नई दिल्ली: 44 वर्षीय मोहम्मद रईसुद्दीन की एक नियमित दिनचर्या थी, कि वो हर वीकएंड पर महाराष्ट्र के परभणी ज़िले में अपने गृहनगर में दोस्तों से मिलकर बहुत से मुद्दों पर चर्चा करता था, जिनमें इस्लाम को ‘ख़तरा’ भी शामिल था.
यही वो बातचीत थी जिसके नतीजे में छह साल पहले राज्य सरकार के प्राइमरी स्कूल टीचर पर ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियां (रोकथाम) एक्ट या यूएपीए के अंतर्गत आतंकवाद विरोधी आरोप जड़ दिए गए.
केस का ताल्लुक़ अगस्त 2016 से है जब रईसुद्दीन को गिरफ्तार किया गया था और महाराष्ट्र के आतंकवाद विरोधी दस्ते (एटीएस) ने उसपर आतंकी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाया था. बाद में इस केस को एक केंद्रीय आतंकवाद विरोधी कार्य बल, राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) के हवाले कर दिया गया.
इस मामले में तीन और व्यक्ति सह-अभियुक्त थे- नासिर बिन अबूबकर यफाई, और मोहम्मद शाहिद ख़ान जिन्होंने अपना जुर्म क़बूल कर लिया और जिन्हें इस साल मई में सज़ा सुनाई गई और इक़बाल अहमद जिसे अगस्त 2021 में एचसी से ज़मानत मिल गई थी.
इस बीच रईसुद्दीन क़रीब छह साल तक जेल में बंद रहा, जब तक कि बॉम्बे हाईकोर्ट ने 27 जून को उसे ये कहते हुए ज़मानत नहीं दे दी, कि इस स्टेज पर ‘पहली नज़र में उसके खिलाफ मामला नहीं बनता’.
इतने सालों में रईसुद्दीन केस की सुनवाई मुश्किल से ही आगे बढ़ी है. 550 गवाहों में एक से भी जिरह नहीं की गई, इसलिए 37 पन्नों के अपने ज़मानत आदेश में हाईकोर्ट ने कहा, कि ऐसी संभावना नज़र नहीं आती कि ये सुनवाई एक उचित समय सीमा में पूरी हो पाएगी.
न्यायमूर्तियों वीजी बिष्ट और रेवती मोहिते देरे ने अपने ज़मानत आदेश में कहा, ‘हमने बहुत नज़दीकी और बारीकी से अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयान पढ़े हैं …अपीलकर्ता-आरोपी के खिलाफ जांच एजेंसी द्वारा एकत्र और हमारे सामने पेश की गई कुल सामग्री, पहली नज़र में पूर्वोक्त अपराधों में अपीलकर्ता-आरोपी की संलिप्तता की ओर इशारा नहीं करती’.
रईसुद्दीन मामले में अपने आदेश में, हाईकोर्ट ने दरअसल उसके खिलाफ पेश किए गए हर सबूत को ख़ारिज कर दिया है, जिनमें इस्लामिक स्टेट (आएस) के प्रति निष्ठा की एक शपथ भी शामिल है, जिसे ‘फंसाने वाली’ नेचर का नहीं माना गया.
मंगलवार को एचसी ने मूल ज़मानत आदेश के अपने निर्देशों में से एक में संशोधन किया, जिसमें रईसुद्दीन को ग्रेटर मुम्बई के अधिकार-क्षेत्र से बाहर निकलने की अनुमति नहीं दी गई.
दिप्रिंट से बात करते हुए, रईसुद्दीन के वकील अब्दुल रहीम बुख़ारी ने कहा: ‘गिरफ्तारी के बाद उसे निलंबित कर दिया गया था, और उसे आधी तनख़्वाह मिल रही थी. अब वो 75 प्रतिशत वेतन का हक़दार होगा, और पूरा 100 प्रतिशत वेतन उसे तब मिलेगा जब वो बरी हो जाएगा’.
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रईसुद्दीन के खिलाफ क्या आरोप हैं?
बुख़ारी ने दिप्रिंट को बताया कि उनके मुवक्किल के खिलाफ मुख्य आरोप ये था, कि अपने गृह नगर में वो एक ऐसे समूह का हिस्सा था, जो मुसलमानों को पेश आ रही समस्याओं पर चर्चा करता था. उसपर ये भी आरोप था कि उसके आतंकी संगठन आईएस के साथ रिश्ते थे.
बुख़ारी ने कहा, ‘रईसुद्दीन जिस स्कूल में काम करता है वो हिंगोली ज़िले में है, जो उसके घर से 50 किलोमीटर दूर है. इसलिए वो हर वीकएंड पर परभणी जाया करता (जहां वो चर्चा में हिस्सा लेता था)’. उन्होंने आगे कहा कि उनका मुवक्किल एक ‘सम्मानित’ पृष्ठभूमि से है. उसके दो भाई डॉक्टर हैं, दो फार्मासिस्ट हैं, और तीन बहनें सरकारी स्कूल टीचर हैं.
रईसुद्दीन को 12 अगस्त 2016 को गिरफ्तार किया गया, जिससे एक महीना पहले महाराष्ट्र एटीएस ने परभणी से उसके दो और कथित साथियों- नासिर बिन अबूबकर सफाई और मोहम्मद शाहिद ख़ान को हिरासत में ले लिया था.
यफाई और ख़ान पर प्रतिबंधित आतंकी संगठन आईएस के सदस्यों के संपर्क में होने का आरोप लगाया गया था.
