दिल्ली/मुंबई: पारसी व्हाट्सएप सर्कल में प्रसारित एक वायरल संदेश इस करीबी समुदाय में सबसे गर्म बहस का विषय बन गया है. इस मैसेज में भारत के 22वें विधि आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति रितु राज अवस्थी के साथ बॉम्बे पारसी पंचायत के ट्रस्टियों की एक तस्वीर है. 21 अगस्त को डेढ़ घंटे तक, भारत के सबसे शक्तिशाली पारसी संगठनों में से एक के प्रतिनिधिमंडल ने सरकार के सामने अपना मामला पेश किया जिसके तहत उनकी मांग थी कि – पारसी-ईरानी-ज़ोरोस्ट्रियन लोगों को समान नागरिक संहिता से पूरी छूट दी जाए.
बॉम्बे पारसी पंचायत (बीपीपी) के एक ट्रस्टी ने दिप्रिंट को बताया, “हम यूसीसी से पूरी छूट चाहते हैं, खासकर जब से कुछ जनजातियों के लिए छूट पर विचार किया जा रहा है.”
लेकिन समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के कारण बदलाव की जो बयार आ रही है, उसने एक समान दिखने वाले पारसी समुदाय के भीतर की खामियां उजागर कर दी हैं और इस आंदोलन में सबसे आगे चार महिलाएं हैं. वे अपने और अपने बच्चों के अधिकारों के लिए “पुराने” कानूनों के खिलाफ लड़ रही हैं जो उस समय स्थापित किए गए थे जब महिलाओं को कोई अधिकार नहीं था, और वे भारत के संविधान से भी पहले के हैं.
विवाह, तलाक, विरासत और मंदिर के अधिकार वर्तमान में पुरुषों के पक्ष में झुके हुए हैं. ये महिलाएं यूसीसी को एक बराबरी के तौर पर देखती हैं, जो उन्हें पुरुषों के बराबर होने का मौका देता है.
लेखक प्रोची एन मेहता कहती हैं, “समान नागरिक संहिता ऐसे कानून लाएगी जो सभी जेंडर के लोगों के साथ समान व्यवहार करेगा. पारसी महिलाओं के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि सदियों पुरानी प्रथाओं के आधार पर हमारे खिलाफ हो रहे भेदभाव अंततः समाप्त हो सकता है.”
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस बयान के बाद से कि कोई देश अलग-अलग समुदायों के लिए अलग-अलग कानूनों की दोहरी प्रणाली के साथ काम नहीं कर सकता है और 22वें विधि आयोग द्वारा यूसीसी पर सार्वजनिक परामर्श शुरू किए जाने के बाद, पारसी देश भर में मुसलमानों, ईसाइयों और आदिवासी समुदायों के साथ बहस में शामिल हो गए हैं.
पारसी समुदाय के भीतर, पवित्रता, वंशावली और परंपरा के बारे में चिंतित रूढ़िवादी सदस्य पुराने तरीकों को संरक्षित करना चाहते हैं, जबकि अधिक प्रगतिशील सदस्य बदलाव के पक्ष में हैं. दोनों पक्ष खुले पत्र और ऑप-एड लिख रहे हैं, व्हाट्सएप समूहों में एक-दूसरे को पिंग कर रहे हैं, अपने घरों में रात्रिभोज पर इस पर चर्चा कर रहे हैं, और अपने चारदीवारी के दायरे में इसके बारे में बहस कर रहे हैं.
“समान नागरिक संहिता ऐसे कानून लाएगी जो सभी जेंडर के लोगों के साथ समान व्यवहार करेगा. पारसी महिलाओं के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि सदियों पुरानी प्रथाओं के आधार पर हमारे खिलाफ हो रहे भेदभाव अंततः समाप्त हो सकता है.” – लेखक प्रोची एन मेहता.
बीपीपी ट्रस्टी ने कहा,“यदि यूसीसी लागू किया जाता है, तो यह हमारे शांतिपूर्ण समुदाय की परंपराओं का उल्लंघन होगा. फिर, कोई भी अग्नि मंदिर (Fire Temple) में प्रवेश कर सकेगा, और पारसी समुदाय में गोद लेने की अनुमति दी जाएगी, जिसे हम स्वीकार नहीं कर सकते.”
