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Wednesday, 20 November, 2024
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लंबासिंगी को दक्षिण भारत के कश्मीर के रूप में बेचा जाता है, लेकिन सैलानियों से ऊब चुके हैं स्थानीय आदिवासी

गांववासियों को उम्मीद थी कि पर्यटन रोज़गार के बेहतर अवसर लेकर आएगा. लेकिन पर्यटकों की सेवा में लगे अधिकतर व्यवसायों में उन्हें नहीं रखा जाता.

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अठ्ठाईस वर्षीय किसान कंथम्मा को सर्दियां आने का डर सताने लगता है. जैसे ही तापमान में गिरावट आती है आंध्र प्रदेश के पूर्वी घाट पर छोटे से आदिवासी गांव लंबासिंगी सैलानी में सैलानियों की आमद शुरू हो जाती है, जिसे अकसर दक्षिण भारत का कश्मीर कहा जाता है. लेकिन वो सैलानी अपने पीछे छोड़ जाते हैं शहरी जीवन का मलबा.

कंथम्मा का हरा भरा खेत प्लास्टिक कचरे, शराब की बोतलों, और फेंके गए भोजन से भरा पड़ा है. रात में झींगुरों की चहचहाहट मौजियों द्वारा के बजाए ज़ोरदार संगीत के शोर में डूब जाती है. कंथम्मा कहती है, ‘अक्तूबर से जनवरी तक, मेरा सुबह का समय सैलानियों द्वारा नष्ट की गई फसलों का जायज़ा लेने, और प्लास्टिक, फेंका हुआ खाना, और दूसरा कचरा साफ करने में गुज़र जाता है. कंथम्मा को उस दिन का पछतावा है जब देश के बाक़ी हिस्से ने, वाइज़ाग शहर से बमुश्किल 130 किलोमीटर दूर उनके गांव की ‘खोज’ की थी.

छोटा सा गांव दिसंबर 2012 में तब सुर्ख़ियों में आया, जब वहां शून्य डिग्री सेल्सियस तक का तापमान दर्ज किया गया. समुद्र तल से क़रीब 1,025 की ऊंचाई पर स्थित लंबासिंगी या लम्मासिंगी में, दक्षिण भारत के दूसरे हिल स्टेशनों के मुकाबले सबसे कम तापमान दर्ज किया जाता है, जो सर्दियों में 2 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है. ये गांव पहाड़ों घने हरे जंगलों से घिरा है जो सर्दियों की धुंध में जादुई छटा बिखेरते हैं.

जहां सर्दियां एक बुरा सपना हैं

Signboards pointing to camp sites in Lambasingi which lie abandoned through out the year, except winter | Rishika Sadam | ThePrint
लंबासिंगी में शिविर स्थलों की ओर इशारा करने वाले साइनबोर्ड, जो सर्दियों को छोड़कर, पूरे वर्ष छोड़ दिए जाते हैं | रिशिका सदम | दिप्रिंट

जैसे जैसे ‘विकास’ से अछूती इसकी सुंदरता की चर्चा चारों ओर फैली, ज़्यादा से ज़्यादा लोग लंबासिंगी आने लगे. पिछले 10 वर्षों में यहां आने वाले पर्यटकों की मुठ्ठीभर संख्या उछलकर सर्दियों में 4,000 प्रति सप्ताह तक पहुंच गई. लेकिन आने वालों में जागरूकता के अभाव और ख़राब इनफ्रास्ट्रक्चर तथा पाइपलाइनों ने मिलकर, यहां रहने वाले 680 लोगों के लिए सर्दियों को एक बुरे सपने में तब्दील कर दिया है.

हालांकि इसे समझना उतना आसान नहीं है. व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए आदिवासी ज़मीनों के इस्तेमाल ने हालात को और बिगाड़ दिया है. ये स्वीकार करते हुए कि अनियंत्रित पर्यटन एक समस्या है, सरकारी अधिकारियों का कहना है कि आदिवासी लोगों ने ये समस्या अपने लिए ख़ुद पैदा की है, क्योंकि उन्होंने निजी उद्यमियों के साथ अवैध अनुबंध कर लिए हैं.

गांववालों के लिए, जिनमें से अधिकांश का संबंध कोण्ड और बगाता जनजातियों से है, पर्यटकों का तांता तेज़ी से तरक़्क़ी से ज़्यादा शाप लेकर आया है.

