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शुक्रवार, 2 मई, 2025
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यूपी के युवक की नाम बदलने की कानूनी लड़ाई पहुंची SC, इलाहाबाद HC ने क्यों खारिज की याचिका?

एक 27 साल के इंजीनियर ने हाई कोर्ट के उस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है, जिसमें उसके स्कूल के रिकॉर्ड में नाम बदलने की मांग को खारिज कर दिया गया था. उसने कहा है कि यह फैसला उसके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है.

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नई दिल्ली: मुरादाबाद के 27 वर्षीय इंजीनियर ने अपने स्कूल के एजुकेशन रिकॉर्ड में नाम बदलवाने की लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा दी है, क्योंकि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी थी.

मोहम्मद समी़र राव, जो पहले शाहनवाज के नाम से जाने जाते थे, ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया है कि वह हाई कोर्ट के फरवरी के फैसले को रद्द करे, जिसमें कहा गया था कि उन्हें पहले सिविल कोर्ट से घोषणा पत्र प्राप्त करना होगा और फिर उत्तर प्रदेश शिक्षा बोर्ड में अपने कक्षा 10 और 12 की मार्कशीट में नाम बदलने के लिए आवेदन करना होगा.

हाई कोर्ट ने कहा कि राज्य बोर्ड के क्षेत्रीय सचिव ने समी़र राव के आवेदन को सही ढंग से खारिज किया, क्योंकि यह उत्तर प्रदेश इंटरमीडिएट एजुकेशन एक्ट, 1921 के तहत तीन साल की सीमा अवधि समाप्त होने के काफी समय बाद दायर किया गया था. यह समय सीमा परीक्षा परिणाम घोषित होने के दिन से शुरू होती है.

1921 के कानून के रेगुलेशन 40 के अनुसार, अगर नाम परिवर्तन का उद्देश्य किसी के धर्म को दर्शाना हो या यह धार्मिक परिवर्तन के कारण किया गया हो, तो ऐसे नाम परिवर्तन के आवेदन की अनुमति नहीं होती.

हालांकि क्षेत्रीय सचिव ने समी़र राव के आवेदन को रेगुलेशन 40 के उल्लंघन के आधार पर खारिज किया था, लेकिन हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच ने अपने निर्णय में इस पहलू को संबोधित नहीं किया.

समी़र राव ने तर्क दिया है कि हाई कोर्ट का निर्णय उनके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विचार व्यक्त करने के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है. वे मई 2023 के एकल-न्यायाधीश हाई कोर्ट के आदेश को बहाल कराना चाहते हैं, जिसमें नाम बदलने की अनुमति दी गई थी.

एकल-न्यायाधीश की पीठ ने नाम के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभिन्न हिस्सा माना था और राज्य बोर्ड के क्षेत्रीय सचिव को बदलाव करने का निर्देश दिया था.

समी़र राव का तर्क है कि उन्होंने आधार और पैन कार्ड जैसे आधिकारिक सरकारी दस्तावेजों में अपना नया नाम दर्ज कराने की सभी आवश्यकताओं को पूरा कर लिया है. हालांकि, राज्य शिक्षा बोर्ड ने उनके पुराने नाम को हटाकर अपने रिकॉर्ड में बदलाव करने के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया.

जस्टिस बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली बेंच ने समी़र राव की समस्या पर ध्यान दिया है और राज्य शिक्षा बोर्ड से जवाब मांगा है. राज्य को नोटिस जारी करते हुए पीठ ने इस मामले में सहायता के लिए दिल्ली हाई कोर्ट की पूर्व जज और वरिष्ठ अधिवक्ता रेखा पल्लि को नियुक्त किया है.

समी़र राव के अनुरोध पर, जो व्यक्तिगत रूप से अदालत में पेश हुए थे और अपने मामले की पैरवी कर रहे थे, कोर्ट ने एक न्याय मित्र (एमिकस क्यूरी) की नियुक्ति की है. अदालत इस मामले की सुनवाई मई के दूसरे सप्ताह में करने की संभावना है.

दो पहचानों से जुड़ी समस्याएं

समी़र राव को जन्म के समय दो नाम मिले थे. उनके पिता के परिवार ने उनका नाम शाहनवाज़ रखा, जबकि उनके ननिहाल की ओर से उन्हें समी़र कहा जाने लगा. बाद में उन्होंने समी़र को अपनी पसंदीदा पहचान के रूप में अपना लिया, हालांकि उनके सभी स्कूल दस्तावेज़ों में शाहनवाज़ नाम दर्ज था.

अपनी याचिका में समी़र राव ने बताया कि दो नाम होने की वजह से उन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ा—आधिकारिक दस्तावेजों में उनका नाम शाहनवाज़ था, जबकि गांव में दोस्त और स्थानीय लोग उन्हें समी़र के नाम से जानते थे.

कोविड-19 महामारी के दौरान 2020 में उन्होंने अपने आधिकारिक रिकॉर्ड में नाम बदलवाने के तरीके तलाशने शुरू किए. 2 अक्टूबर 2020 को उन्होंने भारत सरकार के गजट में एक नाम परिवर्तन सूचना प्रकाशित करवाई, जिसमें अपना आधिकारिक नाम समी़र राव घोषित किया.

