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Friday, 22 November, 2024
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‘गरीब चुका रहे गोकशी पर रोक की कीमत’; यूपी चुनाव में जातिवाद हावी, बेरोजगारी बना नया राष्ट्रवाद

2014, 2017, 2019 के बाद जाति फिर से अहम हो गई है. बेरोजगारी नया राष्ट्रवाद और नया धर्म है. गाय को बचाने की कीमत गरीबों को चुकानी पड़ रही है 

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‘दीवार पर लिखी इबारतें’ मुहावरा दरअसल खास तौर से पिछले 15 वर्षों से देश और पड़ोस के उन इलाकों के मेरे दौरों से उभरा जहां चुनाव होने वाले हों. यह उपमहादेश बड़े पर्व-त्योहारों की तुलना में चुनावों के दौरान कहीं ज्यादा जीवंत हो उठता है. लोग क्या सोच रहे हैं, उनकी उम्मीदें, उनकी खुशियां, चिंताएं, आशंकाएं, सब कुछ आप दीवारों पर लिखी इबारतों से काफी कुछ समझ सकते हैं. ये इबारतें चित्रों, विज्ञापनों, इलाके के क्षितिज, बाड़बंदियों, मलबों के रूप में हो सकती हैं.   

या आकर्षक काले-सफ़ेद रंगों वाले एक सांड के रूप में भी हो सकती हैं. 

ये इबारतें उत्तर प्रदेश में हो रहे चुनाव में चल रही राजनीति के बारे में कुछ-न-कुछ कह जाती हैं, और यहां ऐसी पहली इबारत के रूप में हमारा ध्यान एक सांड ने खींचा— सचमुच के सांड ने, उसकी तमाम तरह की ठेठ उपमाओं ने नहीं. करीब 200 फीट से वह नीचे हमारी ओर देख रहा था. उसका काला शरीर मानो किसी हफीज कंट्रैक्टर की बनाई गगनचुंबी इमारत के ऊपर तंबू की तरह आसमान में तना हुआ था. यह नये पूर्वांचल एक्सप्रेसवे के उस मोड़ के ऊपर खड़ा था जहां से हम बायें मुड़कर बलिया जिले की ओर बढ़ गए थे. हमें इसके नीचे से होकर गुजरना पड़ा था. यह सांड उत्सुकता जगाता है, और हमें पक्का पता है कि उसे यह नहीं मालूम होगा कि वह यहां चुनाव प्रचार का मुख्य मुद्दा बन गया है. यह इतना अहम हो गया है कि इसने हाल के कुछ अनुमानों को उलट-पुलट दिया है. 

‘छुट्टा सांड’ या ‘छुट्टा पशु’ आज लगभग हर एक राजनीतिक चर्चा का हिस्सा बन गया है. प्रदेश में गोवध को 1955 में ही अवैध घोषित कर दिया गया है लेकिन पिछले पांच वर्षों में इस कानून को जिस सख्ती से लागू किया जा रहा है उसने पूरी तस्वीर बदल दी है. आज तमाम राजनीतिक खेमों में यह भावना घर कर गई है कि योगी आदित्यनाथ की पुलिस से आप मानव हत्या करके तो बच भी सकते हैं, गोहत्या करके कतई नहीं बच सकते. फर्क इतना है कि भाजपा के पक्के समर्थक इस बात को निंदा भाव से नहीं बल्कि प्रशंसा भाव से कहा करते हैं. लेकिन बाकी तमाम लोगों और खासकर छोटे किसानों के लिए यह एक दुःस्वप्न बन गया है. दूध न दे रहे पुराने मवेशियों या बछड़ों को बेच न पाने की मजबूरी में किसान उन्हें यों ही छुट्टा छोड़ देते हैं. कभी-कभी ऐसा भी होता है कि ऊपर हमने जिस सांड का ज़िक्र किया है उसी तरह वे एक्सप्रेसवे के ऊपर खड़े हो जाते हैं.  

