जंगी हेलिकॉप्टर आसमान में मंडरा रहे थे, 154 बटालियन का कत्लेआम देख रहे थे, लेकिन गोली बरसाने से मना कर दिया, ‘मुझे इजाजत नहीं है क्योंकि यह अंतरराष्ट्रीय सीमा है.’ सोवियत मध्य एशियाई गणराज्यों के युद्धोन्मादी मुस्लिम सिपाहियों ने 1979 के अफगान युद्ध में पहली गोली चलाई राष्ट्रपति नूर मुहम्मद तराकी पर. फिर, अपने कामरेडों की हत्या का बदला लेने के लिए फरमान को धत्ता बताकर पाकिस्तान के भीतर एक मुजाहिदीन ठिकाने को निशाने पर ले लिया.
इतिहासकार लेस्टर ग्राउ और अली जलाली ने लिखा है, एक थरथराती आवाज वायरलेस पर आई, ‘मैं टेल नंबर 25 हूं और मैं गोली चलाने को तैयार हूं. मुझे निशाना बताओ.’
पिछले हफ्ते अमेरिका के स्पेशल इंस्पेक्टर जनरल फॉर अफगान रिकन्सट्रक् शन (एसआइजीएआर) ने अपनी रिपोर्ट शृंखला का ताजा अंक जारी किया. उसमें बताया गया है कि कैसे राष्ट्रीय सेना का दो दशकों तक लगाया 88 अरब डॉलर का निवेश पिछले साल एक हफ्ते में बेमानी हो गया, जब तालिबान तख्त पर काबिज हुआ. रिपोर्ट में दूसरी बातों के अलावा राष्ट्रपति जो बाइडन के 2021 में अफगानिस्तान से वापसी के मोटे तौर पर नैतिक फैसले को भी दोषी बताया गया है. इसके अलावा अफगान बल टेक्नोलॉजी पर निर्भरता को संभाल न पाना और नेतृत्व के गलत फैसलों तथा रणनीति को दोष दिया गया है.
एसआइजीएआर की रिपोर्टें ईमानदार आत्म-समीक्षा और सतर्क अध्ययन का मॉडल हैं. हालांकि सबसे अहम मुद्दा इसमें गायब है कि अमेरिका सीमा पार पाकिस्तान में तालिबान के ठिकानों को नष्ट करने में नाकाम हुआ.
‘लंबे वक्त’ पीछे सोवियत विदेश मंत्री आंद्रेई ग्रोमीको ने 1986 की पोतिब्यूरो की बैठक में अफसोस जताया कि ‘हमने यह कहा था कि अफगानिस्तान की पाकिस्तान और ईरान की सीमा को बंद करना जरूरी है. अनुभव यही है कि हम वह करने में नाकाम रहे थे.’ उस बैठक में नेताओं ने यह नतीजा निकाला कि लड़ाई हारी जा चुकी है. इस बयान में उन सभी सेना को महत्वपूर्ण सबक है, जो सीमा आरपार ठिकानों वाले बागियों से लड़ती हैं. ऐसा ही एक भारत भी है.
तालिबान के अभेद्य किले
शुरुआत से ही सोवियत सेना समझ गई थी कि उसकी असली समस्या सीमा पार है. 1982 में केजीबी के पूर्व अफसर व्लादिमीर कुजिच्कीन ने दर्ज किया कि सोवियत सेना ने पाकिस्तान से लगने वाली सीमा को सील करने की योजना बनाई थी. इसके तहत वॉचटॉवर बनाए जाते और बारूदी सुरंगे बिछाई जातीं और फिर हवाई हमलों के जरिए ‘अफगानिस्तान में उनके सहयोगी ताकतों को तबाह’ किया जाता. हालांकि, उस योजना में 3,00,000 से ज्यादा सोवियत जवानों की दरकार थी, जिसकी न राजनैतिक नेतृत्व इजाजत देता और न देश झेल पाता.
सोवियत सेना का प्लान बी सीमा पर बड़े पैमाने पर बारूदी सुरंगे बिछाने से आर-पार आवाजाही को नहीं रोका जा सका और जैसे ही अमेरिका ने मुजाहिदीन की फंडिंग बढ़ाई, सोवियत संघ के खिलाफ घातक बगावत शुरू हो गई.
