नई दिल्ली: जब उसकी मौत हुई तब उनकी आयु लगभग 35-40 वर्ष थी. उसके आखिरी पल काफी भयावह रहे थे. उसके शव के कुछ हिस्से पूर्वी दिल्ली में साइबर पुलिस स्टेशन के पीछे एक खुले मैदान के 150-200 मीटर के दायरे में फेंकने से पहले किसी ने उसके शरीर के टुकड़े कर दिए थे. इसके बाद इन हिस्सों को काले पॉलीथीन की थैलियों में भरा गया था.
उसके शव के बुरी तरह सड़ चुके हिस्से 7 जून को बरामद किए गए और फिर, एक दिन बाद उसकी खोपड़ी मिली. उसके धड़ का अभी तक पता नहीं लगाया जा सका है. पुलिस ने हत्या का मामला दर्ज कर लिया है लेकिन उसकी और उसके हत्यारे या हत्यारों की पहचान दो महीने बाद भी एक रहस्य बनी हुई है. शव परीक्षण के बाद डॉक्टर केवल यह पता लगा सके कि वह एक पुरुष था, और उसकी उम्र का अनुमान लगाया.
ठीक एक महीने बाद, एक राहगीर ने उत्तरी दिल्ली के वजीराबाद इलाके में आउटर रिंग रोड के पास एक प्लास्टिक की बोरी में एक इंसान के पैर को देखा. बोरे के अंदर करीब 30-35 साल की उम्र के किसी व्यक्ति का सड़ा हुआ शव था. उसकी भी कोई पहचान नहीं हो पाई. हत्या का केस दर्ज कर लिया गया है, लेकिन वह कौन है यह किसी को नहीं पता.
आज, वह ज़ोनल इंटीग्रेटेड पुलिस नेटवर्क (जिपनेट) वेबसाइट पर सूचीबद्ध एक और यूआईडीबी (अज्ञात शव) है, वह उन हजारों लोगों में शामिल है जिनका कोई नाम तक नहीं जानता, और कई के तो चेहरे के बारे में भी नहीं पता.
दिप्रिंट की तरफ से विशेष रूप से हासिल किए गए पांच साल के दिल्ली पुलिस के आंकड़े बताते हैं कि 2018 से 2021 तक राष्ट्रीय राजधानी में रोजाना औसतन पांच से आठ अज्ञात शव पाए गए. हर साल पाए जाने वाले हजारों शवों में से केवल कुछ की ही पहचान हो पाती है.
दिल्ली पुलिस उपायुक्त (डीसीपी), जनसंपर्क, सुमन नलवा ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा कि सभी अज्ञात शव अपराध के शिकार नहीं होते हैं. मृत्यु के अन्य कारण आत्महत्या और दुर्घटनाओं से लेकर वृद्धावस्था और बीमारी तक होते हैं.
उन्होंने कहा, ‘दिल्ली में बहुत सारे प्रवासी और एक अस्थायी आबादी बसती है. देशभर से विविध पृष्ठभूमि के लोग विभिन्न कारणों—सामाजिक आर्थिक, व्यसन और मादक द्रव्यों के सेवन, अपराध, परिवार से मतभेद आदि—के कारण दिल्ली आते हैं. मौत के कारण अक्सर प्राकृतिक होते हैं, जैसे बीमारी, कुपोषण आदि.’
अज्ञात मृतकों का ज़िपनेट कैटलॉग आमतौर पर कुछ ब्योरा देता है—शरीर कहां और कब मिला, त्वचा का रंग कैसा था, क्या कपड़े पहने थे, कोई टैटू आदि पाया गया है, और कभी-कभी शरीर के आधार पर धर्म के बारे में भी जानकारी होती है. तस्वीरें केवल कुछ ही मामलों में लगाई जाती हैं.
हालांकि, कभी-कभी ये छोटा-मोटा ब्योरा ही दिल दहलाने के लिए काफी होता है, मसलन, पिछले महीने मिली एक नवजात लड़की मिली जिसका गर्भनाल उसके शरीर से अलग भी नहीं हुआ था. शास्त्री पार्क पुलिस ने इस मामले में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 318 (शव गुप्त तरीके से छिपाना) के तहत मामला दर्ज किया है.