अंदर ही अंदर एक तूफान चल रहा है, और यहां तक कि पारसी उच्च पुजारी (High Priest) दस्तूरजी खुर्शीद दस्तूर भी इसके भंवर में फंस गए हैं. यूसीसी के प्रति उनके समर्थन की रिपोर्टों ने प्रमुख पारसियों को नाराज कर दिया है. बाद में दस्तूर ने एक बयान जारी कर स्पष्ट किया कि उन्हें गलत तरीके से उद्धृत किया गया है. द फ्री प्रेस जर्नल में उनके हवाले से कहा गया, “मैंने यह नहीं कहा है कि पारसी यूसीसी का स्वागत करेंगे, न ही मुझे लगता है कि पारसी समुदाय यूसीसी का स्वागत करेगा.”
लेकिन इस बार, समुदाय की महिलाओं ने फैसला किया है कि वे इन आदेशों को स्वीकार नहीं करेंगी. उन्होंने अदालतों में उन प्रथाओं को चुनौती देने वाली याचिकाएं दायर की हैं जिन्हें वे भेदभावपूर्ण मानती हैं, यूसीसी उनके उद्देश्य के लिए एक प्रेरणा के रूप में काम कर रही है.
यदि यूसीसी लागू किया जाता है, तो यह हमारे शांतिपूर्ण समुदाय की परंपराओं का उल्लंघन होगा. फिर, कोई भी अग्नि मंदिर में प्रवेश कर सकेगा, और पारसी समुदाय में गोद लेने की अनुमति दी जाएगी, जिसे हम स्वीकार नहीं कर सकते – बॉम्बे पारसी पंचायत ट्रस्टी
प्रोची मेहता ने अपने पोते-पोतियों को कोलकाता के अग्नि मंदिर में प्रवेश से वंचित किए जाने के बाद कोलकाता उच्च न्यायालय में याचिका दायर की. गुलरुख गुप्ता ने वलसाड पारसी अंजुमन के उस फैसले को चुनौती दी है, जिसमें समुदाय से बाहर शादी करने के कारण उन्हें अपनी मां का अंतिम संस्कार करने से रोक दिया गया था. गुप्ता का तर्क है कि संविधान के अनुच्छेद 21 और 14 के तहत उनके अधिकारों का उल्लंघन किया गया है. पूर्व पत्रकार सनाया दलाल ने फरवरी 2021 में कुछ पारसी संस्थानों, विशेष रूप से बॉम्बे जिमखाना द्वारा धर्म से बाहर शादी करने वालों के बच्चों को प्रवेश न देकर महिलाओं के खिलाफ किए जा रहे लैंगिक भेदभाव के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. दलाल के पांच साल के बेटे को दादर के पारसी जिमखाना में खेल के मैदान में प्रवेश करने से रोक दिया गया है. और मूर्तिकार नाओमी ईरानी ने पारसी विवाह और तलाक अधिनियम 1936 की कई धाराओं को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. ऐसा करने वाली वह अकेली हैं.
“मेरी शादी 100 साल पुराने कानूनों द्वारा शासित क्यों है?” ईरानी पूछती हैं, जिन्होंने 2016 में तलाक के लिए अर्जी दी थी. सात साल बाद भी, उनके तलाक को अभी तक अंतिम रूप नहीं दिया गया है.
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अदालती मामले खिंचते रहते हैं
हर बार जब नाओमी ईरानी ने बॉम्बे हाई कोर्ट में कदम रखा, तो उन्हें ऐसा महसूस हुआ जैसे 150 साल पुरानी विरासत इमारत की दीवारें उनके करीब आ रही थीं, मानो उन्हें पूरी तरह से निगलने के लिए तैयार थीं. यहीं पर पांच प्रमुख पारसी पुरुषों और महिलाओं की एक जूरी को उसके मामले पर विचार-विमर्श करने के लिए बुलाया जाना चाहिए था, लेकिन अब तक यह एक बार भी इकट्ठा नहीं हुई है.