अभियोजन के अनुसार, दोनों लोगों ने रईसुद्दीन और एक दूसरे सह-अभियुक्त इक़बाल अहमद की मदद से विस्फोटक तैयार किए. अहमद के घर से एक बिजली का स्विचबोर्ड बरामद हुआ था, जिसपर कथित रूप से एक आईईडी जोड़ी गई थी, और आईएस ‘ख़लीफा’ के प्रति बैयत या निष्ठा की शपथ भी थी, जिसे कथित रूप से रईसुद्दीन ने लिखकर दस्तख़त किए थे.
सुनवाई के दौरान यफाई और ख़ान ने अपना जुर्म स्वीकार कर लिया, और उन्हें सात साल के कठोर कारावास की सज़ा सुनाई गई, जिनमें से छह साल वो पहले ही पूरे कर चुके हैं.
रईसुद्दीन ने 2018 में एनआईए विशेष अदालत के सामने ज़मानत की अर्ज़ी दी, और उसका कहना था कि उसके खिलाफ लगाए गए आरोप पहली नज़र में झूठे थे, लेकिन 31 जनवरी 2019 को अदालत ने उसे ख़ारिज कर दिया.
उसने फिर हाईकोर्ट से गुहार लगाई जहां उसके वकील ने दलील दी, कि ऐसे कोई ठोस, वैध, और स्वीकार्य साक्ष्य नहीं थे जो उसे कथित अपराध से जोड़ते हों. उन्होंने दलील दी कि गवाहों के बयानात सिर्फ ये इशारा करते हैं, कि अभियुक्त और उनके बीच सिर्फ बातचीत होती थी, इससो ज़्यादा कुछ नहीं था’.
कोविड लॉकडाउन के चलते रईसुद्दीन की याचिका आगे नहीं बढ़ सकी, लेकिन उसके सह-अभियुक्त अहमद को अगस्त 2021 में एचसी से ज़मानत मिल गई. इस साल फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने इस ज़मानत आदेश के खिलाफ एनआईए की अपील को ख़ारिज कर दिया.
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‘इस्लाम को ख़तरे’ पर ‘सिर्फ बातचीत’
यूएपीए के अंतर्गत ज़मानत तभी दी जा सकती है जब जज संतुष्ट हो कि ऐसा मानने के कोई उचित आधार नहीं हैं कि अभियुक्त पर लगाए गए आरोप पहली नज़र में सही हैं. ऐसा कड़ा प्रावधान किसी भी यूएपीए अभियुक्त के लिए ज़मानत हासिल करना तक़रीबन नामुमकिन बना देता है.
रईसुद्दीन के मामले में एचसी ने पांच गवाहों के बयानात की जांच की, जिन्हें अभियोजन पक्ष ने पेश किया था और जो उसके अनुसार अभियुक्त की संलिप्तता की ओर इशारा करते थे.
सभी गवाहों ने डिनर के बाद होने वाली अपनी चर्चाओं को याद किया, और स्वीकार किया कि वो बातचीत मुसलमानों की चिंताओं के इर्द-गिर्द रहती थी. उन्होंने स्वीकार किया कभी कभी वो आईएस पर भी चर्चा करते थे.
उनमें से एक ने एक व्हाट्सएप ग्रुप के बारे में भी बताया, जिस पर मज़हब और क़ुरआन के बारे में बातचीत की जाती थी. लेकिन, एनआईए ने इन चैट्स को कभी कोर्ट के सामने पेश नहीं किया.
गवाहों और रईसुद्दीन के बीच हुई बातचीत की नेचर के बारे में कोर्ट का विचार था, कि वो ‘इस्लाम को पेश ख़तरे पर सामान्य चर्चाएं थीं, जो वास्तविक, महसूस किया गया, या काल्पनिक हो सकता था’.
कोर्ट का कहना था कि ऐसी कोई सामग्री नहीं थी, जिससे संकेत मिलता हो कि अभियुक्त ने किसी अपराध या विद्रोह की गतिविधि को उकसाया था, या किसी हिंसा की वकालत की थी.
कोर्ट का कहना था, ‘दिए गए बयानात को पढ़ने से इस वाजिब निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है, कि ज़्यादा से ज़्यादा, जो कुछ भी हुआ वो महज़ बातचीत थी कि भारत और दुनिया में क्या हो रहा था, और हर किसी को इस्लाम के लिए काम करना चाहिए’.
शपथ केवल ‘स्वीकृति’ है, फंसाने वाली नहीं है
एक अहम दस्तावेज़ी सबूत जिसका इस मामले में अभियोजन पक्ष ने सहारा लिया, वो एक बैयत या निष्ठा की शपथ है, जिसे कथित रूप से रईसुद्दीन ने लिखकर दस्तख़त किए हैं. शपथ के अंग्रेज़ी अनुवाद से पता चलता है कि ये आतंकी लीडर अबू बक्र अल-बग़दादी को ‘मुसलमानों के ख़लीफा’ के तौर पर स्वीकार करने की घोषणा है.
एचसी का मानना था कि ये शपथ ‘ज़्यादा से ज़्यादा किसी को मुसलमानों का ख़लीफा मानने का ऐलान नज़र आती है’.
उसने ये भी कहा कि इस बात पर राय बंटी हुई थी, कि रईसुद्दीन ने उस शपथ को लिखा था कि नहीं. हैदराबाद की सेंट्रल फॉरेंसिक साइंस लैबोरेट्री की एक फॉरेंसिक रिपोर्ट ने इस मुद्दे पर कोई अंतिम राय नहीं दी, जबकि पुणे लैब ने कहा कि वो रईसुद्दीन की लिखावट थी.
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