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Wednesday, 24 April, 2024
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व्हाट्सएप बनाम मोदी सरकार: निजता या राजनीति? ये है लड़ाई का मुद्दा

मोदी सरकार के नए IT नियमों के ख़िलाफ, व्हाट्सएप की याचिका का मुख्य मुद्दा निजता का अधिकार है, और ये भारत में इसके इस्तेमाल की, एक अहम आज़माइश साबित हो सकता है.

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नई दिल्ली: निजता और डेटा पर नरेंद्र मोदी सरकार और मैसेजिंग प्लेटफॉर्म व्हाट्सएप के बीच की ताज़ा क़ानूनी लड़ाई, पिछले हफ्ते दिल्ली हाईकोर्ट पहुंच गई.

फेसबुक कंपनी के स्वामित्व वाली व्हाट्सएप ने, मंगलवार को एक याचिका दायर करके, सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवती दिशा-निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021, के नियम 4(2) को चुनौती दी है. इस नियम के तहत बड़े यूज़र बेस वाले सोशल मीडिया मध्यस्थों को (जिन्हें महत्वपूर्ण सोशल मीडिया मध्यस्थ बताया गया है), ज़रूरत पड़ने पर अपने प्लेटफॉर्म पर दी गई जानकारी के, शुरू करने वाले का पता लगाने का प्रावधान करना होगा. ये विशेष रूप से उन मध्यस्थों के लिए है, जो मैसेजिंग सर्विसेज मुहैया कराते हैं.

जहां सरकार की दलील है कि फेक न्यूज़ को रोकने, तथा सोशल मीडिया के दुरुपयोग को नियंत्रित करने के लिए, ये क़ानून आवश्यक है, वहीं व्हाट्सएप ने कहा कि ‘एन्ड-टु-एन्ड एन्क्रिप्शन’ में बदलाव करने से, सभी यूज़र्स के सामने सरकारी तथा निजी प्लेयर्स के हाथों, उनकी निजता के उल्लंघन का ख़तरा पैदा हो जाएगा, जिससे पत्रकारों, नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं, और राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं के सामने प्रतिशोध का ख़तरा पैदा हो जाएगा.

व्हाट्सएप फिलहाल जो एन्ड टु एन्ड एन्क्रिप्शन देती है, वो संचार का एक ऐसा सिस्टम है, जहां केवल संचार कर रहे यूज़र्स ही, संदेशों को पढ़ सकते हैं.

और इसलिए, इस केस का मुख्य मुद्दा निजता का अधिकार है, और ये भारत में इसके इस्तेमाल की, एक अहम आज़माइश साबित हो सकता है.

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दिप्रिंट इस मामले की मुख्य रूपरेखा पर नज़र डालता है, जिसमें नए नियम, व्हाट्सएप के संकोच, और सरकार की दलीलें शामिल हैं.

क्या है नया क़ानून

25 फरवरी को प्रकाशित नए आईटी क़ानूनों के नियम 4 (2) के तहत, महत्वपूर्ण सोशल मीडिया मध्यस्थों को- जिनके भारत में 50 लाख से अधिक यूज़र्स हैं- जानकारी की ओरिजिन वाले व्यक्ति का पता लगाना होगा, अगर किन्हीं अपराधों के लिए, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के अनुच्छेद 69 के तहत, किसी अदालत या सक्षम प्राधिकारी द्वारा, उसकी मांग की जाए.

इसमें स्पष्ट किया गया है कि ऐसा आदेश, उन मामलों में जारी नहीं किया जाएगा, जहां कम दख़ल वाले साधन उपलब्ध हैं, और किसी भी मध्यस्थ से, संदेश को शुरू करने वाले से संबंधित, किसी इलेक्ट्रॉनिक संदेश या अन्य किसी तरह की जानकारी, साझा करने के लिए नहीं कहा जाएगा.

सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 के अनुच्छेद 69 के तहत, केंद्र सरकार, राज्य सरकार, या उसके अधिकृत अधिकारी को, कंप्यूटर के ज़रिए मिली किसी भी सूचना या जानकारी को ‘रोकने, निगरानी करने, या विकोडित करने का’ निर्देश देने का अधिकार देता है, ‘यदि उसे लगता है कि ऐसा करना आवश्यक या फायदेमंद है’.

इसकी अनुमति सिर्फ कुछ विशिष्ट आधारों पर दी गई है, जिनमें देश की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, सार्वजनिक व्यवस्था से जुड़े किसी संज्ञेय अपराध को अंजाम देने के लिए, किसी को सार्वजनिक रूप से उकसाने से रोकना, या किसी ‘अपराध की जांच’ शामिल हैं.