ईरानी-पारसी-ज़ोरोस्ट्रियन समुदाय देश का एकमात्र समूह है जिसके तलाक के मामलों का फैसला पारसी वैवाहिक और तलाक अधिनियम 1936 की धारा 18 के अनुसार बॉम्बे, कलकत्ता और मद्रास उच्च न्यायालयों में पांच सदस्यीय जूरी द्वारा किया जाता है. उल्लेखनीय रूप से, दशकों बाद जब भारत ने 1959 में इन्हें ख़त्म कर दिया ये पारसी वैवाहिक अदालतें भारत की आखिरी बची हुई जूरी ट्रायल हैं. आपसी सहमति को तलाक के लिए वैध आधार के रूप में मान्यता देने के लिए 1988 में अधिनियम में संशोधन किया गया था.
अक्सर, पैनल के सदस्य वरिष्ठ नागरिक होते हैं, और ईरानी के अनुसार, उन्हें अदालती सत्र में भाग लेने के लिए राजी करने में कई साल लग सकते हैं, जिससे उनकी आवाज़ में निराशा नज़र आती है.
जूरी पैनल के सदस्यों को बॉम्बे पारसी पंचायत द्वारा नियुक्त किया जाता है और वे न्यायाधीश के निर्णय के अनुरूप निर्णय देते हुए कार्यवाही में भाग लेते हैं. यदि जूरी की राय न्यायाधीश के फैसले से भिन्न होती है, तो निर्णय अमान्य हो जाता है, सुप्रीम कोर्ट में ईरानी के वकील फिरोजा दारूवाला ने इस बात को समझाते हुए कहा.
ईरानी अफसोस जताते हुए कहती हैं, “किसी तरह की कोई गोपनीयता नहीं है. हमारी शादी का गंदा कपड़ा एक छोटे से समुदाय के सामने धोया जाता है, जो बात सब तक तेज़ी से फैल जाती है.” सुप्रीम कोर्ट की वकील फिरोजा दारूवाला इस कार्यवाही की तुलना टीवी सीरियल से करती हैं.
मामले अक्सर वर्षों तक खिंचते रहते हैं. बॉम्बे हाई कोर्ट में, ईरानी एक दशक से अधिक समय से तलाक पाने के लिए संघर्ष कर रहे कई लोगों से मिलीं.
पारिवारिक अदालतों के विपरीत, जो विशेष रूप से पारिवारिक मुद्दों और विवाह-संबंधी विवादों से निपटती हैं, उच्च न्यायालयों में वैसा ही अनुकूल माहौल नहीं है, जो परिवारों के लिए एक कठिन अनुभव हो सकता है.
इन लंबी कानूनी प्रक्रियाओं को दरकिनार करने के लिए, कई जोड़े अदालत कक्ष के बाहर एक समझौते कर लेते हैं, जिसे ईरानी “न्याय न मिलने” जैसा मानते हैं.
ईरानी कहते हैं, “हमारे तलाक के मामले दशकों तक चलते हैं. यह पर्सनल लॉ महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण है. यही कारण है कि मैंने इसे चुनौती दी है.”
वह पारसी समुदाय की पहली महिला हैं जिन्होंने पारसी विवाह और तलाक अधिनियम 1936 की दस धाराओं को चुनौती दी और जूरी प्रणाली को खत्म करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. वह जिन धाराओं का विरोध करती है उनमें धारा 50 भी शामिल है, जिसमें कहा गया है कि यदि एक पारसी पत्नी किसी अन्य के साथ व्यभिचार (Adultery) करती है जिसके कारण तलाक या न्यायिक अलगाव हो जाता है, तो अदालत उसकी आधी संपत्ति “बच्चों के लाभ के लिए” देने को कह सकती है. लेकिन, यह प्रावधान पुरुषों पर समान रूप से लागू नहीं होता है.
2017 में, जब वह सुप्रीम कोर्ट के सामने खड़ी हुईं, तो उन्हें आज़ाद महसूस हुआ. जस्टिस कुरियन जोसेफ और जस्टिस अमिताव रॉय की पीठ ने उनकी याचिका स्वीकार करते हुए पूछा कि ऐसे कानून को अब तक चुनौती क्यों नहीं दी गई. ईरानी की तत्कालीन वकील नीला गोखले, जो अब बॉम्बे हाई कोर्ट में न्यायाधीश हैं, ने पीठ को जवाब दिया, “एक आवाज अभी भी एक आवाज है.”
