scorecardresearch
Tuesday, 10 December, 2024
होमदेशनिराशा से निकलने का जरिया: विदेश में मेडिकल की पढ़ाई करने वाले भारतीयों में कैसे जोश भरते हैं एजेंट्स

निराशा से निकलने का जरिया: विदेश में मेडिकल की पढ़ाई करने वाले भारतीयों में कैसे जोश भरते हैं एजेंट्स

शहरों और गांवों में फैले एजेंट्स के नेटवर्क मेडिकल उम्मीदवारों की आकांक्षाओं और आशंकाओं का फायदा उठाकर मुनाफा कमा रहे हैं. लेकिन भारत में स्थितियां छात्रों के खिलाफ होने के कारण, वो बहुत से लोगों में उम्मीद भी जगाते हैं.

Text Size:

नई दिल्ली: जब वो सिर्फ 17 साल की थी, तो अनामिका हलदर ने जमशेदपुर में अपने परिवार को पीछे छोड़ दिया था और पहली बार बाहर एक ऐसे देश में अकेले रहने के लिए चली गई थी, जहां वो किसी को नहीं जानती थी और वहां की भाषा का एक शब्द नहीं बोल सकती थी. उसके पास कोई और रास्ता नहीं था.

एक छोटे से ट्रांसपोर्ट व्यवसाय के मालिक और एक नर्स की बेटी हलदर ने हमेशा डॉक्टर बनने के सपने देखे थे. उसने बड़ी मेहनत से पढ़ाई की थी और प्रवेश परीक्षा में पास भी हो गई थी लेकिन उसके ग्रेड्स बस ज़रा कम रह गए और वो किसी भारतीय कॉलेज में सीट हासिल नहीं कर सकी.

पहले तो उसका दिल टूट गया लेकिन उम्मीद फिर से जाग उठी- एक एजेंट की सूरत में, जिसने कहा कि सिर्फ 10 लाख रुपए में वो चीन के मेडिकल कॉलेज में एक सीट का बंदोबस्त कर सकता है. सिर्फ यही नहीं, उसने ये भी वादा किया कि वो आवास से लेकर भोजन तक, यात्रा के हर कदम पर उसका मार्गदर्शन कर सकता है.

ये 2013 की बात थी. आज, हलदर काम पर एक सफेद कोट पहनती हैं और बोकारो के दो सरकारी अस्पतालों में सेवा दे रही हैं- लेकिन इस कहानी का अंत हर किसी के लिए ऐसा नहीं होता.

दिप्रिंट द्वारा हासिल किए सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि विदेशी डिग्री रखने वाले हर पांच में एक से भी कम छात्र, विदेशी चिकित्सा स्नातक परीक्षा (एफएमजीई) पास कर पाता है, जो भारत में मेडिसिन की प्रेक्टिस का लाइसेंस हासिल करने के लिए जरूरी होती है.

फिर भी आवेदकों की संख्या अभी भी तेज़ी से बढ़ रही है और अनियमित एजेंट्स का एक विशाल नेटवर्क, इसके पीछे एक बड़ा कारण है.

Graphic: ThePrint Team
ग्रॉफिक: दिप्रिंट टीम

मेडिकल शिक्षा के दलाल

एजेंट्स का एक व्यापक नेटवर्क, जो भारत के गांवों और शहरों में फैले हुए हैं, मेडिकल शिक्षा की मांग और सीटों की उपलब्धता के बीच, विशाल अंतराल को भरने के लिए विकसित हो गया है.

मसलन, पिछले साल करीब 8.7 लाख छात्रों ने, नेशनल एलिजिबिलिटी कम एंट्रेंस टेस्ट (नीट) पास किया, जिससे वो मेडिसिन पढ़ने के पात्र हो गए. लेकिन, भारत में केवल 86,000 मेडिकल कॉलेज सीटें हैं (सरकारी और निजी मिलाकर), जिसका मतलब है कि मुश्किल से करीब 10 प्रतिशत छात्र ही देश के अंदर पढ़ पाते हैं.

