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Monday, 23 December, 2024
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भारतीय कोविड वैक्सीन विकसित करने के लिए, इस कारण हो रहा है नवजात पशुओं के ख़ून का प्रयोग

वैक्सीन के विकास जैसी बायोलॉजिकल रिसर्च में, नवजात पशु का ब्लड सिरम एक प्रमुख घटक है, जो आयात के लिए व्यापक रूप से उपलब्ध है.

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नई दिल्ली: इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च और भारत बायोटेक की ओर से, उनके द्वारा विकसित की जा रही, कोविड-19 वैक्सीन कोवैक्सिन के बारे में, हाल ही में जारी एक रिसर्च पेपर में, वैज्ञानिकों ने उल्लेख किया है, कि इसमें इस्तेमाल हो रहा एक प्रमुख घटक, नवजात पशु से लिया गया ब्लड सिरम है.

ये घटक कोविड वैक्सीन में पहली बार इस्तेमाल नहीं हो रहा है; नवजात पशु से लिया गया ब्लड सिरम, बायोल़जिकल रिसर्च का एक ज़रूरी हिस्सा होता है, और आमतौर से दूसरे देशों से आयात होता है.

हालांकि अब इसके कुछ कृत्रिम विकल्प भी उपलब्ध हैं, लेकिन पशु सिरम उत्पादों की व्यापक उपलब्धता ने, इसे कोविड वैक्सीन के विकास की प्रक्रिया का, एक प्रमुख हिस्सा बना दिया है. दिप्रिंट समझाता है कि कैसे.


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नवजात पशु के रक्त के इस्तेमाल का विज्ञान

कोवैक्सिन निष्क्रिय किए गए वैक्सीन्स की श्रेणी में आती है, जिसमें पैथोजंस को निष्क्रिय कर दिया जाता है, ताकि ये संक्रमण न फैला सकें. लेकिन फिर भी शरीर का इम्यून सिस्टम, वायरस के कुछ हिस्सों को पहचान सकता है, जिससे एक प्रतिक्रिया चालू हो जाती है.

वैक्सीन तैयार करने के लिए, लैब में वेरो सीसीएल-81 सेल्स विकसित किए जाते हैं- जो एक सामान्य वयस्क अफ्रीकी ग्रीन मंकी के, गुर्दों से लिए गए सेल्स होते हैं. इस सेल्स को फिर नियंत्रित परिस्थितियों में, बायोरिएक्टर्स के अंदर सार्स-सीओवी-2 वायरस के सामने लाया जाता है. क़रीब 36 घंटे के बाद इस वायरस को निकालकर, निष्क्रिय कर दिया जाता है.

निष्क्रिय किए गए वायरस को, कुछ गुणवर्धक औषधियों के साथ मिलाया जाता है- ऐसे पदार्थ जो इम्यून रेस्पॉन्स को बढ़ाते हैं. कोवैक्सिन के मामले में ये औषधियां फिटकिरी, और इमीडैज़ोकुईनोलीन कहा जाने वाला एक मॉलीक्यूल होता है, जो वायरसों से आरएनए की बेहतर पहचान करने में, शरीर की सहायता करता है.

लैब में सेल्स विकसित करने के लिए, वैज्ञानिकों को ऐसी परिस्थितियां पैदा करनी पड़ती हैं, जिनमें सेल्स बंटकर ऐसे विशिष्ट सेल्स का रूप ले लें, जो उनके प्रयोगों के लिए चाहिए होता है.

कोवैक्सिन के लिए वैज्ञानिकों ने नवजात बछड़े के 5-10 प्रतिशत सिरम के साथ, डलबेको का मॉडिफाइड ईगल मीडियम (डीएमईएम) इस्तेमाल किया. डीएमईएम में कई ज़रूरी पोषक होते हैं, जो सेल को बांटने के लिए आवश्यक होते हैं.

लेकिन, अलग अलग तरह के सेल्स को सक्रिय करने के लिए, बहुकोशिकीय जीवों के सेल्स को, बटवारे के लिए पोषकों पर निर्भर रहने के अलावा, कुछ अन्य स्पेशल मॉलिक्यूल्स की ज़रूरत होती है, जिन्हें ‘ग्रोथ फैक्टर्स’ कहा जाता है. सेल्स के अंदर रिसेप्टर्स होते हैं, जो अलग अलग ग्रोथ फैक्टर्स को रेस्पांड करते हैं. इन ग्रोथ फैक्टर्स को नियमित करके, वैज्ञानिक ये नियंत्रित कर सकते हैं, कि किस तरह के सेल विकसित होंगे.

वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के, सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलिकुलर बायोल़जी की एक वैज्ञानिक, वी राधा ने दिप्रिंट को समझाया, ‘विकास का विनियमन अगर केवल पोषकों पर आधारित होता, तो हमारे पास एक जैसे सेल्स से भरा बैग होता. कोई विभेदन या विशेष कार्य न होते’.