कौन हैं पारसी?
कोलकाता में पारसी अगियारी (अग्नि मंदिर) से एक फोन कॉल ने प्रोची एन मेहता को पारसी पहचान को परिभाषित करने के मार्ग पर प्रेरित किया. उनकी बेटी की शादी एक गैर-पारसी से होने के बावजूद, उनके बच्चों का पालन-पोषण पारसी धर्म में हो रहा है. साथ में, परिवार अक्सर कोलकाता अगियारी – शहर में एकमात्र – प्रार्थना करने के लिए जाता था, विशेष रूप से जन्मदिन, वर्षगांठ और नवरोज़ (पारसी नव वर्ष) जैसे विशेष अवसरों पर.
और फिर मंदिर का पुजारी बदल गया और उसने फैसला सुनाया कि उनके पोते-पोतियां अंतर्धार्मिक विवाह से पैदा हुई संतानें हैं इसलिए उन्हें मंदिर के अंदर जाने की अनुमति नहीं दी जाएगी. गैर-पारसियों से शादी करने वाली महिलाओं के बच्चों को इसमें स्वीकार नहीं किया जाता है.
मेहता ने कोलकाता में पारसी समुदाय के सदस्यों को पत्र लिखे, और एकजुटता व्यक्त करते हुए सैकड़ों उत्तर प्राप्त हुए. वह कहती हैं, “हमारे पास कोलकाता में 20 वर्ष से कम आयु के केवल 30 पारसी हैं. यहां हर कोई बच्चों से प्यार करता है और कोई भी उन्हें अलग नहीं करना चाहता.”
यह उन्हें पारसी को परिभाषित करने की कोशिश करने के रास्ते पर भी लेकर गया. उन्होंने पुराने रिकॉर्ड देखे, धार्मिक और कानूनी विशेषज्ञों से बात की, और 2022 में, ‘हू इज़ पारसी?’ प्रकाशित किया – जो कि एक विद्वतापूर्ण कार्य है जिसमें न्यायविद् फली एस नरीमन की प्रस्तावना शामिल है.
अपने शोध के माध्यम से, मेहता यह दिखाने की कोशिश करती हैं कि उनके नाना-नानी को पारसियों को मिलने वाले विशेषाधिकारों से वंचित करने का कोई कानूनी, धार्मिक या सामाजिक औचित्य नहीं है. यह पूजा स्थलों से आगे बढ़कर दख्मा (मौन की मीनार) और अंतिम संस्कार संस्कार में भागीदारी को भी शामिल करता है. उनका निष्कर्ष? पारसी और ज़ोरोस्ट्रियन होना स्वाभाविक रूप से एक ही है. हालांकि, रूढ़िवादी पारसी इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं हैं.
बीपीपी ट्रस्टी ने कहा, “कोई भी ज़ोरोस्ट्रियन धर्म में परिवर्तित हो सकता है लेकिन वे पारसी ज़ोरोस्ट्रियन नहीं बन सकते.”
मेहता की किताब यूसीसी बहस का एक अभिन्न हिस्सा बन गई है.
पिछल 12 सालों से, उन्होंने और उनके परिवार ने कोलकाता अगियारी के अंदर कदम नहीं रखा है. वह पूछती है, “हमें ऐसी जगह क्यों जाना चाहिए जहां हमारे बच्चों को जाने की अनुमति नहीं है?” मेहता ने इस भेदभावपूर्ण प्रथा के खिलाफ कलकत्ता उच्च न्यायालय में याचिका दायर की है.
“आप किसी महिला के बच्चों को स्वीकार करने से कैसे इनकार कर सकते हैं? ऐसा कुछ भी नहीं है जो कहता हो कि हमारे बच्चों को स्वीकार किया जाना चाहिए या नहीं किया जाना चाहिए.”
