नई दिल्ली: ब्रिटेन में अकसर एक शिकायत सुनने को मिल जाती है – जो शायद ही सच हो – कि इन दिनों रॉयल नेवी के पास जहाजों की तुलना में एडमिरल की संख्या ज्यादा है. लेकिन जब भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) की बात आती है, तो इस बात पर शक-ओ-शुबा नहीं किया जा सकता है. क्योंकि यहां सचमुच में पदों की संख्या से ज्यादा अधिकारियों की संख्या है.
उदाहरण के तौर पर आप उत्तर प्रदेश का मामला ले सकते हैं. यहां राज्य का सबसे बड़ा कैडर है, जहां 78 महानिदेशक (डीजी) और अतिरिक्त महानिदेशक-रैंक (एडीजी) अधिकारी हैं. जबकि इन दोनों पदों के लिए स्वीकृत संख्या सिर्फ 28 है. इनमें से कई टॉप-रैंकिंग आईपीएस अधिकारी उन पदों पर सेवा दे रहे हैं जिनका पुलिस क्षेत्र से बहुत कम लेना-देना है. मसलन डीजी (स्पेशल इंक्वायरी), डीजी (पावर कारपोरेशन), एडीजी (तकनीकी सेवाएं), एडीजी (दूरसंचार) और इसी तरह बहुत से पद हैं.
हालांकि सरकारी आंकड़े मध्य स्तर के अधिकारियों- महानिरीक्षक (आईजी), उप महानिरीक्षक (डीआईजी), और पुलिस अधीक्षक (एसपी)- की कुछ अलग ही स्थिति को दर्शाते हैं, अब चाहे वो राज्यों में हो या फिर केंद्र सरकार में. जबकि इन अधिकारियों की संख्या को लेकर राज्य के साथ-साथ केंद्र स्तर पर भी संकट है.
पिछले कुछ सालों से मोदी प्रशासन केंद्र सरकार में सेवारत आईपीएस अधिकारियों की कमी की ओर इशारा करता आ रहा है. इसमें एक बड़ी शिकायत यह है कि राज्य पर्याप्त अधिकारियों को केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर नहीं भेज रहे हैं.
आईपीएस का कैडर-नियंत्रित करने वाले गृह मंत्रालय और पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो (BPR&D) के उपलब्ध डेटा से पता चलता है कि केंद्र सरकार के पास अपने 17 केंद्रीय पुलिस संगठनों, एजेंसियों और बलों में डीजी- और एडीजी-रैंक के अधिकारियों के लिए सिर्फ दो रिक्तियां हैं. लेकिन एक नवंबर तक केंद्रीय पुलिस संगठनों और बलों में IPS अधिकारियों के DIG और IG रैंक के 90 और 30 पद खाली पड़े हैं. ऐसे ही हालात राज्यों में भी हैं.
एक राज्य के डीजीपी ने कहा, ‘आईपीएस सबसे खराब प्रबंधन वाला कैडर बन गया है.
उनकी तरह कई सेवारत और सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारियों ने दिप्रिंट से बात की और कैडर प्रबंधन के उन मुद्दों की ओर ध्यान आकर्षित किया, जिनके चलते कई राज्यों में शीर्ष आईपीएस अधिकारियों की भरमार है. यूपी तो सिर्फ इसका एक उदाहरण है.
मेघालय के पूर्व डीजीपी और नई दिल्ली स्थित लॉ इन्फोर्समेंट थिंक टैंक इंडिया पुलिस फाउंडेशन के अध्यक्ष एन रामचंद्रन ने कहा, ‘आईपीएस अधिकारियों की नियुक्ति के मामले में राज्य स्वाभाविक रूप से शीर्ष पर होते जा रहे हैं और यह उत्तर प्रदेश के लिए एक अजीबोगरीब समस्या है. हालांकि केंद्र में काम करना काफी हद तक अधिकारी की व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर करता है, लेकिन राज्य भी कई बार अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति पर जाने के लिए प्रोत्साहित नहीं करते हैं.’
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‘महत्वहीन और छोटे पद’
भाजपा शासित राज्य उत्तर प्रदेश के सेंट्रल डेपुटेशन रिजर्व (CDR) का एक खराब रिकॉर्ड रहा है. राज्य की आईपीएस सिविल लिस्ट यह भी बताती है कि वह अपने वरिष्ठ अधिकारियों को अपने नियंत्रण में रखने के लिए काफी जोर-आजमाइश करता रहा है.
इस साल तक यूपी में उच्चतम आईपीएस रैंक ‘डीजी’ के लिए सात स्वीकृत पद थे, लेकिन यहां इस रैंक के 15 अधिकारी मौजूद हैं. इसी तरह यूपी में एडीजी की स्वीकृत पदों की संख्या 21 है. लेकिन मौजूदा समय में वहां नियुक्त अधिकारियों की संख्या इससे तीन गुना अधिक है. राज्य में 63 अधिकारी अपनी सेवा दे रहे हैं.
मिडिल रैंक के लिए कहानी कुछ अलग है. उदाहरण के तौर पर, 51 स्वीकृत आईजी पदों के मुकाबले यहां सिर्फ 31 अधिकारी हैं तो वहीं 50 स्वीकृत डीआईजी पदों पर सिर्फ 39 अधिकारी मौजूद हैं.
उत्तर प्रदेश पुलिस की सिविल लिस्ट बताती है कि यूपी के 167 सीनियर ऑफिसर्स में से सिर्फ 28 केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर हैं.