भारत में जगह जगह निजी मेडिकल कॉलेज खुल रहे हैं लेकिन उनकी फीस अक्सर बहुत अधिक होती है. चीन, यूक्रेन, और जॉर्जिया जैसे देशों में आमतौर से एक एमबीबीएस डिग्री की लागत, 15 से 50 लाख के बीच आती है लेकिन भारत में निजी कॉलेज 30 लाख से लेकर 1.5 करोड़ रुपए तक चार्ज करते हैं.

एक एजेंट का काम होता है कि वो छात्रों को अवगत कराए और फिर उन्हें थोड़े किफायती विदेशी कॉलेजों में ले जाए.

Graphic: ThePrint Team
ग्रॉफिक: दिप्रिंट टीम

कोलकाता स्थित एक शिक्षा परामर्शदाता मनीष जयसवाल ने कहा, ‘एजेंट बनने के लिए आपको किसी डिग्री, योग्यता, पंजीकरण, या लाइसेंस की ज़रूरत नहीं है. बस आपके अंदर आश्वस्त करने की कला होनी चाहिए’.

और एजेंट्स हर उस जगह हैं जहां छात्र हो सकते हैं. मेडिकल कोचिंग संस्थानों और नीट परीक्षा केंद्रों के बाहर, एजेंट्स को अकसर मेडिकल उम्मीदवारों और उनके चिंतित पेरेंट्स के बीच, बिज़नेस कार्ड्स और पर्चे बांटते देखा जा सकता है: ’15 लाख में एमबीबीएस’, ‘बिना डोनेशन के एमबीबीएस’.

स्थानीय अखबार भी महंगे होटलों में भर्ती मेलों के विज्ञापनों से भरे होते हैं और यूट्यूब भी विदेशी मेडिकल संस्थानों के जीवन पर, पेशेवर तरीके से तैयार वीडियोज़ से भरा है.

प्रमुख शहरों से काम करने वाले बड़े एजेंट्स के पास, उप ठेकेदारों का एक नेटवर्क होता है, जो टियर-2 और टियर-3 शहरों और गांवों तक से छात्रों की भर्ती करते हैं. आमतौर से इस पिरामिड के शीर्ष पर बैठे ठेकेदारों की विदेशों के मेडिकल शिक्षा केंद्रों से डील होती है, जिन्हें वो विशिष्टता के बदले छात्रों की एक निर्धारित संख्या की गारंटी देते हैं. एजेंट एक बार में हर छात्र से 50,000 से लेकर 2,50,000 रुपए तक लेता है, जो उसके द्वारा उपलब्ध की गई सेवाओं और भुगतान की गई फीस पर निर्भर करती है.

हालांकि यूक्रेन में फंसे भारतीय मेडिकल छात्रों की दुर्दशा ने, पूरे देश का ध्यान इस मुद्दे की ओर खींचा है लेकिन ऐसे हज़ारों छात्र और हैं, जो पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया, चीन, यहां तक कि बांग्लादेश और नेपाल तक में पढ़ते हैं.


यह भी पढ़ें: डिजिटल रुपया लॉन्च करने से पहले RBI को स्पष्ट करना चाहिए कि भारतीयों के लिए इसमें क्या प्रोत्साहन हैं


एजेंट शक्ति का अंधेरा पहलू

ये समझने के लिए किसी प्रयास की ज़रूरत नहीं है कि इस व्यवस्था में एजेंट्स इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं. देहरादून में प्रेक्टिस कर रहे एक डॉक्टर सौरभ सच्चर, जो 2013 में रूस गए थे, पूछते हैं, ‘अगर आप खुद से इन देशों में चले भी जाते हैं, तो आप वहां के लॉजिस्टिक्स को कैसे देखेंगे?’

सौरभ बताते हैं, ‘एजेंट्स कहते हैं ‘मैं भाषा जानता हूं, मैं हर किसी को जानता हूं. मैं सुनिश्चित करूंगा कि आपके बच्चे को भोजन मिले और उसके पास एक कमरा हो. मैं सर्दियों के कपड़े खरीदने में उसकी सहायता करूंगा, मैं उसका खयाल रखने के लिए वहां पर रहूंगा’. और पेरेंट्स को यही सब चाहिए, इसलिए वो पैसा देते हैं’.