इन कड़े कानूनों को 1908 के एक मामले के तहत बनाया गया था जब पहले पारसी बॉम्बे हाई कोर्ट के न्यायाधीश, दिनशॉ डावर और ब्रिटिश न्यायाधीश फ्रैंक बीमन ने कहा कि भारतीय पारसी एक “शुद्ध” जाति है, जिन्हें ऐसे व्यक्तियों को स्वीकार या शामिल करने की ज़रूरत नहीं है जो कम्युनिटी को “दूषित” कर सकते हैं. हालांकि, पारसी पिता और “विदेशी” माताओं के बच्चों को भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता है. पारसी लोग 1908 के डावर बीमन फैसले को अपना निजी कानून मानते हैं.
इन न्यायाधीशों द्वारा दिए गए फैसले को अक्सर पारसियों द्वारा कुछ प्रथाओं को लेकर केस बनाया जाता है, जिसमें अग्नि मंदिर या टॉवर ऑफ साइलेंस पर प्रतिबंध शामिल हैं. बीपीपी के एक ट्रस्टी ने कहा, ”हम जो भी करते हैं, कानून के अनुसार करते हैं.”
ये प्रतिबंध अक्सर महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण प्रतीत होते हैं. उदाहरण के लिए, जहां पुरुष पारसियों के नाजायज बच्चों को भी समुदाय के सदस्यों के रूप में मान्यता दी जाती है, वहीं समुदाय के बाहर शादी करने वाली पारसी महिलाओं के बच्चों को समान दर्जा नहीं दिया जाता है.
यही कारण है कि गुजरात के वलसाड की गुलरुख गुप्ता को पारसी अंजुमन ट्रस्ट द्वारा उनकी मां का अंतिम संस्कार करने के लिए टॉवर ऑफ साइलेंस में प्रवेश से वंचित कर दिया गया. गैर-पारसी पति चुनने के कारण उनसे उनके पारसी अधिकार छीन लिए गए. वलसाड अग्नि मंदिर और डूंगरवाड़ी (मृत्यु अनुष्ठानों के लिए स्थल) में प्रवेश करने की उनकी अपील खारिज कर दी गई. उन्होंने गुजरात उच्च न्यायालय में याचिका दायर की, जिसने उनके खिलाफ फैसला सुनाया. इसके बाद, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और कहा कि यह प्रतिबंध संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के तहत निहित महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन करता है.
दलाल ने कहा, “1908 डावर बीमन दस्तावेज़ एक निर्णय है, कोई कानून नहीं. यह उस युग से है जब महिलाओं को व्यक्ति भी नहीं माना जाता था, और यह संविधान से भी पहले का है. यह 110 साल पुराना है और इसका संदर्भ नहीं दिया जाना चाहिए.”
गोद लेने की अनुमति नहीं है
मुंबई के फोर्ट इलाके में अब बंद हो चुके पारसी लेइंग-इन अस्पताल में, केवल एक वॉर्ड भरा हुआ है. यह शिशुओं या नर्सों या डॉक्टरों से भरा नहीं है; बल्कि, यह पाक्षिक पत्रिका पारसियाना के पीछे की छोटी टीम का कार्यस्थल है. काम की मेजें पुराने अंकों, अखबारों, पत्रिकाओं, फाइलों और कागजों से भरी पड़ी हैं.
जैसे ही यूसीसी पर बहस तेज़ हुई, पारसियाना ने तर्क के दोनों पक्षों को प्रकाशित किया है. इसके संपादक जहांगीर पटेल, जिन्होंने सभी पक्षों और गुटों को सुना है, एक ‘उदारवादी’ रुख रखते हैं. “सुधार भीतर से आना चाहिए; इसे थोपा नहीं जा सकता,” वह कहते हैं. लेकिन कई लोगों को डर है कि पहले ही बहुत देर हो चुकी है. पटेल चाहते हैं कि पारसी अपनी रूढ़िवादी प्रथाओं को छोड़ दें, लेकिन उन्हें नहीं लगता कि जल्दबाजी में लागू समान नागरिक संहिता इसका समाधान है.