इसके बाद उन्होंने एक स्थानीय दैनिक अखबार में भी इसी तरह की सूचना प्रकाशित करवाई और बरेली स्थित माध्यमिक शिक्षा परिषद के क्षेत्रीय कार्यालय के क्षेत्रीय सचिव को आवेदन भेजा. लेकिन 24 दिसंबर 2020 को उनका आवेदन यह कहते हुए खारिज कर दिया गया कि यह ‘समय-सीमा से बाहर’ का मामला है.

इसके बाद उन्होंने इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक रिट याचिका दायर की, जहां एकल-न्यायाधीश पीठ ने उनकी याचिका को मंज़ूर करते हुए क्षेत्रीय सचिव के आदेश को रद्द कर दिया. बेंच ने एक कदम और आगे बढ़ते हुए संबंधित अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे समी़र राव की पुरानी पहचान से जुड़े दस्तावेज़ नष्ट करें या उन्हें समाप्त करें और अगर ऐसा पहले नहीं किया गया हो, तो बदले हुए नाम के अनुरूप नए दस्तावेज़ जारी करें. साथ ही, समी़र राव को सभी ऐसे सार्वजनिक दस्तावेज़ जमा करने को कहा जो उनकी पुरानी पहचान से जुड़े हैं.

बेंच ने 1921 के कानून के रेगुलेशन 40 को भी सीमित किया, जो धार्मिक कारणों से नाम बदलने पर रोक लगाता है, यह कहते हुए कि यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत दी गई किसी धर्म को मानने और उसका पालन करने की मौलिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है.

बेंच ने कहा, “यह उल्लेखनीय है कि कानून जन्म के समय दिए गए नामों को देने से नहीं रोकता. नामकरण संस्कार में दिए गए नामों को जीवन में बाद में भी अपनाया जा सकता है. अगर पहले प्रकार के नामों पर रोक नहीं है तो यह स्वाभाविक है कि बाद वाले नामों पर भी रोक नहीं लगाई जा सकती.”

“कभी-कभी जाति या धर्म परिवर्तन के चलते नाम बदलना ऐसे अनुष्ठानों का हिस्सा होता है जो उससे पहले किए जाते हैं. इस प्रकार की रोक संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत किसी धर्म को मानने और पालन करने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करती है.”

जज ने केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय और उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को यह निर्देश भी दिया कि वे एक स्पष्ट कानूनी और प्रशासनिक व्यवस्था तैयार करें जिससे पहचान से जुड़े दस्तावेज़ तैयार करना आसान हो सके.

स्कूल रिकॉर्ड में नाम बदलने के लिए कोर्ट की मंजूरी जरूरी

राज्य शिक्षा बोर्ड द्वारा फैसले के खिलाफ अपील करने के बाद, हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच ने कहा कि किसी व्यक्ति को नया नाम अपनाने के लिए एक सिविल कोर्ट से घोषणा जरूरी है. बेंच ने कहा कि शिक्षा बोर्ड तब तक किसी आवेदन पर विचार नहीं कर सकता जब तक कि कोर्ट का आदेश प्रस्तुत न किया जाए.

समी़र राव के मामले और इस मुद्दे पर पहले के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विश्लेषण करते हुए, डिवीजन बेंच ने देखा कि यह मामूली नाम सुधार या छोटे परिवर्तन का मामला नहीं था. बल्कि, यह एक ऐसे आवेदनकर्ता का मामला था जो नया नाम अपना रहा था.

“याचिकाकर्ता ने बोर्ड से अपने नाम में सुधार करने के लिए आवेदन नहीं किया, बल्कि उन्होंने अपने नए नाम, यानी शाहनवाज़, के तहत पहचान दस्तावेज़ जैसे आधार कार्ड/जन्म प्रमाणपत्र/वोटर आई.डी. कार्ड इत्यादि पर आधारित आवेदन किया,” बेंच ने कहा.

हाई कोर्ट ने कहा कि स्कूल रिकॉर्ड्स में नाम बदलने के लिए पहले कोर्ट की अनुमति आवश्यक है, साथ ही एक आधिकारिक गजट अधिसूचना भी जरूरी है. 1921 के कानून के रेगुलेशन 40 पर एकल-न्यायाधीश के विचारों के बारे में डिवीजन बेंच ने कहा कि इस प्रावधान को सीमित करना उचित नहीं था.

सुप्रीम कोर्ट में अपने मामले में, समी़र राव ने यह कहा कि डिवीजन बेंच ने “सिविल कोर्ट की घोषणा की अनावश्यक आवश्यकता” पेश की, जबकि राज्य शिक्षा बोर्ड इसके लिए इसे अनिवार्य नहीं मानता.

उन्होंने यह भी तर्क दिया कि डिवीजन बेंच ने यह नहीं माना कि किसी का नाम बदलने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) और 21 के तहत संरक्षित है और कहा कि 1921 के कानून की प्रक्रियात्मक नियमों की सीमित व्याख्याएं संविधानिक अधिकारों को नजरअंदाज नहीं कर सकतीं.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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