ऐसे आदेशों को नियमित करने के लिए, इस प्रावधान के तहत इनफॉर्मेशन टेक्नॉलजी (प्रोसीजर एंड सेफगार्ड्स फॉर इंटरसेप्शन, मॉनिटरिंग एंड डीक्रिप्शन ऑफ इनफॉर्मेशन) रूल्स 2009, जारी किए गए हैं.


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सरकार के इंटरसेप्शन आदेशों में पारदर्शिता की कमी

धारा 69 (1) के अंतर्गत सरकार की ओर से जारी, अधिकार देने वाले सभी आदेश तर्कसंगत और लिखित होने चाहिए. इसके अलावा, हर दो महीने में कम से कम एक बार, इंडियन टेलीग्राफ रूल्स 1951 के तहत गठित, समीक्षा समिति द्वारा इसकी स्क्रूटिनी होनी चाहिए. इस समिति में केंद्र सरकार तथा संबंधित राज्य के सचिव शामिल होते हैं.

लेकिन, ऐसे आदेशों में पारदर्शिता न होने के कारण अक्सर उनकी आलोचना हुई है, ख़ासकर इसलिए कि अनुच्छेद 69 के तहत, इलेक्ट्रॉनिक निगरानी से जुड़े बेनाम आंकड़ों की मांग करने वाले, सूचना के अधिकार (आरटीआई) आवेदनों को, राष्ट्रीय सुरक्षा और निजता की चिंताओं का हवाला देते हुए, अतीत में ख़ारिज किया गया है.

पारदर्शिता की इस कमी पर बात करते हुए, डिजिटल राइट्स वकील वृंदा भंडारी ने दिप्रिंट से कहा, ‘सरकार सक्रियता के साथ हर महीने/साल जारी किए जाने वाले, ऐसे आदेशों की कुल संख्या प्रकाशित नहीं करती; न ही वो समीक्षा समिति की बैठकों की संख्या की, कोई जानकारी देती है’.

उन्होंने कहा, ‘इसके अलावा, एमएचए (गृह मंत्रालय) ऐसे कुल बेनामी आंकड़े मांगने वाले आरटीआई आवेदनों को, राष्ट्रीय सुरक्षा और निजता की चिंताओं का हवाला देते हुए ख़ारिज कर देता है. बल्कि सीआईसी (केंद्रीय सूचना आयुक्त) के सामने उपस्थित अधिकारियों ने तर्क दिया, कि वो इस तरह की जानकारी नहीं रखते’.

भंडारी ने आगे कहा, ‘ये अपारदर्शिता डिक्रिप्शन अथवा इंटरसेप्शन आदेशों के न्यायिक निरीक्षण के अभाव में और बढ़ जाती है, जिससे इंटरसेप्शन प्रक्रिया पर सरकार की जवाबदेही और कम हो जाती है’.

एक ग़ैर-सरकारी संस्था इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन (आईएफएफ) की ओर से, सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका में भी, इसी तरह की चिंताएं व्यक्त की गईं हैं. जनवरी 2019 में आईएफएफ ने, अनुच्छेद 69 तथा 2009 के नियमों की, संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी, और ये याचिका फिलहाल लंबित है.

‘एन्ड टु एन्ड एन्क्रिप्शन पत्रकारों व कार्यकर्त्ताओं को सुरक्षा देता है’: व्हाट्सएप

25 मई को दायर अपनी याचिका में, जो इन सोशल मीडिया मध्यस्थों के लिए, नए नियमों का पालन करने की अंतिम तिथि थी, व्हाट्सएप ने तीन मुख्य आधारों पर नियम 4(2) को चुनौती दी.

पहला, इसने आरोप लगाया कि ये नियम, 40 करोड़ से अधिक व्हाट्सएप यूज़र्स की निजता, और उनके बोलने तथा विचारों की अभिव्यक्ति के, मौलिक अधिकारों का हनन करता है, जिसकी संविधान की धाराओं 21 और 19 के तहत गारंटी दी गई है.

दूसरे, इसमें कहा गया है कि व्हाट्सएप को, अपने प्लेटफॉर्म में ‘मौलिक बदलाव’ के लिए कहकर, और किसी समयावधि कि बिना उसे बरसों तक डेटा को स्टोर करने के लिए मजबूर करके, ये क़ानून सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के दायरे से बाहर चला जाता है.

तीसरे, इसमें कहा गया है कि ये क़ानून, संविधान की धारा 14 का उल्लंघन करता है, और इसे ‘स्पष्ट रूप से मनमाना’ क़रार दिया गया है.