छुट्टे पशु अप्रत्याशित नतीजों की मिसाल बन गए हैं. पहले, सूख गईं गायों को स्थानीय कसाइयों को नहीं बेचा जाता जाता था. व्यापारी लोग उन्हें इकट्ठा बड़ी संख्या में खरीदकर वहां ले जाते थे जहां गोमांस खाना गैरकानूनी नहीं है. उदाहरण के लिए, उत्तर-पूर्व में. लेकिन योगी के यूपी में ऐसी गायों की खरीद-बिक्री भी आत्मघाती है. प्रदेश के मुख्यतः गरीब किसानों द्वारा छुट्टा छोड़ दी गईं गायें प्रदेश के अंदर ही रह गईं. वाराणसी की बाहरी इलाके में किसी ने सवाल पूछा कि आखिर बिहार में यह समस्या क्यों नहीं है? बिहार को जानने वाले एक पत्रकार ने बताया कि नीतीश कुमार अधिक व्यावहारिक हैं, उन्होंने गोवध पर तो रोक लगाई है मगर उनकी खरीद-बिक्री की छूट दी है.


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सोहम सेन । दिप्रिंंट

गोवध (बेशक मुसलमानों द्वारा) अब भाजपा के चुनाव प्रचार में मुद्दा नहीं रह गया है. अगर पांच साल में, गोरक्षा का जोश ठंडा पड़ गया है और छुट्टा गायें मुद्दा बन गई हैं तो इससे यही उजागर होता है कि राजनीति हमेशा बदलती रहती है. यहां तक कि हिंदी प्रदेश में भी, जहां हमने सोचा होगा कि भाजपा तीन बार चुनाव जीत चुकी है तो यह मुद्दा बेमानी हो चुका होगा. 2014 में, अपने पहले कार्यकाल के लिए चुनाव प्रचार करते हुए नरेंद्र मोदी ने ‘गुलाबी क्रांति’ (मांस निर्यात) को एक केंद्रीय मुद्दा बनाकर विपक्ष को उसका का शिकार बनाया था. भैंस के मांस का निर्यात जारी है. लेकिन छुट्टा गायें इस कदर बोझ बन गई हैं कि चुनाव प्रचार के बाद के दौर में योगी वादा करते फिर रहे हैं कि सूखी गायों को पालने वालों को हर महीने नकद मदद दी जाएगी.

यह खेल बदल देने वाला मुद्दा नहीं है. ऐसा नहीं है कि छुट्टा गायें चुनाव नतीजों को बदल देंगी, या बदल चुकी हैं. लेकिन इस हिंदी हृदयप्रदेश में 1989 के बाद से जो रस्साकशी जारी है उसके कई अहम मुद्दों में यह भी एक अहम मुद्दा जरूर है. जाति ने जिसे बांट दिया उसे क्या आप धर्म (हिंदुत्ववाद) से जोड़ सकते हैं? या धर्म ने जिसे जोड़ दिया है उसे जाति क्या फिर से बांट सकती है? 

सोनभद्र यूपी का निर्धनतम जिला नहीं है, लेकिन इसके कई इलाकों में जाकर आप सोचने लगेंगे कि इससे ज्यादा गरीबी और क्या होगी. यूपी ही नहीं बल्कि पूरे भारत में, श्रावस्ती सबसे गरीब और पिछड़ा क्षेत्र है. 

खनिजों के अपने विशाल भंडार, बिजली और सीमेंट के बड़े कारखानों के कारण सोनभद्र के आंकड़े शायद भ्रम में डालते हैं, क्योंकि इन भंडारों और कारखानों से होने वाली आय कुल औसतों को गड्डमड्ड कर सकती है. हकीकत यह है कि यहां के लोगों के लिए इसके संसाधन अभिशाप हैं क्योंकि इसकी जमीन और खनिजों से भारी पहाड़ियों पर अवैध कब्जे के लिए माफिया गिरोहों के बीच जंग चलती रहती है. यही हाल इसके पड़ोसी राज्यों झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार और मध्य प्रदेश का है. सोनभद्र जिले का 40 प्रतिशत हिस्सा आदिवासी क्षेत्र है. सिमरिन सिरुर की रिपोर्ट के मुताबिक, जुलाई 2019 में भू-माफियाओं ने यहां 10 गोंड आदिवासियों की हत्या कर दी थी. 

