, ‘यह प्रक्रिया काफी थकाऊ होती हैं. औसतन, 400 किलोग्राम फूलों में से 180 ग्राम रूह गुलाब निकालता है.’

हाइड्रो-डिस्टिलेशन के उपयोग से इत्र बनाने की पारंपरिक विधि | फोटो: मनीषा मोंडल/ दिप्रिंट

प्रसिद्ध इत्र

कन्नौज सुगंधित तेल, इत्र, गुलाब जल और फ्लोरल एब्सोल्यूट का उत्पादन करता है. इस शहर में बनने वाला सबसे खास और लोकप्रिय इत्र है शमामा, जो मेंहदी की जड़ों से तैयार किया जाता है.

कपूर ने कहा, ‘शमामा कन्नौज का एक लोकप्रिय और अनूठा इत्र है. यह तमाम तरह की जड़ी-बूटियों, सुगंधित तेलों सहित 41 से अधिक प्राकृतिक अवयवों से तैयार होता है और यहां के हर घराने की इसे तैयार करने की अपनी अलग खास विधि है.’

मिट्टी इत्र भी इसी तरह एक अन्य लोकप्रिय इत्र है, जो बारिश की खुशबू को एक शीशी में कैद करने की कोशिश है.

उन्होंने कहा, ‘मिट्टी इत्र को चंदन के तेल या अन्य तेलों के साथ मिट्टी के बर्तन के डिस्टिलेशन से तैयार किया जाता है. यह महक काफी सुकून भरी और आनंददायक होती है. इसके अलावा, इसे इत्र की अन्य किस्मों में भी इस्तेमाल किया जाता है जिसमें यह एक घटक के तौर पर उपयोग होता है जो मिट्टी की सोंधी खुशबू भर देता है.’

कन्नौज में सुगंधित तेलों की कीमत 25 रुपये में एक ग्राम की छोटी-सी शीशी से लेकर 20 लाख रुपये प्रति किलोग्राम तक हो सकती है.

टंडन ने कहा, ‘हमने अपने उत्पादों को तीन श्रेणियों में बांट रखा है, हमारे हर तरह की सुगंध वाले इत्र 10,000 रुपये प्रति किलोग्राम, 60,000 रुपये प्रति किलोग्राम और 1,60,000 रुपये प्रति किलोग्राम में उपलब्ध हैं.’

उन्होंने कहा, ‘दो सबसे महंगे उत्पाद हैं अगरवुड तेल (असम के एक्विलेरिया पौधों से तैयार) जिसकी कीमत 25 लाख रुपये प्रति किलोग्राम तक है और रूह गुलाब (गुलाबी गुलाब से निर्मित) का एब्सोल्यूट ऑयल है जो 8 लाख रुपये तक बिकता है.’

(रशेल जॉन द्वारा संपादित)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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