उन्होंने बताया, ‘किसी भ्रूण के विशेष क्षेत्र में, ग्रोथ को रोकने या बढ़ाने के लिए, प्रकृति ने एक संकेत झरना क़ायम किया है, और ये कंट्रोल मॉलिक्यूल्स के एक सेट पर निर्भर होता है, जिन्हें ग्रोथ फैक्टर्स कहते हैं’.

बहुकोशिकीय जीवों के इस पहलू को समझने में बहुत साल लग गए, और पिछले 70 सालों में ही वैज्ञानिक, शरीर के बाहर सेल्स विकसित करना शुरू कर पाए.


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नैतिक दुविधाओं ने वैज्ञानिकों को नवजात बछड़ों पर शिफ्ट कराया

वैज्ञानिकों ने गाय के भ्रूण से निकाले गए सिरम का, व्यापक रूप से इस्तेमाल किया, जिनमें ये ग्रोथ फैक्टर्स बहुत मात्रा में होते हैं. भ्रूण का सिरम लेने के लिए, गर्भवती गाय को मारकर उसका भ्रूण निकाला जाता है. फिर उस भ्रूण से ख़ून निकालकर लैब में भेजा जाता है, जहां सिरम को अलग किया जाता है.

पिछले कुछ सालों में नैतिक दुविधा, और इस प्रक्रिया की निर्दयता को देखते हुए, वैज्ञानिक नवजात बछड़ों से निकाला गया सिरम इस्तेमाल करने लगे. इसमें बछड़े की पैदाइश के 3 से 10 दिन के भीतर, इसका ब्लड ले लिया जाता है.

राधा ने समझाया, ‘इसमें सिर्फ एक समस्या ये है, कि तब तक ख़ून में एंटीबॉडीज़ विकसित हो जाते हैं, जो लैब के प्रयोगों में दख़ल डाल सकते हैं’. उन्होंने आगे कहा कि इसमें ख़ासतौर से तब समस्या हो सकती है, अगर लैबोरेटरी के काम में, ऐसे व्हाइट ब्लड सेल्स विकसित करने पड़ जाएं, जो किसी भी जानवर के इम्यून सिस्टम में शामिल होते हैं.

इस पर क़ाबू पाने के लिए, सिरम को एक निर्धारित समय तक गर्म किया जाता है, जो ‘कॉम्प्लिमेंट सिस्टम’ को निष्क्रिय कर देता है- इम्यून रेस्पॉन्स का वो हिस्सा, जो एंटीबॉडी को सक्रिय करता है.

राधा ने कहा कि पशु के खून का सिरम, किसी भी दूसरे क़िस्म के जानवर के मुक़ाबले, ज़्यादा आसानी से मिल जाता है, क्योंकि इसका सीधा कारण ये है, कि ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड और अमेरिका जैसे देशों में, बड़ी संख्या में मवेशी फार्म्स मौजूद हैं

उन्होंने ये भी कहा, कि चूंकि भारत में गौ हत्या पर पाबंदी है, इसलिए किसी भी तरह की बायोलॉजिकल रिसर्च करने वाली लैब्स, इस ब्लड सिरम को बड़ी मात्रा में आयात करती हैं.

वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, भारत ने 2019-20 में लगभग 2.80 लाख डॉलर (मौजूदा विनिमय दरों के हिसाब से क़रीब 2 करोड़ रुपए) मूल्य के कैटल सिरम उत्पाद आयात किए. इस साल ये आयात काफी बढ़ गए हैं, और केवल अप्रैल से जून के बीच, 2.1 लाख डॉलर (लगभग 1.51 करोड़ रुपए) मूल्य के ऐसे उत्पाद आयात किए गए.

संभावित विकल्प

लेकिन अब ऐसी टेक्नॉलॉजीज़ विकसित हो गई हैं, जिनमें सिरम की जगह सिंथेटिक या कृत्रिम रूप से तैयार ग्रोथ फैक्टर्स इस्तेमाल किए जा सकते हैं.

रेकॉम्बीनैंट डीएनए टेक्नोल़जी से, जिसमें अलग अलग ऑर्गेनिज़म्स की जिनेटिक कोडिंग के टुकड़ों को एक साथ रखकर, उन्हें एक होस्ट ऑर्गेनिज़म में दाख़िल किया जाता है, वैज्ञानिक ऐसे बहुत से ग्रोथ फैक्टर्स, कृत्रिम रूप से लैब में तैयार कर सकते हैं.


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लेकिन, डीएनए रेकॉम्बीनैंट टेक्नोल़जी, ज़्यादा महंगी होती है, और इसके लिए विशेष लैब्स की ज़रूरत होती है.

कैटल सिरम जो बीफ इंडस्ट्री का एक उप-उत्पाद होता है, आसानी से मिल जाता है. सिग्मा-एल्ड्रिच और थर्मो फिशर साइंटिफिक जैसी बहुत सी कंपनियां, सिरम के मानकीकृत फॉर्मुलेशंस बेच रही हैं.

(रेम्या नैयर के इनपुट्स के साथ)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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