कॉफी की खेती करने वाले 30 वर्षीय बालकृष्णन ज़ोर देकर कहते हैं, कि गांववासी पर्यटन के खिलाफ नहीं हैं. वो कहते हैं, ‘हम केवल ये चाहते हैं कि यहां आने वाले पर्यटक हमारे तौर-तरीक़ों का सम्मान करें, हमारे गांव को साफ रखें, और हमारी फसलों को तबाह न करें’. लेकिन, सैलानियों का उनकी फसलों के ऊपर से होकर गुज़रना, या रात में अपनी बाइक्स दौड़ाना आए दिन की समस्या है.

एक अन्य किसान मुलवालु राजा राव को भी यक़ीन है कि उनकी 20 में से 3 गायों की मौत फेंका गया प्लास्टिक खाने से हुई. लेकिन, सर्दियों में कचरे से भरे खेतों में उन्हें चराने के अलावा राव के पास कोई रास्ता नहीं है.

महिलाओं को भी अपनी सुरक्षा का डर सताने लगा है.

लोग उनके खेतों में कैंप लगा लेते हैं, इसलिए उन्हें रात में घर से निकलते हुए डर लगता है. कंथम्मा कहती हैं, ‘जब हमें शौचालय का इस्तेमाल करना होता है (जो आमतौर से उनके घरों के बाहर होते हैं), या खुले में शौच करना होता है तो परिवार के किसी मर्द को हमारे साथ आना पड़ता है. शराबी पर्यटकों से बचने के लिए हम में से अधिकतर महिलाएं घरों के अंदर रहना पसंद करती हैं’.

रातें असहनीय हो गई हैं. ज़्यादातर गांववासी शाम 7.30 बजे तक सोने लेट जाते हैं, लेकिन सर्दियों में मौजी लोग उन्हें देर तक जगाए रखते हैं. उन्होंने आगे कहा, ‘वो आधी रात में भी ज़ोर ज़ोर संगीत बजाते हैं, और शराब पीकर नाचते हैं’.


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प्लास्टिक से लड़ाई

हालांकि एक पर्यटन स्थल और सप्ताहांत पलायन के तौर पर लंबासिंगी की लोकप्रियता जैविक रूप से बढ़ी, लेकिन स्थानीय अधिकारियों ने आवश्यक बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने, या आने वालों के बीच जागरूकता फैलाने के लिए कुछ नहीं किया है. पर्यावरणविद सोहन हतंगड़ी के अनुसार, 2017 में सरकार ने कुछ प्रचार विज्ञापन भी निकाले थे.

बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए जगह जगह भोजनालय और कैम्पिंग स्थल नज़र आने लगे हैं, लेकिन उनमें से अधिकतर बहुत बुनियादी हैं और केवल सर्दियों में सक्रिय होते हैं. इसके अलावा अस्थाई रूप से छोड़े गए ढांचों पर कम से कम 20 साइनबोर्ड्स देखे जा सकते हैं, जो कभी प्राचीन रहे इस गांव में आंखों में खटकते हैं.

सबसे बड़ा शाप है प्लास्टिक जिसकी मौजूदगी आपको यहां पहुंचने से पहले ही महसूस होने लगती है. लंबासिंगी के सात किलोमीटर लंबे टुकड़े पर प्लास्टिक फैला हुआ है. जंक्शन पर, जहां एक साइनबोर्ड से पता चलता है कि आप लंबासिंगी पहुंच गए हैं, फेंके गए प्लास्टिक के ढेर देखे जा सकते हैं.

हतंगड़ी इसके लिए स्थानीय सरकार को ज़िम्मेवार ठहराते हैं कि वो प्लास्टिक प्रतिबंध को लागू करने, या ईके-टूरिज़्म को प्रोत्साहित करने की रूपरेखा तैयार करने तक में नाकाम रही है.

मार्च 2022 के एक आंतरिक नोट में परियोजना अधिकारी और ज़िला कलेक्टर कार्यालय इलाक़े में प्लास्टिक के बढ़े इस्तेमाल को मान गए, और उन्होंने इस पर पाबंदी की मांग की. उसी के अनुरूप मंडल और ग्राम स्तर की टीमों को निर्देश जारी किए गए. हतंगड़ी ने कहा, ‘आप केवल एक नोट जारी करके ये नहीं कह सकते कि प्लास्टिक पर पाबंदी लगनी चाहिए, या कोई रैली निकाल लें. उससे फायदा नहीं होगा’. प्लास्टिक इस्तेमाल में बढ़ोतरी का कारण वो पहाड़ी क्षेत्रों में स्थानीय बाज़ारों की बढ़ती प्रवृत्ति को बताते हैं.

