लखनऊ: शाम के 6.30 बजे हैं. लखनऊ ज़िले के फरुख़ाबाद गांव में वन विभाग की एक ख़ाली पड़ी ज़मीन पर एक मुर्दा गाय पड़ी है. ये गांव उत्तर प्रदेश की राजधानी से 20 किलोमीटर से अधिक की दूरी पर है.
तीन आवारा कुत्तों ने मुर्दा जानवर को घेरा हुआ है, और उसका मांस नोचकर खा रहे हैं, जबकि उनके आसपास कौए मंडरा रहे हैं.
ये दृश्य भयानक ज़रूर है लेकिन नया नहीं है: गांववासियों का कहना है कि ये प्लॉट पिछले 7-8 साल से मुर्दा मवेशियों के डंपिंग यार्ड के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है, जहां हर हफ्ते दो-तीन कंकाल लाकर डाल दिए जाते हैं. उनका कहना है कि ये कंकाल न सिर्फ पास के पल्हड़ी और सैदपुर जैसे गांवों, बल्कि सरकार द्वारा चालित हनुमान टेकड़ी गौशाला से भी लाए जाते हैं, जो एक पशु आश्रय है.
यहां पर डाले गए कंकाल राज्य का पीछा कर रही एक बड़ी समस्या को उजागर करते हैं, और वो समस्या है अवारा पशु.
गौ-संरक्षण योगी आदित्यनाथ सरकार के लिए एक केंद्र बिंदु रहा है, जबसे 2017 में वो पहली बार चुनकर सत्ता में आई थी. राज्य सरकार ने यूपी गोवध निवारण (संशोधन) अधिनियम, 2020, पारित करके गौवध की सज़ा को और सख़्त कर दिया, और हर ज़िले में गाय हेल्पडेस्क भी स्थापित कर दीं.
फिर भी, चुनावों के नज़दीक आने पर आवारा पशुओं की समस्या के गहराने के साथ ही उत्तर प्रदेश सरकार की आलोचना बढ़ने लगी- इतनी ज़्यादा कि इसी साल बीजेपी के लिए अपने चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस समस्या के समाधान का वादा किया.
दो दिन पहले वायरल हुए दो वीडियोज़ उस समस्या को दर्शाते हैं जिसका फरुख़ाबाद सामना कर रहा है. एक में कथित रूप से एक ग्रामीण, जो एक दिहाड़ी मज़दूर है, गौशाला से एक कंकाल को क़रीब 200 मीटर दूर मौजूद प्लॉट पर ले जाता दिख रहा है, ताकि सड़ते हुए मांस को वहां डाल सके. दूसरे वीडियो में, जो कथित रूप से गौशाला के अंदर शूट किया गया है, दो लोगों को एक मुर्दा गाय को एक गाड़ी पर लादते दिखाया गया है.
फरुख़ाबाद प्रधान छत्रपाल और हनुमान टेकड़ी गौशाला के एक श्रमिक, जो अपनी पहचान नहीं बताना चाहता था, दोनों ने दिप्रिंट से पुष्ट किया कि वीडियोज़ का ताल्लुक़ वास्तव में गौशाला से हैं.
गौशाला के एक पूर्व गौपालक राम मिलन यादव ने बताया कि हनुमान टेकड़ी से लाए जाने वाले कंकाल भी फरुख़ाबाद के वन विभाग के प्लॉट पर डाले जाते हैं.
यादव ने कहा, ‘बदबू इतनी अधिक होती है कि वो पूरे गांव में फैल जाती है…गांव वाले यहां एक नया मंदिर बनवा रहे हैं. दो साधू जिन्हें अनुष्ठान करने के लिए बुलाया गया था, उन्होंने बदबू की शिकायत की और वापस चले गए’.
यादव ने कहा कि गाय के कंकालों से निपटने के लिए एक प्रोटोकोल होता है- उन्हें नमक और दवाओं के साथ एक गढ़े में दबाना होता है, जिससे उन्हें सड़ने में मदद मिल सके, लेकिन इनमें से किसी चीज़ का पालन नहीं किया गया. उसने बताया कि खुले में पड़े होने के कारण सड़े हुए मांस पर कौए, कुत्ते, यहां तक कि गीदड़ तक खिंचे चले आते हैं.
लखनऊ के मुख्य पशु चिकित्सा अधिकारी डीके शर्मा ने दिप्रिंट को बताया, कि उन्हें गौशालाओं पर लगे आरोपों से अवगत कराया गया था, और एक पशु चिकित्सा अधिकारी को वहां जाकर मुआयना करके अपनी रिपोर्ट पेश करने को कहा गया था.
