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Friday, 1 November, 2024
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‘अन सोशल नेटवर्क’: क्यों सोशल मीडिया को अब संदेह भरी निगाहों से देखा जाने लगा है

सोशल मीडिया जिन आकांक्षाओं, उम्मीदों, संवाद को विस्तार और उसे अधिक लोकतांत्रिक बनाने के लक्ष्य से हमारे बीच आया अब वही नज़रिया एकदम बदलता नज़र आ रहा है.  

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सूचना के विभिन्न स्रोतों ने समय-समय पर मानव की स्मृति को विस्तार देने का काम किया है. इसी कड़ी में सोशल मीडिया या न्यू मीडिया एक विशेष भूमिका के साथ यूजर्स से संवाद स्थापित कर रहा है. लगभग एक दशक से भी ज्यादा उम्र होने के बाद सोशल मीडिया ने अपनी व्यापकता और पहुंच का लगातार विस्तार किया है और अब ये दुनियाभर में एक ऐसा उपकरण हो चुका है जिससे पीछा छुड़ाना बेहद मुश्किल बात लगती है.

सोशल मीडिया जिन आकांक्षाओं, उम्मीदों, संवाद को विस्तार और उसे अधिक लोकतांत्रिक बनाने के लक्ष्य से हमारे बीच आया अब वही नज़रिया एकदम बदलता नज़र आ रहा है. अब सोशल मीडिया को हरदम संदेह भरी निगाहों से देखा जाने लगा है. लोकतंत्र से इसके संबंध पर सवालिया निशान खड़े होने लगे हैं, संवाद की जिस दोतरफा उम्मीदों को इसने शुरुआत में जगाया था अब वही एकरस सी होने लगी है. यानि सोशल मीडिया के आने की जो खुशी दुनियाभर ने एक समय मनाई थी, वही अब कई देशों में मुसीबत का सबब बनने लगी हैं.

सोशल मीडिया की बढ़ती व्यापकता दुनियाभर के सामने कई चुनौतियां पेश कर रही हैं. इसमें राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक तौर से जुड़े मुद्दे शामिल हैं और यह अब तमाम क्षेत्रों में उथल-पुथल का कारण बनने लगी हैं.

सोशल मीडिया के कई पहलुओं और इसकी बनावट को समझाते हुए हाल ही में वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल और भारतीय सूचना सेवा की अधिकारी गीता यादव ने एक बेहद जरूरी विषय पर विस्तार से काम किया है और उसे एक किताब की शक्ल दी है. लेखक ने ‘अन सोशल नेटवर्क किताब के जरिए भारत के विशिष्ट संदर्भों में सोशल मीडिया का सम्यक आकलन किया है.

अन सोशल नेटवर्क किताब में दिलीप मंडल और गीता यादव ने सोशल मीडिया के किन-किन पहलुओं और उससे उभरते खतरों का संकेत दिया है, इस पर दिप्रिंट एक नज़र डाल रहा है.


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उम्मीद से लेकर आशंकाओं तक का सफर

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने बीते सालों में जिस तरह से अपना विस्तार किया है, इससे उसका प्रभाव निर्विवाद रूप से स्पष्ट होता है. लेकिन जब हम उसके अभी तक के अल्पकालीन सफर को याद करते हैं तो ये बाकी जनसंचार माध्यमों की तुलना में सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाला नजर आता है.

अखबार, टीवी, रेडियो जैसे माध्यमों के निश्चित दर्शक या पाठक हैं लेकिन सोशल मीडिया एक ही समय में दुनियाभर के करोड़ों लोगों को साथ जोड़ने की क्षमता रखता है, जो इसका सकारात्मक और नकारात्मक पहलू दोनों ही हैं और ये बात समय-समय पर साबित भी होती चली गई है.

दिलीप मंडल और गीता यादव ने किताब की शुरुआत में ही ये स्पष्ट किया है कि सोशल मीडिया तकनीक के तेजी से विकसित होने के साथ लगातार बदल रहा है. लेखक कहते हैं कि सोशल मीडिया की शुरुआत काफी उम्मीदों भरी रही लेकिन आगे चलकर इसने कई आशंकाएं पैदा कर दी हैं जो अब दुनियाभर के लिए चुनौती साबित हो रही है.