कम से कम छह सिनियर अधिकारी तैनात होने का ‘इंतजार’ कर रहे हैं तो वहीं कई अन्य अधिकारी ऐसे पदों पर तैनात हैं जिन्हें अन्य पदों के मुकाबले काफी हल्का माना जाता है. उदाहरण के लिए, मानवाधिकार, स्पेशल इंक्वायरी, पावर कॉरपोरेशन और होमगार्ड डीजी. इसमें ट्रेनिंग, मानवाधिकार, पुलिस आवास योजना, दूरसंचार और तकनीकी सेवाओं के एडीजी पद भी शामिल हैं.
राज्य में सेवा दे चुके आईपीएस अधिकारियों का दावा है कि इनमें से कुछ पद पुलिस निदेशालय के अधीन नहीं हैं और कुछ का पुलिस विभाग से बहुत कम लेना-देना है. उन्होंने कहा कि कुछ पद सिर्फ अधिकारियों को बनाए रखने के लिए तैयार किए गए हैं, जबकि अन्य ‘गैर-जरूरी’ हैं.
दिप्रिंट से बात करते हुए उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी ओपी सिंह ने कहा कि इन मुद्दों पर ‘गंभीर विचार-विमर्श’ की जरूरत है.
उन्होंने बताया, ‘कैडर प्रबंधन की तत्काल जरूरत है. साल में एक बार मौजूदा समय के आधार पर इस बात का अनुमान लगाया जाना भी जरूरी है कि वास्तव में राज्यों को कितने अधिकारियों की जरूरत है. कैडर का पुनर्गठन किया जाना चाहिए. कुछ पदों का नाम बदलने की जरूरत है या एक उनका नया नाम रखा जा सकता है.’
CDR में यूपी के मामूली योगदान के सवाल पर उन्होंने कहा कि राज्य ‘हमेशा से ऐसा ही रहा है.’
उन्होंने बताया, ‘राज्य आमतौर पर केंद्र में अधिकारियों को भेजने के अनिच्छुक होते हैं. क्योंकि उनकी राज्यों में भी जरूरत होती है. हालांकि बड़े पैमाने पर अधिकारी भी केंद्रीय प्रतिनियुक्ति का विकल्प नहीं चुनते हैं. वे अपने राज्य के कैडर से बाहर नहीं आना चाहते.’
रामचंद्रन इसके बारे में ज्यादा साफगोई से बात करते हैं. उन्होंने कहा, ‘अधिकारी राज्य में सहज हो जाते हैं और फिर वे केंद्र के मुश्किल काम की तरफ नहीं जाना चाहते. वे राज्य में महत्वहीन और गैर-जरूरी पदों पर होते हुए भी वहां बने रहना चाहते हैं. और राज्य भी अक्सर अधिकारियों को लुभाने के लिए नए पदों का सृजन करता रहता है.’
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केंद्र सरकार के लिए अधिकारियों की कमी का दौर
यूपी जैसे राज्यों में सीनियर अधिकारियों की जरूरत से ज्यादा संख्या हैं. लेकिन इसके बावजूद केंद्र सरकार के पास कई मिड-लेवल के पद खाली पड़े हैं, जिन्हें भरने की जरूरत है. इसमें आईजी रैंक वाले अधिकारियों के 30 पद रिक्त हैं तो वहीं डीआईजी-रैंक वाली रिक्तियों की संख्या 90 है. इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) में भी 35 DIG-रैंक पद खाली पड़े हैं.
गृह मंत्रालय में कार्यरत एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी ने कहा ‘ मेरा मानना तो ये है कि सभी राज्यों से एसपी- और डीआईजी-रैंक के अधिकारियों की एक निश्चित संख्या में से हर साल ‘अनिवार्य प्रतिनियुक्ति’ की जानी चाहिए.’
उन्होंने आगे कहा, ‘प्रतिनियुक्ति को आईजी के रूप में सूचीबद्ध करने के लिए आगे के रास्ते के तौर पर देखा जाना चाहिए. और यह CSS (केंद्रीय कर्मचारी योजना) और NON-CSS दोनों के तहत होना चाहिए. उन्हें आईजी और संयुक्त सचिव के रूप में भी सूचीबद्ध किया जाना चाहिए. केंद्र में अधिकारियों की कमी और राज्य में कैडरों का प्रबंधन करने की समस्या का यह एकमात्र समाधान है.’
अप्रैल में कुछ इसी तरह का प्रस्ताव गृह मंत्रालय ने भी दिया था. इस प्रस्ताव के मुताबिक, जिन आईपीएस अधिकारियों ने एसपी या डीआईजी के रूप में केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर सेवा नहीं दी है, उन्हें वरिष्ठ स्तर पर केंद्रीय एजेंसियों में सेवा देने से रोक दिया जाना चाहिए. लेकिन इस पर कोई आदेश जारी नहीं किया गया था.
सितंबर में केंद्र सरकार ने एक और प्रयास किया ताकि राज्य सरकारों की आईपीएस अधिकारियों की नियुक्ति और पदोन्नति पर कड़ा नियंत्रण रखा जा सके. एमएचए ने राज्यों के लिए किसी भी सीनियर आईपीएस अधिकारी को पदोन्नति देने या नियुक्त करने से पहले केंद्र सरकार की मंजूरी लेना अनिवार्य कर दिया है, अन्यथा पोस्टिंग रद्द की जा सकती है. इसे राज्यों में अधिकारियों और इस तरह की अन्य नियुक्तियों को बढ़ावा देने के लिए पदों के सृजन पर रोक लगाने के प्रयास के रूप में देखा गया था.
(अनुवाद: संघप्रिया मौर्या)
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