उन्होंने कहा, ‘ये सही है कि हमें उनके (गौशाला टीम और सुपरवाइज़र) साथ सख़्ती बरतने की ज़रूरत है. हो सकता है कि वो कुछ गड़बड़ी कर रहे हों. हमें पता चला है कि एक कंकाल को प्लॉट में डाल दिया गया था, क्योंकि कोई खोदक मशीन उपलब्ध नहीं थी. उन्हें सख़्ती के साथ कहा गया है कि नियमों का पालन करें, और गायों को सम्मानपूर्वक ज़मीन में दबाएं’.
गौ संरक्षण के लिए राज्य सरकार द्वारा गठित किए गए यूपी गौसेवा आयोग के अध्यक्ष श्याम नंदन- ने स्वीकार किया कि सरकारी गौशालाओं में फंड्स की कमी है. उन्होंने दिप्रिंट से कहा कि इसका समाधान यही है कि गौशालाओं को आत्म-निर्भर बना दिया जाए.
उन्होंने कहा, ‘मैंने मुख्य सचिव को सुझाव दिया था कि गौशालाओं में बायोगैस संयंत्र लगाए जा सकते हैं, और गायों के गोबर से बायोगैस और बिजली बनाई जा सकती है, ठीक वैसे ही जैसे वाराणसी का बायोगैस प्लांट है (जहां मिथेन पैदा की जाती है जिसे फिर सीएनजी में बदल दिया जाता है’.
गाएं क्यों मर रही हैं?
गांववासियों ने गायों की मौत के लिए हनुमान टेकड़ी गौशाला में ‘बड़े पैमाने पर कुप्रबंधन’ को ज़िम्मेदार ठहराया.
यादव ने कहा कि सरकारी गौशालाओं में मवेशियों को ज़रूरी आहार नहीं मिल रहा है- उन्हें हरे चारे की जगह सूखा भूसा खिलाया जाता है. उसने आगे कहा कि इसके नतीजे में हरे चारे की तलाश में मवेशी गौशाला छोड़कर निकल पड़ते हैं.
सूखे चारे में फसलों के अवशेष होते हैं- मसलन गेहूं और धान की कटाई के बाद जो पुआल बच जाती है. हरे चारे में चारा फसलें (जो ख़ासकर चरने के लिए उगाई जाती हैं) और जंगलों, चरागाहों तथा खेती योग्य बंजर भूमि की हरी घास शामिल होती है.
यादव ने कहा, ‘गायों को हरे चारे से वंचित रखा जा रहा है. वर्कर्स को गाय का गोबर बेंचकर हरा चारा ख़रीदना होता है, लेकिन ऐसा होता नहीं है. उन्हें दिन में सिर्फ एक बार पानी दिया जाता है. इस सबके नतीजे में गायों को सही ख़ुराक नहीं मिल पाती. कई बार वो गौशालाओं से बाहर निकलकर बाहर की ज़हरीली घास खा लेती हैं, जिससे उनकी मौत हो जाती है’.
डॉ शर्मा ने कहा कि गायों को अपनी ख़ुराक में हरा चारा चाहिए होता है, और ग्राम पंचायतों के पास उनके चारे के लिए पर्याप्त पैसा नहीं होता.
ग्राम पंचायतें पशुओं के लिए चारे का प्रबंध करती हैं, और इसके लिए उन्हें बाद में सरकार से पैसा मिलता है.
मंगलवार को जब दिप्रिंट ने गौशाला का दौरा किया, तो उसे गेट के बाहर हरे चारे के बोरे पड़े हुए नज़र आए, और गोदाम के भीतर हर ओर सूखा चारा फैला पड़ा था.
ख़राब इनफ्रास्ट्रक्चर
लेकिन गौशाला कार्यकर्त्ताओं का कहना है कि ये आरोप बढ़ा-चढ़ाकर लगाए गए हैं. उनका कहना है कि इसकी बजाय अस्ली मुद्दे बुनियादी सुविधाओं से जुड़ी समस्याएं हैं, जैसे कि कंक्रीट की बाउण्ड्री का न होना और फंड्स की कमी आदि.
इसके अलावा, आठ महीने पहले हनुमान टेकड़ी में रायपुर गांव की एक दूसरी गौशाला से 48 नए पशु लाए गए. आईआईएम मार्ग पर स्थित उस गौशाला के पास लगे लगे एक बोर्ड से पता चला, कि गौशाला का प्रबंधन लखनऊ नगर निगम जल्द ही अपने हाथ में लेने जा रहा है.
हनुमान टेकड़ी गौशाला में इन नए पशुओं के आने से वहां पर भीड़ बढ़ गई- एक अकेले प्रबंधक और टिन के दो शेड्स के साथ गौशाला को अब 120 गायों की देखभाल करनी थी. गौशाला के कामगारों ने कहा कि इसका मतलब ये है कि एक समय पर केवल कुछ गायों को ही चारा खिलाया जा सकता है, और इसमें बड़े पशु छोटे और कमज़ोर पशुओं को एक ओर धकेल देते हैं.