जैसे-जैसे पारसी आबादी घटती जा रही है, गोद लेना कोई समाधान नहीं माना जा रहा है. 1908 के डावर-बीमन फैसले के अनुसार, ‘विदेशी बच्चे’ को गोद लेने से उन्हें पारसी समुदाय में एकीकृत नहीं किया जा सकता है.
फैसले में कहा गया है,“पारसी में जन्मे व्यक्ति को हमेशा पारसी ही रहना चाहिए, चाहे वह बाद में कोई भी अन्य धर्म अपनाए और माने. वह एक ईसाई पारसी हो सकता है, और वह अपने धर्म के अनुसार कोई अन्य पारसी भी हो सकता है; लेकिन उसे हमेशा एक पारसी होना चाहिए.”
ओह दोज़ पारसीज़! के वकील और लेखक बर्जिस देसाई इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि कैसे इसने युवा पारसी जोड़ों को बंधन में डाल दिया है. उन्होंने कहा, “कई लोग बच्चा गोद लेना चाहते हैं. लेकिन किसी कानूनी अधिकार के अभाव में, वे ऐसा करने में असमर्थ हैं.”
देसाई बताते हैं कि कुछ पारसी जोड़ों ने अभिभावक और वॉर्ड अधिनियम 1890 के तहत बच्चों को गोद लिया है, वे कानूनी अभिभावक बन गए हैं और धीरे-धीरे उन्हें समुदाय में एकजुट कर रहे हैं. वह आगे कहते हैं, “लेकिन माता-पिता के रूप में पहचाने जाने का टैग अपेक्षित है.” मुस्लिम और ईसाई जैसे अन्य समुदाय भी इसी अधिनियम के तहत बच्चों को गोद लेते हैं, लेकिन इन गोद लिए गए बच्चों को प्राकृतिक रूप से पैदा हुए बच्चों के समान दर्जा प्राप्त नहीं होता है.
पारसियाना में प्रकाशित एक ऑप-एड में, देसाई इसे एक पारसी जोड़े के उदाहरण से दिखाते हैं जिन्होंने अपने घर में काम करने वाले के बच्चे को गोद लिया था. जबकि वह बीपीपी हाउसिंग कॉम्प्लेक्स में रहती थी और बॉग संस्कृति को अपनाया था, यहां तक कि नवजोत समारोह भी मनाती थी, इनमें से किसी भी कार्य ने पारसी के रूप में उसके अधिकारों की गारंटी नहीं दी.
देसाई ने लिखा,“गोद लेने के विपरीत, जहां गोद लिया गया बच्चा प्राकृतिक रूप से जन्मे बच्चे के समान दर्जा प्राप्त कर लेता है, अभिभावक अधिनियम समान कानूनी दर्जा प्रदान नहीं करता है. उदाहरण के लिए, यदि अभिभावक माता-पिता की वसीयत के बिना मृत्यु हो जाती है, तो अभिभावक अधिनियम के तहत उसके बच्चे को उसकी संपत्ति पर वही उत्तराधिकार अधिकार नहीं मिलेगा, जो उसके प्राकृतिक जन्म के अनुसार होगा.”
पूरी संभावना है कि गोद ली गई बच्ची बीबीपी फ्लैट में रहने की हकदार नहीं होगी, जिसमें वह पली-बढ़ी है क्योंकि उसे पारसी नहीं माना जाता है.
वकील फिरोजा दारूवाला ने कहा, “बच्चों को भूल जाइए, यहां तक कि अंतर्जातीय विवाह करने वाली महिलाओं के बच्चे भी बॉग फ्लैट्स में नहीं रह सकते हैं. वसीयत की मौजूदगी से कोई फर्क नहीं पड़ता.”
समान नागरिक संहिता की बहस में बॉम्बे पारसी पंचायत के निर्णायक आवाज के रूप में उभरने को लेकर पारसी समुदाय में असंतोष बढ़ रहा है.
देसाई पूछते हैं कि उन्हें भारत के 22वें विधि आयोग के साथ बैठक के दौरान समुदाय का प्रतिनिधित्व करने की शक्ति किसने दी.