अन्य उदाहरणों में सुराग कुछ इस तरीके होते हैं—जैसे जुलाई में आजाद मार्केट फ्लाईओवर के नीचे पाए गए एक व्यक्ति हाथ पर ‘रामू सीवान’ नाम का टैटू था और उसने नीली शर्ट, पतलून और बेल्ट पहन रखा था. लेकिन शायद ही कभी ऐसा होता है कि इनसे किसी व्यक्ति की पहचान हो पाए.
हर साल हजारों अनाम, लावारिस लाशें मिल रहीं
संख्या काफी ज्यादा है. दिप्रिंट द्वारा एक्सेस किए गए दिल्ली पुलिस के आंकड़ों से पता चलता है कि जनवरी 2018 और 31 जुलाई 2022 के बीच शहर में 11,000 से अधिक अज्ञात शव पाए गए. इनमें से 1,500 से भी कम की पहचान हो पाई है.
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2018 में 2,991 यूआईडीबी में से केवल 331 की पहचान हुई और 20 में हत्या के मामले दर्ज किए गए. 2019 में ऐसे 2,602 शव मिले, 278 की पहचान की गई, और 25 में हत्या के मामले दर्ज किए गए. 2020 और 2021 में क्रमशः 2,215 और 2,178 शव मिले, जिनमें से 310 और 346 की पहचान की गई. उन दोनों सालों में 14-14 मामलों में हत्या के केस दर्ज किए गए.
इस साल 31 जुलाई तक दिल्ली में 1,542 यूआईडीबी पाए गए. इनमें 219 की पहचान की गई और 12 को हत्या का मामला माना गया.
दिल्ली पुलिस के सूत्रों ने कहा कि जांच अधिकारी आमतौर पर आईपीसी की धारा 302 (हत्या) के तहत मामला दर्ज करते हैं यदि परिस्थितिजन्य और प्रथम दृष्टया सबूत हिंसक मौत की ओर इशारा करते हैं, यहां तक कि कभी-कभी शव परीक्षण रिपोर्ट आने से पहले भी मामला दर्ज कर लिया जाता है.
दिल्ली पुलिस के सूत्रों के मुताबिक, सबसे अधिक संख्या में अज्ञात शव रेलवे के अधिकार वाले क्षेत्र में और उत्तरी और मध्य दिल्ली में पाए गए.
अज्ञात शवों की संख्या काफी ज्यादा होने पर वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों का कहना है कि इसके लिए कई फैक्टर जिम्मेदार हैं, क्योंकि 2011 की जनगणना के मुताबिक 1.9 करोड़ आबादी वाले इस शहर में बड़ी संख्या में प्रवासी आते रहते हैं, जिनमें से कई गरीब और वंचित तबकों से होते हैं.
ये आबादी लंबे समय तक किसी भी स्थान पर टिककर नहीं रह सकती है या काम नहीं कर सकती. नतीजतन, कई लोगों का यहां शहर में किसी से करीबी रिश्ता नहीं बन पाता है और ऐसे में उनके लापता होने की स्थिति में किसी को पता भी नहीं चलता.
एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा, ‘दिल्ली एक बड़ी बेघर आबादी का ठिकाना है. उनमें से अधिकांश के पास कोई पहचान पत्र भी नहीं होता है. इसलिए, मृत्यु के बाद उनकी पहचान पता लगाना एक कठिन काम हो जाता है. हत्या के कई मामलों में आरोपियों की पहचान तो दूर, पीड़ित की पहचान का ही कोई सुराग मिलना मुश्किल होता है.’
फिर भी, पुलिस अज्ञात मृतकों की पहचान का प्रयास करने के लिए कई प्रक्रियाएं अपनाती है, जिसमें कभी-कभार सफलता भी हाथ लगती है.