गौशाला के एकमात्र गौपालक सियाराम ने कहा, ‘बड़े पशु उन्हें ठीक से खाने नहीं देते. अगर एक और शेड होता तो छोटी और कमज़ोर गायों को साण्डों और बड़ी गायों से अलग रखा जा सकता था’.
सियाराम ने जिसका बस एक ही नाम है, दिप्रिंट से कहा, ‘चूंकि गौशाला के चारों ओर कोई बाक़ायदा बाउण्ड्री नहीं है, इसलिए गायें आसानी के साथ यहां से निकल जाती हैं. बड़ी गाएं और साण्ड छोटी गायों के साथ लड़ते हैं, उनपर हावी हो जाते हैं और उन्हें बाहर धकेल देते हैं’.
कंक्रीट बाउण्ड्री की जगह गौशाला में सिर्फ एक बाड़ है, जिससे मवेशी निकलकर पास के खेतों में पहुंच जाते हैं.
गौशाला से 500 मीटर दूर रहने वाले किसान कृष्ण यादव ने कहा, ‘पशु यहां हमारी फसलों को चरने के लिए आ जाते हैं. हमारी सारी मेहनत बेकार चली जाती है’.
छत्रपाल ने कहा कि उन लोगों ने प्रशासन से कंक्रीट बाउण्ड्री बनाने की मांग की है, लेकिन अभी तक उनकी मांगों की कोई सुनवाई नहीं हुई है.
उसने कहा, ‘हमने एक उचित बाउण्ड्री और कम से कम एक और शेड बनाने की मांग की है. एक महीना पहले जब ज़िला मजिस्ट्रेट ने दौरा किया था तो हमने (एक टिन शेड, और एक बाउण्ड्री दीवार बनाने की) मांग की थी, लेकिन कोई सुन नहीं रहा है’.
गौशाला के श्रमिकों ने ये भी स्वीकार किया कि उचित भंडारण न होने के कारण सूखे चारे की बड़े पैमाने पर बर्बादी होती है. गौशाला में चारा रखने के लिए केवल एक स्टोर है, जिसका इस्तेमाल ज़्यादातर सूखा चारा रखने में किया जाता है, क्योंकि वो आसानी से मिल जाता है.
छत्रपाल ने कहा, ‘चारा रखने के लिए ज़्यादा जगह नहीं है, इसके अलावा पशु वो चारा नहीं खाते जो ज़मीन पर पड़ा होता है, ख़ासकर जब वो गाय के गोबर के साथ मिल जाता है’.
फरुखाबाद के ग्राम विकास अधिकारी और हनुमान टेकड़ी गौशाला के सचिव अभिनव कुमार ने कहा कि ये आश्रय अस्थायी है, और कंक्रीट की दावार तभी बन सकती है जब ये ‘स्थायी’ हो जाएगा.
उन्होंने कहा, ‘एक डीएम-स्तरीय कमेटी जिसमें ज़िले का मुख्य पशु चिकित्सा अधिकारी, ज़िला प्रोग्राम अधिकारी, और ज़िला प्रोबेशन अधिकारी शामिल होते हैं, उसपर ये तय करने का ज़िम्मा है कि गौशाला को स्थायी किया जाए या नहीं’.
UP में आवारा पशुओं की समस्या
2017 में जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राज्य के बूचड़ख़ानों पर कार्रवाई का आदेश देना शुरू किया, उससे पहले अनुत्पादक गाएं- वो गाएं जो बूढ़ी होने के कारण दूध नहीं दे सकतीं- और बूढ़े साण्ड या तो बूचड़ख़ाने भेज दिए जाते थे, या उन्हें ऐसे सूबों में भेज दिया जाता था जहां उनकी कटाई पर पाबंदी नहीं थी, जैसे केरल, अरुणाचल, मिज़ोरम, मेघालय, नागालैण्ड, त्रिपुरा तथा सिक्किम, या बांग्लादेश भी निर्यात कर दिया जाता था.
सरकार की कार्रवाई के बाद गौरक्षा की ख़बरें सामने आने लगीं. इसके नतीजे में सूबे में इस व्यापार पर अनौपचारिक प्रतिबंध लग गया, जिससे ये समस्या और गहरा गई.
फरुख़ाबाद के एक गांववासी अशीष कुमार ने दिप्रिंट को बताया, ‘पहले कुछ स्थानीय निवासी गायों की खालें गांव से मुफ्त ले जाते थे, और उन्हें बेंच देते थे. वो सिर्फ हड्डियां और अवशेष यहां डालते थे. अब वो पूरे मुर्दा पशु को यहां डालते हैं और ऊपर से 200 रुपए भी वसूलते हैं (उन लोगों से जो कंकाल को उठवाना चाहते हैं)’.