व्हाट्सएप ने एन्ड टु एन्ड एन्क्रिप्शन का भी, ये कहते हुए बचाव किया है, कि ये हैकिंग और पहचान चुराने जैसे अपराधों को रोकता है. इसने निवेदन किया है कि ये डॉक्टर-क्लाएंट विशेषाधिकार, वकील-क्लाएंट विशेषाधिकार, और जेंडर, धर्म, तथा सेक्सुएलिटी जैसे संवेदनशील मुद्दों पर, निजी बातचीत को सुरक्षित करता है.

मैसेजिंग एप ने ये भी दावा किया है, कि भारत में सूचना के ओरिजिनेटर की पहचान की ज़रूरत को थोपने से, पत्रकारों पर ‘अलोकप्रिय मुद्दों की जांच के प्रतिशोध का ख़तरा हो सकता है,’ और सिविल या राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं पर ‘कुछ अधिकारों की चर्चा करने, या राजनीतिज्ञों अथवा नीतियों की, आलोचना या हिमायत करने के, प्रतिशोध का ख़तरा पैदा हो सकता है’.


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एन्ड टु एन्ड एन्क्रिप्शन तोड़ने से क्या होगा

जहां आईटी मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने, व्हाट्सएप के सामान्य यूज़र्स को आश्वस्त किया है, कि उन्हें ‘डरने की कोई ज़रूरत नहीं है’, वहीं घरेलू सोशल मीडिया कू पर एक पोस्ट में, व्हाट्सएप ने दावा किया है कि नियम 4(2) का पालन करने में, सभी यूज़र्स की स्थिति संवेदनशील हो जाएगी.

उसने कहा कि ऐसा इसलिए है, कि इसमें प्लेटफॉर्म को एक ऐसा तंत्र तैयार करना होगा, जिसमें उसकी मैसेजिंग सेवा से भारत में भेजे जा रहे हर संचार के स्रोत का पता लगाया जा सके, जिसके दायरे में वो लोग भी आ जाएंगे , जो वैध तरीक़े से सेवा का इस्तेमाल कर रहे हैं, चूंकि ऐसा अनुमान लगाने का कोई तरीक़ा नहीं होगा, कि कौन सा संदेश ऐसे आदेश का विषय बन जाएगा, जिसमें सूचना के पहले जनक की जानकारी मांगी जाएगी’.

एन्ड टु एन्ड एन्क्रिप्शन तोड़ने के लिए क्या करना होगा, इस बारे में मुम्बई स्थित टेक्नोलॉजी वकील ओशो छैल ने कहा, ‘इस समय हमें मालूम नहीं है कि टेक्नोलॉजी के संदर्भ में इसका क्या मतलब होगा’.

लेकिन उन्होंने दिप्रिंट से कहा: ‘जब आप एन्ड टु एन्ड एन्क्रिप्शन को तोड़ते हैं, तो इस पूरी संरचना पर न सिर्फ सरकार, बल्कि दुष्ट लोगों की ओर से भी, हमले का ख़तरा पैदा हो जाता है. इसलिए निजता की चिंता न सिर्फ सरकार के संभावित रूप से हद से आगे बढ़ने, बल्कि दुष्ट लोगों की ओर से ख़तरे से भी पैदा होती है’.

छैल ने कहा, ‘अगर कुछ विशिष्ट अपराधों की वजह से, पूरे सिस्टम के साथ समझौता किया जा रहा है, तो उससे जो संवेदनशीलता पैदा होगी, वो पूरे सिस्टम को प्रभावित करेगी’.

पता लगाने की क्षमता का सवाल SC में लंबित

ये पहली बार नहीं है, कि व्हाट्सएप संदेशों का पता लगाने की क्षमता का सवाल, कोर्ट में उठाया गया है.

2019 में मद्रास उच्च न्यायालय ने, क़ानून प्रवर्त्तन एजेंसियों तथा सोशल मीडिया कंपनियों के बीच तालमेल बढ़ाने के लिए, व्हाट्सएप संदेशों का पता लगाने की संभावना पर ग़ौर किया था.

लेकिन उसके सामने दो परस्पर विरोधी रुख़ थे- एक तरफ आईआईटी मद्रास के प्रोफेसर थे, जिन्होंने संदेशों का पता लगाने का सुझाव दिया, और दूसरी तरफ आईआईटी बॉम्बे के एक प्रोफेसर थे, जिन्होंने एन्क्रिप्टेड प्लेटफॉर्म्स पर संदेशों का पता लगाने में निहित जोखिम, और दीर्घ-कालिक प्रभावहीनता पर प्रकाश डाला.