अनाम लोगों का कैसे रखते हैं रिकॉर्ड
जब भी कोई अज्ञात शव मिलता है, तो पुलिस अपना काम शुरू कर देती है.
पहला कदम होता है क्षेत्र की घेरेबंदी और शरीर और स्थान के विभिन्न कोणों से अधिक से अधिक तस्वीरें लेना है. व्यक्ति के कद, वजन, त्वचा के रंग और अन्य शारीरिक चिह्नों जैसे बर्थमार्क, कोई कट, टैटू और कपड़ों आदि का ब्योरा लेकर उसे केस फाइल में शामिल किया जाता है.
इस स्तर पर सबसे बड़ी चुनौती तब पेश आती है जब शव बुरी तरह सड़-गल चुका हो या या फिर केवल शव के कुछ हिस्से पाए गए हों.
पुलिस टीम इसके बाद मौत के कारणों का पता लगाने के लिए अगर संभव हो तो सीसीटीवी फुटेज आदि खंगालती है और और संभावित गवाहों से पूछताछ कर जानकारी जुटाने की कोशिश करती है.
शव मेडिकल परीक्षण के लिए भेज दिया जाता है और डीएनए भी संरक्षित कर लिया जाता है, इस उम्मीद के साथ कि शायद भविष्य में किसी तरह उनकी पहचान हो पाए.
हालांकि, आधार बायोमेट्रिक डेटा आपराधिक जांच के लिए उपयोग नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह आधार अधिनियम की धारा 29 के तहत प्रतिबंधित है.
इस बीच, पुलिस स्टेशन जिपनेट पर प्रासंगिक डेटा अपलोड करते हैं और आसपास के क्षेत्रों और यहां तक कि अन्य राज्यों में दर्ज गुमशुदा लोगों के मामलों के साथ भी मृतक के विवरण को मिलाकर देखते हैं. कुछ मामलों में, जहां शव मिला, उसके आसपास के अस्पतालों (यदि कोई हो) के मरीजों के रिकॉर्ड की भी जांच की जाती है.
यूआईडीबी मामलों में पुलिस की जिम्मेदारियां बस यहीं खत्म नहीं होतीं.
डीसीपी नलवा ने कहा, ‘पुलिस के पास न केवल पीड़ितों की पहचान करने, बल्कि मौत के कारण का पता लगाने, शव को संरक्षित करने और दाह संस्कार के इंतजाम करने का भी कठिन जिम्मा होता है.’
जब कोई 72 घंटे तक शव का दावा नहीं करता है तो अमूमन अंतिम संस्कार की प्रक्रिया पुलिस कर्मियों को ही पूरी करनी पड़ती है. कुछ मामलों में, जब कुछ सुराग मिलने की कोई गुंजाइश नजर आती है तो पुलिस अतिरिक्त 72 घंटे तक प्रतीक्षा करती है.
‘अनट्रेसेबल’
अधिकांश मामलों में पीड़ितों को तभी या फिर थोड़े समय बाद ‘अनट्रेसेबल’, यानी उनके बारे में पता लगाना संभव न होने, की श्रेणी में डाल दिया जाता है.
जांच के तहत आए मामलों में, जिसमें आधिकारिक तौर पर मौत का कारण पता लग चुका होता है, इसके लिए कोई समय-सीमा नहीं है कि कब मामले को बंद किया जाएगा या उन्हें ‘अनट्रेसेबल’ की श्रेणी में रखा जाएगा.
जिन मामलों में आत्महत्या करने की पुष्टि हो जाती है, वहां अज्ञात शव को पहचान वाले ब्योरे के साथ अनट्रेसेबल श्रेणी में रखकर एक क्लोजर रिपोर्ट दायर कर दी जाती है.
हत्या के मामलों में जांच लंबी चलती है. एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘7-8 सालों के बाद ही कोई अनट्रेसेबल रिपोर्ट दर्ज की जाती है.’ साथ ही जोड़ा कि भविष्य में कभी भी सबूतों के आधार पर ऐसी फाइलों को फिर खोला जा सकता है.
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