जब भारतीय छात्रों ने खुद को यूक्रेन के विश्वविद्यालयों के तहखानों में फंसा हुआ पाया, तो बहुत से छात्रों का कहना था कि उनकी दूर बैठी सरकार की अपेक्षा, उनके स्थानीय एजेंट्स ज़्यादा मददगार साबित हुए.

दिल्ली-स्थित एक निजी कंसल्टेंसी फर्म एडुराइज़न के डायरेक्टर मयदुल शेख कहते हैं, ‘मैं भाग्यशाली था कि यूक्रेन में मेरे स्थानीय संपर्क ने मेरे छात्रों के सीमाओं तक पहुंचने के लिए ट्रांसपोर्ट और लॉजिस्टिक्स का बंदोबस्त कर दिया’. शेख करीब 500 छात्रों को भारत वापस लाने में कामयाब रहे.’

लेकिन, एजेंट व्यवस्था का एक अंधेरा पहलू भी है. बहुत से विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रबंधन विदेशी छात्रों की ज़िम्मेदारी हॉस्टल वॉर्डन्स, मेस सुपरवाइज़र्स और भारत के छात्र प्रशासकों के हवाले कर देते हैं- जिनका बंदोबस्त वही एजेंट्स करते हैं, जो यूनिवर्सिटी को कमाई कराते हैं.

सच्चर कहते हैं, ‘कॉलेज प्रबंधन खुशी-खुशी एजेंट्स को विदेशी छात्रों के वाइस-डीन्स नियुक्त कर देते हैं और सभी छात्रों को उनके नीचे कर दिया जाता है. हर काम उन्हीं के ज़रिए होता है, अगर आप उनके खिलाफ बोलते हैं, वो आपको बाहर निकाल सकते हैं’.

दिप्रिंट से बात करने वाले कई छात्रों ने कहा कि एजेंट्स ने अक्सर उनसे पहले साल के लिए दोगुनी ट्यूशन फीस ली और वो पैसा नकद वसूल किया, जिसके लिए उन्हें कोई रसीद नहीं दी गई.

एक कश्मीरी छात्रा ने, जो यूक्रेन में पढ़ना चाहती थी, खारकीव की एक यूनिवर्सिटी में सीधे आवेदन करने की कोशिश की, लेकिन प्रबंधन ने उससे कहा कि उसे नियुक्त किए गए एजेंट के ज़रिए ही जाना होगा.

वो कहती है, ‘मैं जिस यूनिवर्सिटी में गई उसे पंजाब के दो लोग चलाते हैं और सभी राज्यों में उनके एजेंट्स का नेटवर्क फैला हुआ है. वो नियमित रूप से छात्रों से ट्यूशन और हॉस्टल की दोगुनी फीस वसूल करते हैं. वहां के सार्वजनिक विश्वविद्यालयों को भारतीय एजेंट्स चला रहे हैं’.

लेकिन इस सब से गुज़रने के बाद भी नीतजा हमेशा अच्छा नहीं होता.


यह भी पढ़ें: कोविड के कारण TB के मामलों की रिपोर्टिंग बड़े पैमाने पर घटी, मोदी सरकार डोर-टू-डोर अभियान चलाएगी


मेडिकल डिग्री के दुष्प्रभाव: हैसियत, सामाजिक गतिशीलता , दहेज

नई दिल्ली के गौतम नगर की गलियों में फैले, एक-एक कमरे के अपार्टमेंट्स के बाड़े का सर्वे करते हुए मोहम्मद अज़हरुद्दीन मुल्ला व्यंग के साथ कहते हैं, ‘यहां पर हर शख़्स या तो डॉक्टर है या फिर उसके लिए पढ़ाई कर रहा है’.

