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Saturday, 4 May, 2024
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लॉकडाउन: तनाव के बीच मास्क से टिकटॉक तक बना रहीं मेड, 24*7 काम देने को तैयार हैं लोग

घरेलू काम-काज करने वाली महिलाओं के लिए काम करने वाली संस्था दिल्ली श्रमिक संगठन (डीएसएस) की अनिता जुनेजा बताती हैं कि घर का काम काज करने की वजह से काफी लोगों की तबीयत खराब हो गई है.

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नई दिल्ली: ‘बहुत टेंशन है भैया…लेकिन टेंशन ले के ज़िंदगी और बेकार हो जाएगी. ऐसे में बीच-बीच में जब आस-पास का कोई वाई-फ़ाई लग जाता है तो टिकटॉक बना लेती हूं,’ दिप्रिंट से ये बात 37 साल की कंचन दास ने कही. पश्चिम बंगाल की कंचन दिल्ली में मेड का काम करती हैं.

महानगरों में उनके जैसी हज़ारों महिलाओं की ज़िंदगी 24 मार्च की लॉकडाउन के घोषणा से पहले से ही बदल गई. दरअसल, कोरोना महामारी के बढ़ते प्रकोप की वजह से कई लोगों ने इन महिलाओं को लॉकडाउन की औपचारिक सरकारी घोषणा से पहले ही आने से मना कर दिया.

ऐसे में छोटे-बड़े शहरों से दिल्ली आकर अपने बूते अच्छी कमाई और आज़ादी का स्वाद चखने वाली इन महिलाओं की ज़़िंदगी देखते-देखते बदल गई. सुकून की बात ये है कि अभी इनकी कहानी बाकी के प्रवासी मज़दूरों जितनी दर्दनाक नहीं है और इनमें से कई लॉकडाउन के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश कर रही हैं.

कंचन के फ़ोन में मोबाइल इंटरनेट नहीं है. लेकिन हाल ही में एक्सीडेंट का शिकार हुआ उनका बेटा जुगाड़ से उनके फ़ोन में पास-पड़ोस का वाई-फ़ाई जोड़ देता है. कंचन की कहानी सुनकर आपको भी इस साल ऑस्कर जीतने वाली फ़िल्म ‘पैरासाईट’ का ओपनिंग सीन याद आ सकता है.

बॉन्ग जून हो की इस फिल्म की शुरुआत में साउथ कोरिया के एक शहर में तंगी से जूझ रहा 4 लोगों का कंचन जैसा ही एक परिवार ऐसे ही बेकरारी से अपने फ़ोन में आस-पड़ोस का कोई वाई-फ़ाई ढूंढ रहा होता हैै. वाई-फ़ाई जुड़ जाने के बाद उनकी आवाज़ में वैसी ही खनक आती है जैसी इस दर्दनाक समय में फ़ोन पर बातचीत में कंचन की आवाज़ में सुनाई दी.

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हालांकि, उन्हें इस बात का दर्द है कि वो उतना अच्छा टिकटॉक वीडियो नहीं बना पातीं. कई लोग सोशल मीडिया पर पूछ रहे हैं कि अगर इंटरनेट नहीं होता तो इस लॉकडाउन में क्या होता. इसका जवाब है गुड़गांव में मेड का काम करने वाली महिलाएं.

इन महिलाओं को हाल ही में मास्क बनाने के काम में लगाया गया. अग्रसर नाम की एक संस्था ने अभी टिक-टॉक की दुनिया से दूर इन महिलाओं को ये काम दिया है. इस संस्था के निदेशक प्रेरित ने बताया कि मास्क की भारी मांग है. ऐसे में इन महिलाओं को इस काम में लगाया गया है.

उन्होंने कहा, ‘एक मास्क पर 10 रुपए लेबर चार्ज रखा है. एक महिला एक दिन में कम से कम 20-30 मास्क बनाती है. ऐसे में इन्हें 200-300 रुपए रोज़ का मेहनताना मिल जा रहा है.’ उनके मुताबिक इन महिलाओं की ज़िंदगी पर लॉकडाउन का असर पहले चरण के पहले कुछ ख़ास नहीं था.

उनके बिना शहरों में काम नहीं चलता

ज़्यादातर मेड्स का कहना है कि इन्हेंं पहले चरण के पैसे मोटा-मोटी मिल गए. उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले से आने वाली मैना देवी (50) हौज़ ख़ास मेन मार्केट के तीन घरों में काम करती हैं. इस से सटे शाहपुर जाट में रहने वाली मैना ने कहा, ‘घर बैठे दूसरा महीने पूरा होने को हैं. पिछले महीने के पैसे मिल गए थे. आगे का पता नहीं चल पा रहा.’

जिनके यहां मैना काम करती हैं वो पैसे को लेकर ख़ुद कुछ नहीं बोल रहे और तंगी की हालत में भी लिहाज़ के मारे वो पैसे नहीं मांग रहीं. हालांकि, तनाव के साथ जूझ रही मैना को भरोसा है कि माहौल ठीक होने पर उन्हें उनका काम वापस मिल जाएगा.