जिला मुख्यालय रॉबर्ट्सगंज में एक इंजीनियरिंग कॉलेज के मैदान में हुई एक रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने सोनभद्र की हकीकत का एहसास करते हुए अपने भाषण में जिले की पनबिजली परियोजनाओं और देश के सबसे पुराने बिजली कारखानों या आर्थिक वृद्धि, रोजगार जैसे मुद्दों पर ज़ोर न देकर सरकार द्वारा मुफ्त राशन और अनाज देने के कार्यक्रमों की ही बात की— महामारी के दौरान क्या आपमें से किसी को भूखों मरने की नौबत आई? प्रथम पुरुष के संबोधन के साथ उन्होंने कहा— मैंने पक्की व्यवस्था की कि देश के 80 करोड़ गरीबों तक अनाज पहुंचे ताकि कोई भूखा न रहे. आप सबने टीका लगवाया कि नहीं लगवाया? कोई हिंदू, मुसलमान का जिक्र नहीं, और योगी का नाम भी शुरू में ही एक बार लिया.    

आप कह सकते हैं कि यह भाजपा का क्षेत्र नहीं है. यहां आदिवासी तथा ओबीसी जातियों (कुर्मी, पटेल, खेरी, कुशवाहा) की बड़ी आबादी के कारण अनुप्रिया पटेल की क्षेत्रीय पार्टी ‘अपना दल’ का वर्चस्व है. यहां से सांसद पकौड़ी लाल कोल भी इसी पार्टी के हैं. यही वजह है कि मोदी की सामान्य-सी रैली में जोश नहीं नज़र आया. लेकिन जिले के चार में से तीन विधायक भाजपा के ही हैं. इसलिए मोदी का यहां आना महत्व रखता था. और जैसा कि हम इंदिरा गांधी के शानदार दौर में भी देख चुके है लेकिन मोदी की सभा में ऐसा दिखाई नहीं पड़ा. या इसका शायद यह भी कारण रहा हो कि दोपहर के 2 बज रहे थे और गर्मी बढ़ गई थी. 

वाराणसी जाने वाले हाइवे से कुछ किलोमीटर दूर गेंदुरिया गांव की दलित बस्ती में लोगों से बातचीत से शायद कुछ संकेत उभरते हैं. करीब 50 घरों की बस्ती का हर एक वयस्क व्यक्ति बेरोज़गार है. अधिकतर लोग ऐसे हैं जिन्होंने कुछ-न-कुछ शिक्षा पाई है, कई तो 12वीं पास हैं. कुछ लोग तो दशकों से बेरोजगार हैं, जब उन्होंने जूनियर कॉलेज की पढ़ाई पूरी की थी. सरकार नौकरी नहीं दे रही है, कारखाने काम नहीं बढ़ा रहे हैं, कई लोग दूर के राज्यों में रोजगार करने चले गए हैं. 

जैसे, 30 वर्षीय पंचमुखी सोनकर ने गोवा में पहले टूथपेस्ट बनाने वाले कारखाने में नौकरी की, फिर ऑटोमोबाइल पंचर बनाने वाली दुकान में काम किया. उन्होंने अब यहां चाय की एक कच्ची दुकान लगाई है लेकिन कोई ग्राहक नहीं आता क्योंकि लोगों के पास पैसे नहीं हैं. बस्ती के दूसरे लोगों की तरह वे भी ईंट भट्ठा या भवन निर्माण के स्थलों पर ईंट-बालू ढोने की मजदूरी करते हैं. पंचमुखी ने सब्जी बेचने का काम करके अपनी पढ़ाई की. दलित जाटव चंदन कुमार ने भी वाराणसी में पैथलैब टेक्नीशियन का डिप्लोमा करने के लिए 80,000 रुपये की फीस जमा की जिसके लिए उन्हें साथ-साथ इधर-उधर से काम भी करना पड़ा. लेकिन अब सरकार इस डिप्लोमा को मान्यता नहीं दे रही है. वे अब एक निजी अस्पताल में कम वेतन पर काम करके खुद को खुशनसीब मान रहे हैं. उन्हें अपनी ज़िंदगी बेहतर या कम बदतर बनाने का क्या उपाय दिखता है? अस्पताल में रोज आठ-आठ घंटे की दो पाली में काम करके.