सोवियत सेना ने 1984 से मुजाहिदीन की सप्लाई रूट पर हमले शुरू किए, जिसका मकसद बागियों को उनके पाकिस्तान स्थित ठिकानों से काट देना था. बड़े पैमाने पर हवाई हमलों से गांवों पर बम बरसाए गए जिससे सीमा पर 50 किलोमीटर का जनशून्य इलाका बन गया. सैन्य इतिहासकार थॉमस ब्रुसकिनो के मुताबिक, ‘अफगान गांवों की बर्बादी और मनोबल टूटने से देश के भीतरी इलाकों में लड़ रहे गुरिल्लाओं के लिए समस्या जरूर खड़ी हुई.’
हालांकि, टेक्नोलॉजी ने फिर लड़ाई को बराबरी पर ला दिया. सीआइए ने ढोई जा सकने वाली एयर डिफेंस मिसाइल एफआइएम-92 बागियों को दी, जिससे सोवियत विमानों का निचली ऊंचाई पर उड़ना बेहद जोखिम भरा हो गया. इसका मतलब यह था कि मुजाहिदीन की सप्लाई फिर सीमा पार से जारी हो गई.
अफगानिस्तान में मध्यम स्तर के सोवियत कमांडरों में हताशा घर करने लगी. फरवरी 1985 में मुजाहिदीन ब्लैक स्टॉर्क्स ने 154 बटालियन की पूरी एक कंपनी का सफाया कर दिया. मुजाहिदीन ब्लैक स्टॉर्क्स चर्चित तो था मगर कभी पाकिस्तान आर्मी स्पेशल सर्विस ग्रुप (एसएसजी) साबित नहीं किया जा सका. इसके बाद आदेश की अवहेलना करके इस इकाई ने सीमा पार पाकिस्तान के क्रेर में मुजाहिदीन ठिकाने पर हमले की योजना बनाई. शुरुआती हमला ठीक रहा मगर बजौर शहर से अतिरिक्त ताकत बुलाकर मुजाहिदीन ने जवाबी हमले में 154 बटालियन के जवानों को घेर लिया.
वह हमला भारी नुकसानदेह साबित हुआ मगर अगले वर्षों में फिर ऐसे हमलों के सबूत मिलते हैं. सोवियत बलों की वापसी के फैसले के काफी दिन बाद दिसंबर 1987 में विशेष बलों ने फिर क्रेर पर हमला बोला और इस बार अंधेरे में मुजाहिदीन को ढेर कर दिया. अली जलाली और लेस्टर ग्राउ ने लिखा, मुजाहिदीन पीछे हट गए और सोवियत बलों के जाने के बाद फिर लौटे.
सोवियत हाईकमान को मालूम था कि इस तरह की लड़ाई से ज्यादा कुछ हासिल नहीं होता. मुजाहिदीन को सही मायने में नेस्तनाबूद करने के लिए उन्हें पाकिस्तान से जंग करनी पड़ती. इससे सीधे अमेरिका के साथ उलझने का खतरा था और उसके लिए सोवियत संघ तैयार नहीं था.
यह भी पढ़ें : चीन के पावर गेम्स से थक चुके हैं पश्चिमी देश, भारत उठा सकता है इसका फायदा
अफगान युद्ध का गणित
हर मामले की तरह युद्धों का भी गणित से लेना-देना है. पारंपरिक समझ यह कहती है कि बागियों से लड़ने के लिए सेना की बढ़त 10:1 की होनी चाहिए. आखिरकार सरकारी बलों को इन्फ्रास्ट्रक्चर और लोगों की भी रक्षा करनी होती है. विशेषज्ञ चाल्र्स डुडिक के मुताबिक, सोवियत और सरकारी अफगान बलों की मिली-जुली ताकत कभी भी 2,00,000 जवानों से ज्यादा नहीं थी और मुजाहिदीन की ताकत भी लगभग उतनी ही थी. 85 फीसदी स्थानिक ड्यूटी के लिए थे, इस तरह बगावत विरोधी अभियान के लिए सिर्फ 23,000 ही उपलब्ध थे.
इन अड़चनों के बावजूद सोवियत सैनिकों ने लड़ाई में अपनी जांबाजी दिखाई. चर्चित है कि एक इकलोती कंपनी ने पहाड़ी 3234 पर सैकड़ों मुजाहिदीन को रोके रखा और खोस्त-गार्देज हाइवे पर कब्जा बनाए रखा, जिससे उनके साथी 1988 में अपने देश लौट सकें. हालांकि ऐसी जीत से मामूली ही हासिल हो पाया.
