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Friday, 20 December, 2024
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गुरु ग्रंथ साहिब को जीवित गुरु के रूप में मानने वाले सिख धर्म में क्या हैं बेअदबी के मायने?

पिछले कुछ वर्षों में हुई कई घटनाओं जिसमें स्वर्ण मंदिर में शनिवार को भीड़ द्वारा एक व्यक्ति को पीट-पीट कर मार दिए जाने की घटना भी शामिल है के साथ ही सिख धर्म में 'बेअदबी' के बारे में लंबे समय से चल रहे विवाद एक बार फिर से खुलकर सामने आ गए हैं.

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चंडीगढ़: पिछले कुछ सालों के दौरान हुई कुछ घटनाओं के बाद सिख धर्म में बेअदबी और इस तरह के आचरण के लिए उचित सजा क्या है? के मुद्दे पर होने वाली बहस फिर से गरमा गई है.

शनिवार को स्वर्ण मंदिर में गुरु ग्रंथ साहिब को कथित रूप से अपवित्र करने की कोशिश करने के लिए एक व्यक्ति को पीट-पीट कर मार दिए जाने की घटना ने इस लंबे समय से चल रहे विवाद को और भड़का दिया है.

इसी तरह की एक अन्य घटना में 15 अक्टूबर को तरनतारन निवासी लखबीर सिंह की कथित तौर पर निहंग सिखों के एक समूह द्वारा दिल्ली की सिंघू सीमा पर हत्या कर दी गई थी. उस वक्त निहंगों ने दावा किया था कि लखबीर को उनके पवित्र ग्रंथ – सरबलोह ग्रंथ का ‘अपमान’ करने के लिए ‘दंड’ दिया गया है.

निहंगों ने अपने कृत्य को यह कहते हुए जायज ठहराने की कोशिश की थी कि चूंकि सरकारें पिछले कुछ वर्षों में हुई बेअदबी के कई मामलों में सिखों को न्याय दिलाने में ‘लगातार विफल’ रही हैं इसलिए उन्होंने जो कुछ भी अपनी नजर से देखा उसके लिए उन्होंने ‘घोर अपराध’ माने जाने वाले इस कृत्य के बाद ‘तत्काल न्याय’ देने का फैसला किया.

इस हत्याओं ने सिख धर्म में बेअदबी की अवधारणा और बेअदबी के मामलों में लागू किए जाने वाले कानूनों के बारे में चर्चाओं को बल दिया है.

बेअदबी के मामलों की ऊंची दर, पागलपन की दलीलें

पिछले कुछ सालों में बेअदबी के मामलों में पंजाब देश में पहले नंबर पर रहा है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के डेटा से पता चलता है कि साल 2018 से 2020 तक, पंजाब में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 295 से 297, जो बेअदबी से संबंधित हैं, के तहत दर्ज किए गए अपराधों की दर (प्रति लाख आबादी के आधार पर) सबसे अधिक थी.

2018 में, पंजाब की बेअदबी अपराध दर 0.7 प्रतिशत थी, जबकि देश भर के अन्य राज्यों में यह 0.1 और 0.4 प्रतिशत के बीच थी. 2019 के लिए पंजाब का यह आंकड़ा 0.6 फीसदी, और 2020 में 0.5 फीसदी था.

2017 में, जब एनसीआरबी ने पहली बार इस तरह के अपराधों के बारे में डेटा देना शुरू किया था, तो गोवा ने इसकी उच्चतम दर (0.8 प्रतिशत) दर्ज की थी, और पंजाब 0.6 प्रतिशत के साथ दूसरे स्थान पर था. पंजाब में 2017 से 2020 तक दर्ज ऐसे मामलों की कुल संख्या 721 थी.

कुछ लोगों द्वारा यह भी आरोप लगाया जाता है कि ऐसे अधिकांश मामलों में अपराधी को कानून के अनुसार दंडित नहीं किया जाता है बल्कि उन्हें ‘पागलपन’ के आधार पर साफ़ छोड़ दिया जाता है.

स्वर्ण मंदिर में शनिवार को घटी घटना के बाद एक बयान जारी करते हुए शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) के अध्यक्ष हरजिंदर सिंह धामी ने कहा, ‘ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं कई अन्य जगहों पर भी हुई हैं लेकिन सरकारों ने कभी इसे पूरी गंभीरता से नहीं लिया. यह अति दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि पूर्व में गिरफ्तार किए गए ऐसे अपराधियों के पीछे काम करने वाली ताकतों का पर्दाफाश करने के बजाय उन्हें मानसिक रूप से बीमार घोषित कर छोड़ दिया गया. यह सरकारों और सरकारी एजेंसियों की विफलता है जो ऐसे दोषियों के पीछे छिपे लोगों तक नहीं पहुंच सके.’