इससे पहले कि मद्रास हाईकोर्ट इस मुद्दे पर कोई निर्णय कर पाता, अक्तूबर 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने इस पीआईएल को, ख़ुद को ट्रांसफर कर लिया. लेकिन, दिल्ली हाईकोर्ट में अपनी याचिका में, व्हाट्सएप की ओर से, शीर्ष अदालत में लंबित इस याचिका का उल्लेख नहीं किया गया है.

केंद्र ने बताया पाखंड, कहा याचिका सिर्फ रोकने की चाल

इस बीच, व्हैट्सएप की याचिका के बाद, इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (एमईआईटीवाई) ने, बुधवार को एक बयान जारी करके, नियमों का बचाव किया.

प्रसाद का हवाला देते हुए, बयान में कहा गया कि जहां सरकार, अपने सभी नागरिकों की निजता के अधिकार को लेकर प्रतिबद्ध है, ‘वहीं सरकार की ये भी ज़िम्मेदारी है, कि क़ानून व्यवस्था बनाए रखे, और राष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करे’.

उसमें ये भी कहा गया है कि व्हाट्सएप ने ‘बिल्कुल अंतिम समय पर’ याचिका दायर की है, और ये ‘क़ानून को लागू होने से रोकने का, एक दुर्भाग्यपूर्ण प्रयास है’.

बयान में आगे चलकर व्हाट्सएप की अपनी निजता नीति को निशाने पर लिया गया है, जिसे यूज़र्स के डेटा और निजता के अधिकारों के उल्लंघन के आरोपों के चलते, पीछे खिसकाना पड़ा. मंत्रालय ने ज़ोर देकर कहा, कि ‘नियम 4 (2) के पीछे के उद्देश्य के बारे में शक करना मूर्खता होगी’.

लेकिन, एक विधि सेवा संगठन सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेंटर की लीगल डायरेक्टर, मिशी चौधरी ने कहा कि सरकार के साथ ‘विश्वास की कमी’ है.

चौधरी ने दिप्रिंट से कहा, ‘सरकार द्वारा कार्यकर्त्ताओं की जासूसी के बारे में, एनएसओ के रहस्योदघाटन, नैरेटिव को तैयार करने में निरंतर दख़लअंदाज़ी, राजनीतिक विरोध का दमन, और सोशल मीडिया कंपनियों के साथ ज़ोर-ज़बर्दस्ती, राजनीतिक दलों द्वारा सोशल मीडिया को हथियार बनाना, और ऑनलाइन उत्पीड़न, सब ने मिलकर विश्वास की एक कमी पैदा कर दी है, जिसमें चीज़ों को नियमित करने के वास्तविक प्रयास भी, संदेह पैदा कर देते हैं’.

जाली ख़बरों तथा राष्ट्रीय सुरक्षा के तर्क

इस क़ानून को न्यायोचित ठहराने वाले तर्क भी, जाली ख़बरों को रोकने और क़ानून व्यवस्था की स्थिति संभालने के इर्द-गिर्द ही होते हैं. आईटी मंत्रालय का बयान, मुख्य रूप से इन्हीं दो तर्कों का सहारा लेता है.

लेकिन, चौधरी ने कहा कि ‘हमें सबूत दिए जाने चाहिए, कि कितने मामलों की जांच इसलिए नहीं हो सकी, कि कंपनियों ने सहयोग करने से इनकार कर दिया’.

इस बीच छैल ये भी जानना चाहते थे, कि क्या इन क़ानूनों से चीज़ें और बिगड़ नहीं जाएंगी. ‘सुरक्षा चिंताओं के मद्देनज़र, अपराधिक गतिविधियों को रोकने के लिए, कई मामलों में ये उद्देश्य वैध हो सकता है, लेकिन सवाल ये है कि, इन सुरक्षा चिंताओं को दूर करने की कोशिश में, सिस्टम को ऐसे ख़तरों के प्रति ज़्यादा संवेदनशील बनाकर, आप चीज़ों को और बिगाड़ तो नहीं रहे?’

जहां तक विकल्प का सवाल है, चौधरी के अनुसार, ‘हमें जिस चीज़ की ज़रूरत है, वो है एनक्रिप्शन को तोड़े बिना, मेटाडेटा विश्लेषण पर कंपनियों के बीच बेहतर समन्वय. नियम 4(2) की मौजूदा भाषा वो नहीं करती, और एक अपारदर्शी संरचना तैयार कर देती है’.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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