लेखक के अनुसार, ‘सोशल मीडिया का दायरा जैसे-जैसे बढ़ रहा है, वैसे-वैसे इसके अलग-अलग पहलू सामने आ रहे हैं. इन अन्तक्रियाओं के साथ ही सोशल मीडिया अपने असली तेवर में नजर आ रहा है जो न पूरी तरह सकारात्मक है और न ही पूरी तरह नकारात्मक. हालांकि अब उसकी नकारात्मकता की चर्चा कुछ ज्यादा ही हो रही है.’

‘सोशल मीडिया की छवि में आया क्रमिक बदलाव एक वैश्विक परिघटना है. जिस सोशल मीडिया की अरब क्रांति और म्यांमार में लोकतंत्र स्थापना आंदोलन के कारण सकारात्मक चर्चाएं हुआ करती थीं, उसे लेकर अब ज्यादातर चर्चाएं मिस इन्फॉर्मेशन, फेक न्यूज, डाटा चोरी, कंज्यूमर प्रोफाइलिंग और मॉब लिंचिंग की वजह से होती हैं.’

भारत में बीते सालों में सोशल मीडिया के जरिए फैलाई गई अफवाहों के कारण कई लोगों की मौत हो चुकी है. मॉब लिंचिंग के पीछे भी सोशल मीडिया एक बड़ा कारण बनकर उभरा है. हालांकि किताब में लेखक बताते हैं कि सोशल मीडिया के आने से पहले भी अफवाह फैलती थीं लेकिन अब इसे कहीं बड़े स्तर पर किया जा सकता है.


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एक जैसे लोगों से घिरे हम

लेखक ने सोशल मीडिया में कंटेंट किस तरह से वायरल होता है और उसके पीछे क्या समाजशास्त्र काम करता है, इसे कई उदाहरणों के जरिए बताया है. वो कहते हैं, ‘सोशल मीडिया पर ज्यादातर लोग भीड़ के साथ खड़े होना पसंद करते हैं और जहां ऐसी भीड़ बनती नजर आती है, उसकी बड़ी भीड़ बन जाने की संभावना ज्यादा होती है. यह भीड़ अगर अपने जैसे लोगों से बनी है तो ऐसी स्थिति में लोग उस कंटेंट को वायरल कराने में अपने आप जुट जाते हैं.’

इस बात का दावा नहीं किया जा सकता कि वायरल कंटेंट के जरिए हमेशा सच बात ही फैलाई जा रही हो, अक्सर गलत बातों को भी ट्रेंड कराके अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाया जाता है. इसे एजेंडा सेटिंग के तौर पर देखा जाता है. हालांकि इसी क्रम में सोशल मीडिया का एक जरूरी पहलू ध्यान में आता है, वो है- इसका एको चेंबर की तरह बर्ताव करना.

कई समाजशास्त्रियों और तकनीक के विशेषज्ञ ये बात कह चुके हैं कि सोशल मीडिया जिस लोकतांत्रिक स्पेस को बनाने के लक्ष्य के साथ आया था वो अब एको चेंबर में तब्दील हो गया है. इसे अपने अनुभव से भी समझा जा सकता है.

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एल्गोरिद्म पर काम करते हैं और यूजर्स जिस तरह की पोस्ट लाइक या शेयर करते हैं, उसी तरह के दूसरे लोगों के साथ वो उन्हें जोड़ता है. यानि एक जैसी सोच वाले लोगों को सोशल मीडिया मिलाता है जिससे एक ही तरह के विचार को मजबूती मिलती है.

सोशल मीडिया के एको चेंबर बनते चले जाने के पहलू को लेखक ने किताब में विस्तार से बताया है और लोकतंत्र के लिए इसके खतरों की निशानदेही भी की है.

सोशल मीडिया के जमाने में आपसी रिश्ते किस कदर बदल रहे हैं और कैसे पारंपरिक मीडिया की ही तरह दलितों, आदिवासियों और जेंडर से जुड़े मुद्दे दरकिनार किए जा रहे हैं, और पहले से वर्चस्वशाली समुदाय ही सोशल मीडिया पर कैसे अपना प्रभाव बनाए हुए हैं, इसे बेहतर ढंग से किताब में समझाया गया है.