सिखों की सर्वोच्च धार्मिक संस्था अकाल तख्त ने अक्टूबर में सिंघू सीमा पर हुए बेअदबी प्रकरण के बारे में भी एक बयान जारी करते हुए इस तरह की ‘पागलपन की याचिका’ का उल्लेख किया था.

अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने कहा कि ‘पिछले चार-पांच सालों में पुलिस द्वारा दर्ज किए गए 400 से अधिक मामलों में जांच एजेंसियां सिखों को न्याय दिलाने में विफल रही हैं. किसी भी अपराधी को ऐसी सजा नहीं दी गई है जो सिखों के बीच के उपजें घावों को भर सके.’


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सिख धर्म में बेअदबी की अवधारणा

सिख धर्म में बेअदबी की अवधारणा काफी हद तक इस तथ्य से पैदा होती है कि सिख गुरु ग्रंथ साहिब को एक जीवित गुरु मानते हैं.

पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला में सिख अध्ययन के पूर्व प्रोफेसर और इंसाइक्लोपीडिया ऑफ़ सिखिस्म के एडिटर इन चीफ धर्म सिंह ने दिप्रिंट को बताया, ‘दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह ने ऐसा ही फरमान सुनाया था कि गुरु ग्रंथ साहिब और इससे जुड़ी हर चीज पवित्र है. चूंकि गुरु को एक जीवित प्राणी माना जाता है इसलिए इसका कोई भी अनादर या इसे पहुंचाया गया कोई भी नुकसान सभी सिखों के लिए एक गंभीर अपराध है.‘

गुरु ग्रंथ साहिब के अलावा, ‘गुरुद्वारा’, जिसका शाब्दिक अर्थ गुरु का निवास होता है और गुरु की सेवा में उपयोग की जाने वाली सभी वस्तुएं पवित्र मानी जाती हैं. सिखों द्वारा पहनी जाने वाली टोपी ‘दस्तार’ या ‘पगड़ी’ को भी पवित्र माना जाता है और ‘कृपाण’ वह तलवार जिसे अमृतधारी सिख अपने साथ रखते हैं वो भी पवित्र मानी जाती है.

सिखों द्वारा रखे गए बढ़ा कर बाल (केश) और दाढ़ी भी पवित्र माने जाते हैं और इन्हें जबरन छूना या उनका अनादर करना भी बेअदबी है.

धर्म सिंह ने कहा, ‘सिख धार्मिक परंपराओं और प्रथाओं को तोड़ना-मरोड़ना या गुरुओं के इतिहास को विरूपित करना भी बेअदबी है.’

सिख इतिहासकार गुरदर्शन सिंह ढिल्लों ने कहा, ‘गुरु ग्रंथ साहिब सच्चे पदशाह है. वह किसी बादशाह (सम्राट) की तरह अपना दरबार लगाते है और दरबार में (उनकी मौजूदगी में) अपनाए जाने वाले सभी शिष्टाचार और उनके अनुशासन का पालन करना पड़ता है. किसी भी गुरुद्वारे में आपको अपना सिर ढंकना होता है, ठीक तरीके से कपड़े पहनना होता है, नंगे पैर रहना होता है और शिष्टाचार का पालन करना होता है. कोई भी ऐसा कृत्य जो गुरु की पवित्रता और उसकी सर्वोच्चता का उल्लंघन करता है, वह बेअदबी है.’

‘बेअदबी’ के कृत्य

पुरे सिख इतिहास को निरंतरता के साथ देखते हुए अकाल तख्त के पूर्व जत्थेदार भाई रणजीत सिंह ने कहा किमुगलों के समय में भी सिख गुरुओं का अनादर करना बेअदबी मानी जाती थी.

उन्होंने दिप्रिंट से बात करते हुए कहा, ‘इस पर जाने कितनी लड़ाइयां हुईं और अब जब गुरु ग्रंथ साहिब ही जीवित गुरु हैं तो सिख जिस तरह से उचित समझते हैं उसी तरह उनकी महिमा की रक्षा करने का विकल्प चुन सकते हैं.’

साल 1993 में स्वयं भाई रणजीत सिंह को संत निरंकारी समूह के प्रमुख गुरबचन सिंह की हत्या के लिए दोषी ठहराया गया था. निरंकारी समूह एक ऐसा संप्रदाय है जिसके साथ सिखों की गुरु ग्रंथ साहिब और सिख परंपराओं का कथित रूप से अनादर करने की वजह से लंबे समय से दुश्मनी चल रही है.

साल 1951 में, तब के निरंकारी प्रमुख सतगुरु अवतार सिंह ने गुरु ग्रंथ साहिब की मौजूदगी में खुद को एक जीवित गुरु घोषित कर दिया था. उनके उत्तराधिकारी, गुरबचन सिंह ने सिख परंपराओं में बदलाव करने और उन्हें अपने संप्रदाय में अपनाए जाने की कोशिश की.