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सोहम सेन । दिप्रिंट

उसी हाइवे से 20 किमी और दूर जूरी गांव में हम रुकते हैं. यह भी यहां-वहां बनी कच्ची-पक्की दीवारों वाले घरों पर और फूस की छप्पर वाली झोंपड़ियों की बस्ती है. स्थानीय बातचीत में इन्हें गरीबी की रेखा से नीचे के (बीपीएल) परिवारों के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बनाए गए ‘आवास’ कहा जाता है. एक ‘आवास’ के बगल की झोपड़ी में मौर्य समुदाय का एक परिवार रहता है. यह ओबीसी आबादी वाली बस्ती है जिसमें मुख्यतः कुशवाहा, कुर्मी और कोयरी समुदायों के लोग रहते हैं और लगभग सबने कहा कि पिछली बार उन्होंने भाजपा/अपना दल को वोट दिया था. लेकिन अब उनमें पुनर्विचार चल रहा है. 10वीं की छात्रा दीपा मौर्य और उनकी मां की बातें सुनेंगे तो फिर वही बेरोजगारी, चाकरी आदि के काम की कहानी मिलेगी. आवास वाले मकान के लिए पैसे नहीं हैं. और सरकारी स्कूल बहुत दूर है इसलिए फीस लेने वाले निजी स्कूल में पढ़ना मजबूरी है. आगे पढ़ाई की कोई उम्मीद? दीपा का जवाब है, ‘मैं डॉक्टरी पढ़ना चाहती हूं.’ लेकिन… उसकी कहानी यहां सुनिए.

वही पुरानी कहानी है. ये लोग सबसे बड़ी गैर-यादव ओबीसी आबादी के हैं. पिछले तीन चुनावों में भाजपा ने उनके वोट बटोरे. इस बार तस्वीर उसके लिए इतनी अनुकूल नहीं है. बाबूलाल कुशवाहा कहते हैं, ‘क्या करें, जो सात साल पहले बेरोजगार था, अभी भी बेरोजगार ही है.’ बेरोजगारी एक नयी जाति बन गई है, ‘बेकार’ होना एक नयी पहचान है जो पारंपरिक पहचानों को गौण कर देती है. 

रोजगार…रोजगार… रोजगार… बलिया के पास नागरा में अखिलेश यादव की रैली में उमड़ी युवाओं की भीड़ के हाथों में जो तख्तियां हैं इन पर यही लिखा है, जैसा कि आप इस वीडियो में देख सकते हैं. कुछ तख्तियों पर लिखा है कि 2017 में जिन युवाओं को पुलिस में भर्ती के लिए चुना गया था उन्हें नियुक्ति पत्र दिए जाएं, कुछ में मांग की गई है कि शिक्षकों की भर्ती के इम्तहान लिये जाएं, तो कुछ पैरामेडिकल कर्मचारियों की भर्ती की मांग कर रहे हैं. 

रोजगार की कमी शिक्षित छात्रों की आम शिकायत है. बहरहाल, कुछ हास्यास्पद बातें अभी बाकी है. तख्तियों में यह भी लिखा हुआ दिखा— ‘बी.पी. एड परीक्षा, अब वर्ष 3202 में’. चुनावी रैलियों में इस तरह का जोश हाल के दिनों में शायद ही देखने को मिलता है, सिवाय तब के जब मोदी खुद के लिए प्रचार कर रहे हों.


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सोहम सेन । दिप्रिंट

उमड़ती भीड़ के कारण हिलते मंच पर अखिलेश हमसे बात करने का थोड़ा समय निकालते हैं. हाल में मोदी उन पर परिवारवाद के बहाने हमले करते रहे हैं. इसके जवाब में अखिलेश सवाल करते हैं कि योगी जी अगर अपने मामा के उत्तराधिकारी न होते तो क्या अपने संप्रदाय के मुखिया बने होते? वे तो तमाम दूसरे लोगों की तरह बेरोजगार ही होते. 