उन्हें डर है कि लंबासिंगी अगली अराकू घाटी बन सकता है, उसी ज़िले का एक दूसरा पर्यटन स्थल जो बड़े पैमाने पर व्यावसायीकरण और पर्यावरण प्रदूषण की समस्या से जूझ रहा है.

व्यवसाय में तेज़ी, लेकिन निवासियों को कोई फायदा नहीं

समस्या इससे और बढ़ जाती है कि सर्दियों के महीनों में बहुत से आदिवासी अपनी उपजाऊ ज़मीनें अवैध रूप से निजी व्यवसाइयों को पट्टे पर दे देते हैं. इससे 1970 के आंध्र प्रदेश भूमि हस्तांतरण विनियमन अधिनियम 1 का सीधा उल्लंघन होता है, जो आदिवासी ज़मीनों को ग़ैर-आदिवासियों को हस्तांतरित रखने पर नज़र रखता है. इस क़ानून के अंतर्गत आदिवासियों और ग़ैर-आदिवासियों के बीच किसी भी प्रकार के भूमि सौदे, और ज़मीन को पट्टे पर देने पर प्रतिबंध शामिल है. इसके पीछे मंशा ये है कि आदिवासी लोगों को बाहरी लोगों के हाथों शोषण से बचाया जाए.

एक अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘ये सभी लोग जो यहां कारोबार करते हैं, आदिवासी लोगों की पूर्व-स्वीकृति से ही आते हैं. आदिवासी इसलिए राज़ी हो जाते हैं कि कृषि में इस्तेमाल करने की बजाय, उन्हें अपनी ज़मीन को व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए पट्टे पर देने में ज़्यादा मुनाफा नज़र आता है’. समन्वित जनजाति विकास परियोजना एजेंसी का कहना है, कि वो एलटीआर शिकायतों की जांच कर रही है.

गांववासियों ने रोज़गार के बेहतर अवसरों की उम्मीद की होगी, लेकिन पर्यटकों की सेवा में लगे अधिकतर व्यवसायों में उन्हें काम पर नहीं रखा जाता. बढ़ते पर्यटन से गांव के व्यवसाय में ख़ूब तेज़ी आई, लेकिन वो मुख्य रूप से बाहरियों के लिए थी. गांव के एक निवासी चेती शंकर राव ने कहा, ‘उन्हें लगता है कि हम वो भोजन नहीं बना सकते जिसकी सैलानियों को ज़रूरत होती है, और हमारे पास आतिथ्य क्षेत्र में काम करने का कौशल नहीं है’. ज़्यादा से ज़्यादा, गांव वासियों को सफाई के काम पर रख लिया जाता है.

वाइज़ाग के सरकारी केमिकल इंजीनियरिंग संस्थान के एक पूर्व लेक्चरर राव, लंबासिंगी वापस आ गए हैं और एक एडवेंचर कैंप चलाते हैं. इस सुविधा को चलाने के लिए वो 20 स्थानीय युवकों को काम पर रखते हैं.

संपर्क किए जाने पर सरकार ने दावा किया कि इन समस्याओं से निपटने के उपाय किए जा रहे हैं. समन्वित जनजाति विकास परियोजना एजेंसी के परियोजना अधिकारी (पदेरू डिवीज़न) गोपाल कृष्ण का कहना था, ‘राजस्व साझा करने के विकल्प पर बातचीत करने के लिए निजी होटल प्रबंधन के साथ बैठकें की जा रही हैं. बाहरी लोगों द्वारा पहाड़ी क्षेत्र में प्लास्टिक लाने पर नज़र रखने के लिए चेक नाके स्थापित किए जाएंगे, और हम प्लास्टिक क्रशिंग मशीनें ख़रीदने की भी योजना बना रहे हैं’.

बहुत से आदिवासी लोग इससे संतुष्ट नहीं हैं और स्थिति के इस हद तक बिगड़ने देने के लिए सरकार को ज़िम्मेवार मानते हैं. वो पूछते हैं कि इतने सालों से अधिकारी लोग क्या कर रहे थे.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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