उन्होंने पारसियाना में तीखी आलोचना में लिखा,“क्या चयन का कारण विशेषज्ञता थी, या उनके धार्मिक विचार? अजीब बात यह है कि जिन लोगों को आमंत्रित किया गया था उनमें से कई लोग इसमें शामिल नहीं हुए, जिनमें उदवाडा के उच्च पुजारी दस्तूर खुर्शीद दस्तूर, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व सदस्य भी शामिल थे.”. देसाई ने आगे कहा कि बैठक में कोई भी उदारवादी आवाज मौजूद नहीं थी. “ऐसा प्रतीत होता है कि यह परामर्श ट्रस्टियों द्वारा चाहे जाने वाले निष्कर्ष, यानी पूरी छूट, तक पहुंचने के लिए आयोजित किया गया है.”
उदार पारसियों का तर्क है कि यद्यपि रूढ़िवादी गुट मुखर है, वे समुदाय के सिद्धांत में सुधार पर एक छोटे परिप्रेक्ष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं. हालांकि, उनकी कम संख्या के बावजूद, रूढ़िवादी धार्मिक नेतृत्व सहित आधिकारिक पदों पर हैं, जो सुधार को रोकता है.
यूसीसी ने इन प्रथाओं को जनता के सामने ला दिया है.
पारिवारिक कानून सुधार पर भारत के विधि आयोग की 2018 की रिपोर्ट ने जूरी प्रणाली की “पुरातन”, “थकाऊ” और “जटिल” के रूप में आलोचना की. रिपोर्ट में जूरी सत्रों की कम आवृत्ति पर प्रकाश डाला गया, जिसमें जूरी की बैठक वर्ष में केवल दो बार होती है. और चूंकि पारसी वैवाहिक न्यायालय केवल राष्ट्रपति उच्च न्यायालयों में स्थापित किए जाते हैं, इससे महानगरीय क्षेत्रों से दूर रहने वाले लोगों को असुविधा होती है.
“इससे न केवल महानगरीय शहरों से बाहर रहने वाले लोगों को अत्यधिक देरी और असुविधा होती है, बल्कि ये सिस्टम अंतर-सामुदायिक विवाह को भी हतोत्साहित करती हैं.” वकील दारूवाला के मुताबिक, बॉम्बे हाई कोर्ट से जुड़ी पारसी वैवाहिक अदालत अगस्त 2019 से आयोजित नहीं हुई है.
मुंबई के दादर पारसी जिमखाना में, यातायात के शोर के बीच अक्सर बच्चों के खेलने की आवाज़ें सुनी जा सकती हैं. यहीं पर दयाल का बेटा अपने कॉलोनी के दोस्तों के साथ खेलने जाता था. लेकिन जब वह पांच साल के हुए तो उन्हें खेल के मैदान में जाने से रोक दिया गया क्योंकि वह एक अंतरधार्मिक जोड़े की संतान थे. समुदाय के बाहर शादी करने वाली महिलाओं के बच्चों को जिमखाना का उपयोग करने से प्रतिबंधित किया जाता है. वह उसी भेदभाव का सामना कर रहा है जो उसके पिता ऋषि ने तब किया था जब वह बड़ा हो रहा था. ऋषि के माता-पिता भी एक अंतरधार्मिक कपल थे.
ऋषि के बचपन के दोस्त और दलाल के वकील दारूवाला कहते हैं, ”यह दूसरी पीढ़ी का भेदभाव है.” “अपने पूरे जीवन में, ऋषि को सांस्कृतिक कार्यक्रमों में नहीं बुलाया जाता और उन्हें अगियारी में प्रार्थना करने से रोक दिया गया. आज उनके बेटे के साथ भी वही हो रहा है.”
जब से दयाल ने अदालत का रुख किया है, उन्हें सोशल मीडिया पर नफरत भरे कमेंट्स मिल रहे हैं. आलोचना करने वाले, जिनके बारे में दलाल का कहना है कि उन्हें ‘हिरासत में लिया जाना चाहिए’, उनके बेटे और अंतर-धार्मिक विवाह के अन्य बच्चों को ‘पतला दूध’, ‘खच्चर’ और ‘भेलपुरी’ कहते हैं.
यह ग्राउंड रिपोर्ट पारसीपोलिस नामक श्रृंखला में दूसरी है. सभी लेख यहां पढ़ें.
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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