नयी दिल्ली, सात नवंबर (भाषा) अनेक भारतीयों के हृदय को छूने वाले राष्ट्र-गीत ‘वंदे मातरम्’ को लेकर हर कुछ सालों में इसके ‘धर्मनिरपेक्ष’ या ‘इस्लाम-विरोधी’ स्वरूप और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में इसकी भूमिका को लेकर गरमा-गरम बहस होती रही है।
शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि राष्ट्र-गीत ‘वंदे मातरम्’ के कुछ महत्वपूर्ण छंद 1937 में हटा दिए गए थे, जिससे विभाजन के बीज बोए गए और उन्होंने कहा कि ऐसी ‘‘विभाजनकारी मानसिकता’’ आज भी देश के लिए एक चुनौती है।
मोदी ने यह टिप्पणी राष्ट्र गीत के 150 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में एक वर्ष तक चलने वाले स्मरणोत्सव का उद्घाटन करते हुए की।
इस पूरे प्रसंग की शुरुआत 1875 में हुई, जब बांग्ला उपन्यासकार-कवि बंकिम चंद्र चटर्जी ने देवी काली के साक्षात रूप में मातृभूमि के लिए एक स्तुति लिखी। तब से, बंगाल को समर्पित यह गीत बार-बार राजनीतिक विवाद के केंद्र में रहा है।
हालांकि, यह सात साल बाद 1882 में साहित्यिक पत्रिका ‘बंगदर्शन’ में चटर्जी के उपन्यास ‘आनंदमठ’ के एक भाग के रूप में प्रकाशित हुआ, जो संन्यासी विद्रोह और 1770 के बंगाल के भीषण अकाल की पृष्ठभूमि पर आधारित था।
इसके बाद 1900 के दशक तक, ‘‘वंदे मातरम’’, अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का आह्वान बन गया और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राष्ट्रवादी नेताओं ने इसे लोकप्रिय बनाया।
इसका अनुवाद था, ‘‘मैं आपको नमन करता हूं, मां।’’
मूल रूप से बांग्ला में इस गीत को ‘बंदे मातरम’ कहा जाता है। बांग्ला में ‘व’ की ध्वनि नहीं होती।
यह छह छंदों की एक कविता है। इसके बाद देवी दुर्गा और लक्ष्मी की छवि को प्रतिबिंबित करने वाले अंश हैं।’
यह कविता, विशेषकर इसके पहले दो शब्द, ‘वंदे मातरम’, धीरे-धीरे राष्ट्रवादी आंदोलन का नारा बन गए।
वर्ष 1937 में, मुस्लिम लीग ने लखनऊ में अपने 25वें अधिवेशन में पारित एक प्रस्ताव में ‘वंदे मातरम’ को ‘‘न केवल अपनी प्रेरणा और विचारों में स्पष्ट रूप से इस्लाम-विरोधी और मूर्तिपूजक, बल्कि भारत में सच्चे राष्ट्रवाद के विकास में निश्चित रूप से बाधक’’ करार दिया।
कुछ दिन बाद, 26 अक्टूबर, 1937 को कलकत्ता में नेहरू की अध्यक्षता में हुई कांग्रेस कार्यसमिति ने भी इस विषय पर एक प्रस्ताव पारित किया।
24 जनवरी, 1950 को, भारत की संविधान सभा ने ‘वंदे मातरम’ को राष्ट्र-गीत के रूप में अपनाया।
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा 1953 में प्रकाशित एक प्रकाशन के अनुसार, इसे पहली बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1896 के अधिवेशन में एक राजनीतिक अवसर पर गाया गया था और रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे संगीतबद्ध किया था।
1900 के दशक के प्रारंभ में बंगाल में विभाजन-विरोधी आंदोलन के बढ़ने के साथ ही इस गीत ने धीरे-धीरे एक राष्ट्र-गीत का रूप ग्रहण कर लिया।
30 दिसंबर, 1908 को अमृतसर में आयोजित ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के दूसरे अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में, लीग के नेता सैयद अली इमाम ने कहा कि उनका ‘‘हृदय निराशा और हताशा से भर गया’’ जब ‘‘भारत के सबसे उन्नत प्रांत ने ‘वंदे मातरम’ के सांप्रदायिक नारे को राष्ट्रीय नारे के रूप में प्रस्तुत किया’’।
महात्मा गांधी ने इसे ‘शुद्धतम राष्ट्रीय भावना’ से जोड़ा। उन्होंने स्वीकार किया कि ‘वंदे मातरम’ ने उन्हें ‘मंत्रमुग्ध कर दिया’ लेकिन उन्हें कभी यह नहीं लगा कि यह ‘‘एक हिंदू गीत है या केवल हिंदुओं के लिए है’’।
उन्होंने एक जुलाई, 1939 को ‘हरिजन’ पत्रिका में लिखा, ‘‘मैं किसी भी मिश्रित सभा में ‘वंदे मातरम’ गाने को लेकर कोई झगड़ा मोल नहीं लूंगा। यह लाखों लोगों के दिलों में बसा है। यह बंगाल और उसके बाहर लाखों लोगों की देशभक्ति को गहराई से जगाता है। इसके चुने हुए छंद बंगाल की ओर से पूरे राष्ट्र को दिए गए कई उपहारों के अलावा एक उपहार हैं।’’
स्वतंत्रता के बाद, गांधीजी ने ‘वंदे मातरम’ को नहीं थोपने की सलाह दी।
अगले आठ दशक में, राष्ट्र गीत पर तीखी बहस होती रही।
सबसे बड़े विवादों में से एक 2009 में हुआ, जब उत्तर प्रदेश के देवबंद में जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने मुसलमानों से राष्ट्र-गीत न गाने का आग्रह करते हुए एक फतवा जारी किया।
इस्लामी संगठन का कड़ा विरोध करते हुए, 100 से ज़्यादा मुस्लिम विद्वानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, अभिनेताओं और लेखकों ने एक बयान जारी कर कहा, ‘‘हम न तो यह मानते हैं कि वंदे मातरम् किसी की देशभक्ति की परीक्षा है और न ही हम जमीयत की व्याख्या से सहमत हैं।’’
इस पर नसीरुद्दीन शाह, जावेद अख्तर, शबाना आजमी और सईद अख्तर मिर्जा जैसे लोगों के दस्तखत थे।
भाषा वैभव नरेश
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