1986 की बैठक में सोवियत सेना की अफगानिस्तान घुसपैठ की योजना के सूत्रधार मार्शल सेर्गेई अखरोमेयेव ने कहा, ‘उस देश में कोई ऐसी जगह नहीं जहां सोवियत सेना काबिज नहीं है.’ उन्होंने आगे कहा, ‘फिर भी ज्यादातर जमीन बागियों के हाथ में बनी हुई है. एक भी समस्या ऐसी नहीं उठी, जिसे हल न किया गया हो, फिर भी कोई नतीजा नहीं है.’
अमेरिका ने नहीं सीखा सबक
हालांकि, शुरू से ही अफगान सेना की योजना में पाकिस्तान की सीमा सील करने की क्षमता नहीं थी. अपने चरम दिनों में भी अफगान नेशनल डिफेंस ऐंड सिक्युरिटी फोर्सेस या एएनडीएसएफ के पास मंजूरशुदा 3,50,000 की ताकत में 63,000 जवान कम थे. जम्मू-कश्मीर में भारतीय सेना के मुकाबले फर्क काफी बड़ा है, जहां उपद्रव ग्रस्त इलाके में 3,52,000 सैनिक ड्यूटी पर हैं और इसके अलावा करीब 3,00,000 केंद्रीय और राज्य पुलिस बल आज भी लाइन ऑफ कंट्रोल की रक्षा के लिए हैं.
सोवियत रणनीतिकारों की ही तरह अमेरिकी रणनीतिकार यह समझते हैं. 2011 में तब के अमेरिकी ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टॉफ के चेयरमैन माइक मुलेन ने कहा था कि तालिबान ‘पाकिस्तान से खुलेआम अभियान चलाते हैं.’ उनकी शिकायत थी, ‘पाकिस्तान सरकार की शह पर उग्रवादी ताकतें अफगान बलों के साथ आम लोगों और अमेरिकी सैनिकों पर हमले कर रही हैं.’
एक वक्त टेक्नोलॉजी तालिबान की कुछ बढ़त को बेमानी बना रही थी. हालांकि अमेरिका के हाथ खींच लेने के बाद उन्हें काफी नुकसान हुआ. एक सरकारी अध्ययन से पता चलता है, ‘2021 में अमेरिकी फंड से सक्रिय ठेकेदारों के हटने के बाद विमानों का संचालन मुश्किल हो गया और अफगान वायु सेना पर बोझ बढ़ गया. तालिबान के अभियानों ने एएनडीएसएफ की यूनिटों को अलग-थलग कर दिया और कई यूनिटों को भोजन या माल-आसबाब, हथियार और मानव बल मुहैया कराने में अफगान सरकार की नाकामियों का मतलब यह था कि अफगान सैनिक जल्दी ही लड़ाई के काबिल नहीं रह गए.’
कई देशों में बागियों से लड़ाई की तरह-याद करें वियतनाम में अमेरिका और अल्जीरिया में फ्रांस के हालात-दोनों अफगान युद्धों में सरकारी पक्ष को कई रणनीतिक जीत मिली, लेकिन आखिरकार हार का मुंह देखना पड़ा. बागी नहीं जीते-जिन ताकतों से उनकी लड़ाई थी, वे ताकतें ही थककर दिलचस्पी खो बैठीं.
कुछ ही सेनाएं असली हल पा सकीं. अल्जीरिया में फ्रांस की तरह भारत ने भी पाकिस्तान के साथ ल्री अपनी सीमा पर बाड़ लगाने की कोशिश की है. हालांकि सबूत यही सुझाते हैं कि ऐसी बाधाएं बागियों की कुछ मुश्किलें तो बढ़ा सकती हैं मगर पूरी तरह उन्हें रोकने के काबिल नहीं हैं. अफगानिस्तान में सोवियत युद्ध और भारत के अपने अनुभव से भी पता चलता है कि हवाई हमलों और सीमा पार स्ट्राइक से कुछ असर पैदा किया जा सकता है., लेकिन उनका असर भी थोड़े समय ही रहता है.
सोवियत संघ के उलट अमेरिका अपनी रणनीतिक ताकत और आर्थिक संसाधनों से पाकिस्तान को सीमा पार तालिबान के पनाहगाहों को बंद करने का दबाव बना सकता था. उसने ऐसा नहीं किया क्योंकि उसे पाकिस्तान के साथ रणनीतिक संबंध अफगानिस्तान से ज्यादा अहम लगा, जिसे वह छोड़ने जा रहा था. उस चयन की समझदारी का असर कुछ समय में जाहिर हो जाएगा.
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें : आज के युद्ध की जरूरत है तकनीकी बढ़त, बिना इसके सेना के ‘इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप्स’ कमजोर ही रहेंगे