ये भरोसा इसलिए है कि सालों से वे देख रही हैं कि मध्य वर्ग और उच्च वर्ग के घरों में परिवारों को मेड की इतनी आदत पड़ गई है कि उनके बिना घर अस्तव्यस्त हो जाते हैं. ऐसी कमज़ोरी को देखते हुए ज्यादातर मेड्स आश्वस्त है कि उनका काम कहीं नहीं जाने वाला. चिंता है तो बस लॉकडाउन के दौरान की तनख्वाह की.

दिल्ली कैन्टोनमेंट के नांगल राय में रहने वाली 35 साल की सोमा को काम रुक जाने की टेंशन नहीं है. उन्होंने कहा, ‘वैसे भी छुट्टी लेकर घर जाते थे. इस समय को भी वैसा ही समय सोचकर निकाल रहे हैं.’ उन्होंने कहा कि लोगों के घर में बहुत काम करना पड़ा है, ऐसे में पूरी थकान निकालने का ये अच्छा समय है.

हालांकि, सोमा जितने घरों में काम करती हैं उनमें से ज़्यादातर ने उन्हें पैसे दे दिए. कुछ ने कहा कि उनके पास ख़ुद काम नहीं तो वो इन्हें कहां से देंगे. सोमा के पक्ष में एक और बात है कि उनके पति सिक्योरिटी गार्ड हैं. उनका काम फिर से शुरू हो गया है. ऐसे में परिवार की आमदनी जारी है जो सोमा को आराम की सहूलियत देता हैं.

अग्रसर के प्रेरित का मानना है कि असंगठित क्षेत्र के 10 करोड़ की आबादी में शामिल इन महिलाओं को काम मिलने में दिक्कत नहीं होगी क्योंकि लोगों को इनकी आदत पड़ गई है और उनका इनके बिना काम नहीं चलेगा.

उन्होंने बताया कि उनकी संस्था लॉकडाउन के पहले चरण से रोज़ कम से कम 12,000 लोगों को भोजन पहुंचाती आई है. उन्होंने कहा, ‘पहले चरण के दौरान कोई मेड मदद नहीं मांग रही थी. लेकिन अब इनकी हालत ख़राब होनी लगी है.’ गुड़गांव की सिकंदरपुर बस्ती में ऐसी काफ़ी महिलाएं है जिन्हें अब मदद पहुंचानी पड़ रही हैं.

उन्होंने कहा कि पहले राउंड के लॉकडाउन के बाद जिन्होंने मदद की वो कह रहे थे वो कह रहे हैं कि कब तक मदद करेंगे. उन्होंने कहा, ‘ऐसे लोग दान दे देंगे लेकिन अपनी मेड को पैसे नहीं देंगे.’ प्रेरित के मुताबिक पहले राउंड में सरकार की इन्हें सैलरी देने की अपील का असर था. दूसरे राउंड में अपील फ़ेल हो गई.

मेड लक्ज़री नहीं- ज़रूरत

दिल्ली के प्रताप नगर में रहने वाले 55 साल के हरकेश सुरी की सदर में कपड़े की दुकान है. उनके मां-बाप दोनों बुज़ुर्ग हैं ऐसे में मेड के ऊपर उनकी निर्भरता काफ़ी ज़्यादा है. उन्होंने तय किया है कि जब भी हालात सुधरते हैं तो वो अपनी मेड को स्थायी तौर पर घर में ही रख लेंगे. पहले उनकी काम वाली बाई सुबह शाम का काम करके चली जाया करती थी.

कई अन्य लोगों के साथ बातचीत में भी ये सामने आया है कि वर्किंग क्लास और उम्रदराज़ लोग अपनी मेड्स को 24*7 हायर करने की सोच रहे हैं. ऐसी महिलाओं के लिए काम करने वाली संस्था दिल्ली श्रमिक संगठन (डीएसएस) की अनिता जुनेजा का कहना  है कि ‘काफ़ी लोगों की तबीतय इसलिए ख़राब हो गई कि क्योंकि उनको घर का काम करना पड़ा है, जिसकी ऐसे काम की आदत नहीं थी.’

अनिता के मुताबिक दिल्ली में ऐसी महिलाओं की संख्या पांच लाख़ के करीब होगी. लॉकडाउन की वजह से ये आबादी अपने घरों में कैद हो गई है. हालांकि, मिडिल क्लास को कोरोना का डर ना हो तो ये लोग इन महिलाओं को तुरंत काम पर बुला लेंगे.

ऐसे में डीएसएस और अग्रसर जैसी संस्थाओं को भरोसा है कि ये महिलाएं आसानी से काम पर लौट आएंगी. वहीं, इसमें कोई दो राय नहीं कि इन महिलाओं पर भारी मानसिक दबाव है, लेकिन अन्य प्रवासी मज़दूरों की तुलना में ये इस दवाब को बेहतर तरीके से संभाल पा रही हैं.

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