कई प्रतिद्वंद्वी बाहुबलियों की ‘कर्मभूमि’ माने गए मऊ में मुख्तार अंसारी (कुछ समय से जेल में बंद) का ही दबदबा रहा है. उनके बेटे अब्बास ‘स्कीट’ नामक निशानेबाजी के खेल में अंतरराष्ट्रीय शूटर रह चुके हैं और सात बार राष्ट्रीय पदक जीत चुके हैं. अब्बास बताते हैं कि किस तरह उनका करियर समय से पहले खत्म हो गया क्योंकि राज्य सरकार ने उनके खिलाफ कई मामले दायर कर दिए. एक बार आपके ऊपर आपराधिक मामला दायर कर दिया गया तो आप भारत का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते. वे कहते हैं, ‘मैं शूटिंग चैंपियन हूं और मेरे खिलाफ आर्म्स एक्ट के तहत मामला दायर कर दिया गया.’ 

वे कहते हैं कि योगी सरकार कानून-व्यवस्था सुधारने के जो दावे कर रही है वे हवाई हैं. वह इतनी सांप्रदायिक और भेदभाव वाली सरकार है कि मुंबई के जे.जे. अस्पताल में एके-47 से कत्लेआम करने के आरोप में वाराणसी जेल में बंद ब्रजेश सिंह उस क्षेत्र के हर एक रियल एस्टेट सौदों को मंजूर करता है. अब्बास कहते हैं, ‘आपको शायद मालूम न हो कि योगी अक्सर जेल में जाकर उससे घंटों बातें करते हैं और चुनाव के लिए उम्मीदवारों के नाम उससे पूछ कर तय करते हैं. वे सिर्फ हम अल्पसंख्यकों को निशाना बना रहे हैं, और मुझे भी जो 1948 की जंग के महान हीरो, नौशेरा के शेर ब्रिगेडियर उस्मान का परपोता है.’ मायावती भी इस मुद्दे को उठाती हैं. वाराणसी के पास एक रैली के बाद हमसे संक्षिप्त बात करते हुए उन्होंने सवाल किया— क्या योगी सरकार ने किसी गैर-मुस्लिम की जमीन-जायदाद पर बुलडोजर-हथौड़ा चलवाया है?

भाजपा के सभी जुलूसों, रैलियों में एक नारा खूब सुना गया—बुलडोजर बाबा जय श्रीराम, बुलडोजर बाबा जिंदाबाद. योगी भी अपने भाषणों में बुलडोजर को चेतावनी की घंटी बताते हैं. वाराणसी के बारागांव इलाके के बलदेव इंटर कॉलेज की रैली में वे बुलडोजर, हथौड़ा का नाम लेकर और सपा के विकास के मॉडल को केवल कब्रिस्तान की दीवारें ऊंची करना बताकर भीड़ में आवेश पैदा कर देते हैं. लेकिन, लोग पहले भी उनसे ऐसी बातें सुन चुके हैं. दो मिनट के अंदर ही सभा से भीड़ छंटने लगती है. आप यह यहां देख सकते हैं. लेकिन सच कहें तो हमने जिससे भी बात की, उसने भाजपा को वोट देने की बात कही. वैसे, उनकी तमाम अच्छी बातें मोदी के लिए हैं, योगी के लिए नहीं. 

सो, दीवारों पर लिखी इन इबारतों से बड़ी तस्वीर यह उभरती है कि 2014, 2017, 2019 के बाद जाति फिर से अहम हो गई है. बेरोजगारी नया राष्ट्रवाद और धर्म है. गाय को बचाने की कीमत गरीबों को चुकानी पड़ रही है. अधिकतर ऊंची जातियों के लोग, खासकर व्यापारी और दुकानदार कह रहे हैं कि वे तकलीफ में हैं लेकिन भाजपा को वोट देंगे क्योंकि उसने कानून-व्यवस्था की स्थिति सुधार दी है. गरीबों का बड़ा तबका मुफ्त अनाज, दाल-चना, खाने के तेल मिलने की बातें करते हैं. वोट किसे दिया जाएगा इसका फैसला इन परस्पर विरोधी भावनाओं की टक्कर में से निकलेगा. 

आप उलझन में पड़ गए न? इसका सिर्फ यही मतलब है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा को तीन बार तो आसानी से ‘वाकओवर’ मिल गया मगर इस बार यह एक ‘सामान्य’, कांटे की टक्कर वाला चुनाव है.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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