2016 में मुल्ला फिलीपींस से मेडिकल डिग्री पूरी करने के बाद गौतम नगर पहुंचे थे. हर किसी की तरह मुल्ला ने भी अपनी डेस्क पर 18 घंटे या उससे भी अधिक काम किया और फ्राइड स्नैक्स तथा मीठी चीनी पर ज़िंदा रहे, जो पेपर कप्स में दी जाती थी.

आज वो कर्नाटक के एक गांव मुद्देबिहाल गांव में डॉक्टरी करते हैं, जहां उनकी अपनी खुद की प्रेक्टिस है. हालांकि, जो निवेश उन्होंने किया उसका कोई वास्तविक रिटर्न नहीं है. वो अपने मरीज़ों से सिर्फ 50 रुपए लेते हैं, जो ज़्यादातर गरीब हैं, वो जानते हैं कि अगर उन्होंने ज़्यादा पैसा मांगा, तो वो लोग झोलाछाप डॉक्टरों के पास चले जाएंगे.

ऐसे कोई आंकड़े नहीं हैं जिनसे पता चल सके कि विदेशों में पढ़े उन डॉक्टरों का क्या होता है, जो एफएमजीई पास नहीं कर पाते. लेकिन, ऐसे वास्तविक सबूत हैं कि बहुतों को काम मिल जाता है- कुछ परिवार के स्वामित्व वाले नर्सिंग होम या अस्पताल चलाते हैं और कुछ दूसरे एजेंट बनकर अपना गुज़ारा चलाते हैं- चूंकि विदेशी मेडिकल शिक्षा की मांग बढ़ ही रही है.

कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि विदेशी मेडिकल डिग्री के लिए पैसा खर्च करने की माता-पिता की इच्छा के पीछे, सिर्फ भविष्य में मोटी तनख़्वाह की उम्मीद ही नहीं होती, बल्कि सामाजिक हैसियत और सम्मान की इच्छा भी होती है.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर सोशल मेडिसिन एंड कम्यूनिटी हेल्थ की प्रोफेसर रमा बारू कहती हैं, ‘हम एक बेहद महत्वाकांक्षी समाज बन गए हैं. लोग अपने जीवन में सामाजिक गतिशीलता चाहते हैं. हो सकता है कि वो पढ़े-लिखे पेरेंट्स न हों लेकिन वो कहना चाहते हैं कि उनकी बेटी या बेटा एक डॉक्टर है’.

बारू आगे कहती हैं, ‘पुरुष के लिए, अगर वो डॉक्टर है तो दहेज बहुत बढ़ जाता है और महिला के लिए इसका मतलब है कि अपनी शिक्षा की वजह से, वो वास्तव में वर्ग की बाधाओं को पार कर सकती हैं. दहेज उन्हें फिर भी देना पड़ सकता है, लेकिन वो अपने से ऊंची आर्थिक हैसियत के परिवार में शादी कर सकती हैं’.

कामयाब होने के लिए एजेंट्स केवल एक अच्छा जीवन जीने का अवसर ही नहीं देते, बल्कि छात्रों और उनके परिवारों की आकांक्षाओं, असुरक्षा की भावनाओं और उम्मीदों का शोषण भी करते हैं.

अपने गृहनगर में अनामिका हलदर अपने परिवार और समुदाय में एक रोल मॉडल हैं. उसी एजेंट के ज़रिए अब उनकी बहन बांग्लादेश के एक कॉलेज में मेडिसिन पढ़ रही है. हलदर से प्रेरित होकर उनकी एक कज़िन भी, इसी पेशे में शामिल होने की तैयारी कर रही है.

वो कहती हैं, ‘लोग हमें अब एक नए सम्मान के साथ देखते हैं. वो मेरे पिता को देखते हैं और कहते हैं कि उन्होंने अपनी एक बेटी को डॉक्टर बना दिया और दूसरी भी डॉक्टर बनने के रास्ते पर है’.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: यूपी में ‘रैली’ रेस: पीएम मोदी ने की 2017 से ज्यादा रैलियां, योगी ने मारा दोहरा शतक और प्रियंका रहीं दूसरे नंबर पर


 

share & View comments