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फेक न्यूज और नेताओं का सोशल मीडिया संसार

जॉर्ज ऑरवेल ने कहा था, ‘लोगों को बर्बाद करने का सबसे कारगर तरीका उनके इतिहास की अपनी समझ को नकारना और मिटा देना है.’ वर्तमान समय में सोशल मीडिया ने ऑरवेल की बात को सच साबित कर दिया है. जिस तरह से गलत सूचनाओं का एक संसार सोशल मीडिया के जरिए खड़ा हुआ है और अलग-अलग हितों को साधने के लिए ऐसा किया जा रहा है, इससे न केवल नागरिकता का बोध समाप्त हो रहा है बल्कि इससे लोकतंत्र, विचार और बोध विहीन भी हो रहा है.

दुनियाभर की तरह ही भारत में भी फेक न्यूज एक चुनौती के तौर पर उभरा है. फेक न्यूज को जांचने के लिए कई प्लेटफॉर्म्स तक बन गए हैं लेकिन गलत सूचनाओं के फैलने का प्रवाह इतना तेज है कि लोगों तक सच्चाई पहुंचाना मुश्किल बनता जा रहा है.

लेखक ने किताब में सोशल मीडिया के जरिए फैल रही फेक न्यूज का जिक्र किया है लेकिन इसे समग्रता के साथ नहीं बताया गया है. भारत के ही कई उदाहरणों के जरिए इसे बताया जा सकता था.

हालांकि इससे इतर भारत के दो बड़े दल के दो नेताओं के सोशल मीडिया के संसार का विश्लेषण करना इस किताब को दिलचस्प बनाता है. हालांकि लेखक खुद मानते हैं कि इस विषय पर और काम किया जा सकता है.


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सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर बनना क्या इतना आसान है?

लेखक बताते हैं कि ऑफलाइन तौर पर लोकप्रिय लोग अगर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर आते हैं तो उन्हें यहां बड़ी जल्दी पहचान मिल जाती है लेकिन बाकी लोगों के लिए यहां अपनी पहचान बनाना आसान काम नहीं है.

लोगों को अलग पहचान देने के लिए सोशल मीडिया पर ब्लू टिक कार्यक्रम चलाया जाता है. लेखक ब्लू टिक वेरिफिकेशन की प्रक्रिया में हो रही गड़बड़ी को भी किताब में शामिल करते हैं और बताते हैं कि बिना नियम तय किए हुए ये कैसे लोगों के साथ भेदभाव करने जैसा है.

हालांकि लेखक दिलीप मंडल खुद फेसबुक और ट्विटर पर काफी प्रभावी हैं इसलिए वो किताब के अंत में यूजर्स को सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर बनने के लिए 20 सूत्र बताते हैं. इसमें उन्होंने मुख्य जोर कंटेंट की भाषा और विश्वसनीयता पर दिया है.

सोशल मीडिया तेजी से बदल रहा है. इसलिए इसके इतने अल्पकालीन सफर पर पूरी समग्रता के साथ कुछ कह पाना अभी मुश्किल है. अंग्रेज़ी में इस विषय पर लगातार शोध और किताब लिखी जा रही हैं लेकिन हिंदी में इस पर काफी कम काम हुआ है. इस नजरिए से दिलीप मंडल और गीता यादव की किताब ‘अन सोशल नेटवर्क ‘ हिंदी पट्टी के पाठकों के बीच सोशल मीडिया से उभरती आशंकाओं, उम्मीदों और इसकी जटिलताओं को समझने के लिए एक शुरुआती किताब है.

हालांकि सिर्फ इसी किताब से इस विषय पर पूरी समझ नहीं बनाई जा सकती है लेकिन बुनियादी समझ जरूर बन सकती है.

लेखक ने हिंदी पाठकों से संवाद के लिए कई सामान्य उदाहरणों का जिक्र किया है, किताब में तथ्यात्मक बातों और आंकड़ों की काफी कमी है और बेहतर शोध के जरिए इसे एक समग्र किताब के तौर पर प्रस्तुत किया जा सकता था. फिर भी सोशल मीडिया के अध्येताओं, मीडिया जगत के लोगों और यूजर्स के लिए ये एक उपयोगी किताब साबित हो सकती है.

(दिलीप मंडल और गीता यादव की किताब ‘अन सोशल नेटवर्क ‘ को राजकमल प्रकाशन ने छापा है)


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