एक सरकारी अधिकारी ने स्वीकार किया कि राज्य में आवारा पशुओं की समस्या, मवेशी व्यवसाय के बंद कर देने का नतीजा हैं.
राज्य सरकार के एक सरकारी अधिकारी ने स्वीकार किया, ‘अब मवेशी इस चेन का हिस्सा नहीं हैं, इसलिए उनके मालिक उन्हें सड़कों पर छोड़ देते हैं. अंत में वो गौशालाओं में पहुंच जाते हैं’.
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गौशालाओं में फंड की कमी
उत्तर प्रदेश सरकार के बजट ख़ुलासों से पता चलता है कि राज्य के पशुपालन विभाग ने पिछले वित्तीय वर्ष (2021-22) में कुल 1,369 करोड़ रुपए की राशि ख़र्च की है.
प्रदेश सरकार के आंकड़ों से पता चलता है कि पूरे उत्तर प्रदेश में कुल मिलाकर 5,173 गौशालाएं हैं- 187 स्थायी गौशालाएं हैं, 4,485 अस्थायी आश्रय हैं, 172 ‘कान्हा’ गौशालाएं हैं (यूपी में सबसे बड़े प्रकार की गौशालाएं), और 329 ‘कांजी हाउस’ हैं- जिनमें फिलहाल 7,14,506 मवेशी हैं.
राज्य सरकार गौशालाओं को उनके रख-रखाव के लिए रोज़ाना प्रति मवेशी 30 रुपए देती है, लेकिन कामगारों का कहना है कि ये बिल्कुल पर्याप्त नहीं है- राज्य सरकार के कुछ अधिकारी भी उनकी इस बात से सहमत हैं.
दिनेश यादव जो रायपुर गांव की निवर्तमान प्रधान राम लल्ली यादव के पति हैं, और जो गांव की गौशाला का कामकाज देख रहे थे, जिसके बाद उसे बंद कर दिया गया, उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि उनकी गौशाला में अकसर पैसे की कमी रहती थी.
उन्होंने कहा, ‘एक गाय के लिए 30 रुपए काफी नहीं हैं. आमतौर पर हम छोटे मवेशियों के हिस्से का कुछ चारा लेकर बड़े मवेशियों को खिला दिया करते थे, क्योंकि छोटे मवेशी कम खाते थे. लेकिन भुगतान देरी से आता है और हम अकसर चारा वग़ैरह उधार ख़रीदते थे’.
लखनऊ सीवीओ डॉ शर्मा इससे सहमत थे कि एक जानवर की देखरेख के लिए 30 रुपए पर्याप्त नहीं हैं, लेकिन उन्होंने ये भी कहा कि जानवरों को छोड़ देने वालों के लिए कानूनों में सख़्ती लाने की ज़रूरत है.
उन्होंने कहा, ‘सीएम ने कहा था कि जो लोग गायों को छोड़ देते हैं, उन्हें दण्डित किया जाना चाहिए. इस पर अमल किए जाने की ज़रूरत है, क्योंकि सच्चाई ये है कि मालिक अपनी अनुत्पादक गायों को बेसहारा छोड़ देते हैं’.
पशु कल्याण कार्यकर्त्ता और पीपुल्स फॉर अनिमल्स (पीएफए) की ट्रस्टी गौरी मौलेखी ने दिप्रिंट से कहा कि गौ संरक्षण का राज्य सरकार का मॉडल फेल हो गया है, और बड़ी डेयरी कंपनियों से अनुत्पादक गायों के रख-रखाव का ख़र्च लिया जाना चाहिए.
उन्होंने कहा, ‘गौपालन अब एक उद्योग बन गया है. ऐसी व्यवसायिक गतिविधि का एक उप-उत्पाद सरकार की समस्या क्यों बन जाना चाहिए? बड़ी बड़ी दूध उत्पादन कंपनियों को गौशालाएं रखनी चाहिएं, और उन अनुत्पादक गायों के रख-रखाव का ज़िम्मा लेना चाहिए, जो दूध देना बंद कर देती हैं’.
उन्होंने कहा कि डेयरी कंपनियां उपभोक्ताओं के लिए दूध उत्पादन की लागत को बनावटी रूप से कम रखती हैं.
उन्होंने कहा, ‘मालिकों को उन गायों की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए जब वो अनुत्पादक हो जाती हैं, और उसकी लागत को उपभोक्ताओं के साथ साझा करना चाहिए. दूध उत्पादन एक ख़र्चीली प्रक्रिया है, लेकिन उसकी लागत को कृत्रिम रूप से कम रखा जाता है, जिससे मवेशी का कल्याण नहीं होता’.
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