1970 के दशक के अंत में हुए सिख-निरंकारी संघर्ष और 1980 में गुरबचन सिंह की हत्या को पंजाब में तीन दशकों तक चलने वाले उग्रवाद का शुरुआती बिंदु माना जाता है.

ऑपरेशन ब्लू स्टार, जिसके तहत साल 1984 में सिख आतंकवादियों को बाहर निकालने के लिए सेना ने अमृतसर स्थित सिखों के सबसे पवित्र आराधना स्थल स्वर्ण मंदिर या दरबार साहिब में प्रवेश किया था, को आधुनिक सिख इतिहास में बेअदबी की सबसे बड़ी घटना मानी जाती है.

धर्म सिंह ने कहा, ‘इंदिरा गांधी (जिन्होंने सेना को स्वर्ण मंदिर में प्रवेश करने का आदेश दिया था) ने अपनी जान गंवा कर इसकी कीमत चुकाई. इसके बाद से वर्दीधारी पुरुषों को चाहे वो सेना से हों या पुलिस से, वर्दी के साथ गुरुद्वारे में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गई है.’

साल 2007 में, डेरा सच्चा सौदा संप्रदाय के प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह ने सिखों के दसवें गुरु गुरु गोबिंद सिंह की तरह पोशाक पहन ली थी, जिसकी वजह से सिखों और डेरा अनुयायियों के बीच तेज टकराव हुआ था.

इसके बाद अकाल तख्त द्वारा डेरा प्रमुख पर बेअदबी करने का आरोप लगाया गया और उसे बहिष्कृत कर दिया गया था. अकाल तख्त द्वारा सभी सिखों को डेरा अनुयायियों के साथ किसी भी तरह का व्यवहार नहीं रखने का भी निर्देश दिया गया था. तब से लेकर आज तक डेरा अनुयायियों और सिखों के बीच दुश्मनी बदस्तूर जारी है.

2015 में, पंजाब में गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी की कई घटनाएं देखीं गईं. उस साल जून में फरीदकोट के एक गांव के गुरुद्वारे से गुरु ग्रंथ साहिब का एक बीर (स्वरूप या सरूप) चोरी हो गया था. कुछ महीने बाद कथित तौर पर इसके फटे हुए पन्ने पास के एक गांव में बिखरे हुए पाए गए थे. इन घटनाओं के बाद विभिन्न सिख ग्रंथों के साथ-साथ कुरान और भगवद गीता की कथित बेअदबी की कई अन्य घटनाएं भी हुईं थीं.


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इसके बारे में कानून और इसमें प्रस्तावित परिवर्तन

पंजाब में बेअदबी की सभी घटनाओं के लिए, पुलिस द्वारा आईपीसी की धारा 295 और 295A लगाई जाती है. धारा 295, जिसमें किसी ‘पूजा स्थल’ या ‘किसी भी पवित्र माने जाने वाले वस्तु’ को नष्ट करना, क्षति पहुंचना या अपवित्र करना शामिल है, के मामले में अधिकतम सजा दो साल की कैद है.

धारा 295A ‘नागरिकों के किसी भी एक वर्ग की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के सोचे-समझे और दुर्भावनापूर्ण इरादे’ वाले कृत्य के लिए तीन साल के कारावास का प्रावधान करती है.

भाई रंजीत सिंह ने कहा, ‘इन कानूनों के तहत निर्धारित की गई कारावास की सजा बहुत कम सालों की है. यहां हम एक जीवित गुरु को अपवित्र करने के बारे में बात कर रहे हैं, न कि किसी पुस्तक या वस्तु के बारे में. हमारी मांग है कि गुरु ग्रंथ साहिब के मामले में इस सजा को बढ़ाकर 20 साल कर दिया जाए.’

पाकिस्तान में – जहां औपनिवेशिक सरकार द्वारा अधिनियमित आईपीसी की धाराओं का किया जाता है- धारा 295 में इसी तरह दो साल की जेल होती है और धारा 295 A में 10 साल तक की कैद हो सकती है.

साल 1982 में, पाकिस्तान सरकार ने क़ुरान की हिफाजत के लिए एक नई धारा 295B जोड़ी. अब वहां क़ुरान को अपवित्र करने के लिए सजा आजीवन कारावास मिलती है. 1986 में पाकिस्तान ने एक और धारा 295C जोड़ी, जिसमें पैगंबर मोहम्मद या अन्य पैगम्बरों के बारे में अपमानजनक टिप्पणियों के लिए अनिवार्य रूप से मौत की सजा का प्रावधान है.

2015 में हुई बेअदबी की घटनाओं के लिए हो रही लगातार आलोचना के मद्देनजर, तत्कालीन अकाली-बीजेपी सरकार ने राज्य विधानसभा में एक विधेयक पारित किया जिसके द्वारा आईपीसी में संशोधन किया गया था. इस संशोधन में धारा 295AA जोड़ा गया, जो गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी के लिए आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान करती है.

लेकिन इस विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी नहीं मिली और केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा इसे इस आधार पर वापस कर दिया गया कि यह भारत के संविधान की धर्मनिरपेक्ष भावना के खिलाफ है.

साल 2018 में, जब कैप्टन अमरिंदर सिंह पंजाब के मुख्यमंत्री थे तो गृह मंत्रालय द्वारा उठाई गई आपत्ति को दूर करने के लिए विधानसभा द्वारा इसमें फिर से संशोधन कर इसे पारित किया गया था. इसमें सभी धर्मों की पवित्र पुस्तकों को शामिल किया गया था लेकिन यह विधेयक भी कभी कानून के रूप में लागू नहीं हुआ.

ज्यादा सख्त कानूनों के पक्ष में दलीलें

वरिष्ठ अधिवक्ता अनुपम गुप्ता ने दिप्रिंट को बताया कि ‘2008 में इंग्लैंड में ब्लासफेमी (ईशनिंदा या ‘ईश्वर के खिलाफ द्रोह’) के कानून को समाप्त कर दिया गया था फिर भी भारत जैसे बहु-धार्मिक समाजों के अस्तित्व के लिए इसे अपराध माना जाना आवश्यक है.

उनका कहना है कि ऐसा इसलिए जरुरी है क्योंकि ईशनिंदा जैसे कृत्य ‘सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित करने की चालबाजी के तहत किए जाते हैं’ और इसलिए इसे दंडित किया जाना चाहिए. उन्होंने बताया कि 1957 में रामजी लाल मोदी (रामजी लाल मोदी बनाम यूपी राज्य) के मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने धारा 295A को संवैधानिक रूप से वैध ठहराया था.

गुप्ता ने तर्क दिया कि इसी तरह के तर्क अन्य अपराध के लिए लगाए जाने वाली धारा 295 पर भी लागू होता है. उन्होंने आगे कहा कि खास तौर ईसाई धर्म के लिए लागू होने वाले ईशनिंदा के कानून को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन द्वारा 1860 में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) लागू करते समय धर्मनिरपेक्ष स्वरूप दिया गया और इसे धारा 295 के तहत सभी धर्मों पर लागू किया गया था.

इस बारे में थॉमस बबिंगटन मैकाले ने ब्रिटिश संसद के समक्ष कहा था, ‘अगर मैं भारत में एक न्यायाधीश होता, तो मुझे किसी ऐसे ईसाई को दंडित करने के बारे में कोई संकोच नहीं होना चाहिए जो एक मस्जिद को दूषित (अपवित्र) करे.’ गुप्ता का कहना है कि मैकाले ने यह सुनिश्चित किया कि आईपीसी सभी समुदायों की धार्मिक भावनाओं की रक्षा करता है.

अपनी बात जारी रखते हुए उन्होंने बताया कि धारा 295A को साल 1927 में आईपीसी में जोड़ा गया था. इसे मुसलमानों के बीच उपजी उन अत्यधिक आक्रोशित धार्मिक भावनाओं की पृष्ठभूमि में लाया गया था जो कि पैगंबर मोहम्मद के बारे में एक पुस्तक के प्रकाशन पर रंगीला रसूल मामले में पंजाब हाई कोर्ट के फैसले को वजह से भड़क उठी थीं.

गुप्ता ने बताया कि इंग्लैंड में मूल रूप से ‘ब्लासफेमोस लिबेल’ यानी कि किसी विशेष धर्म या उसके अनुयायियों पर कोई अपमानजनक मौखिक या लिखित हमले, को दंडित करने के उद्देश्य से लाये गए धारा 295A के दायरे को बाद विस्तृत करते हुए इसे साल 1961 में ‘धार्मिक भावनाओं के प्रति अन्य अपमानजनक कृत्यों के मामले में भी मान्य कर दिया गया.

उन्होंने कहा कि 1961 के बाद से धारा 295 और 295A के बीच की सही-सही सीमा रेखा धुंधली सी हो गई है और दोनों धाराओं को एक ही बेअदबी वाले आचरण को दंडित करने के लिए लागू किया जा सकता है. गुप्ता ने तर्क दिया कि इन दोनों में से कोई भी प्रावधान धर्मनिरपेक्षता के साथ असंगत नहीं है. उनके अनुसार, ‘इसके विपरीत, वे एक बहु-धार्मिक समाज में धर्मनिरपेक्षता की प्रभावशीलता को कायम रखने के लिए एक आवश्यक शर्ते हैं.’

(यह ख़बर अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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