नई दिल्ली : इंस्टीट्यूट ऑफ चीन स्टडीज (आईसीएस) द्वारा इस शुक्रवार को आयोजित एक ‘ऑल इंडिया कान्फ्रेंस ऑफ चीन स्टडीज’ नाम के एक वर्चुअल संवाद में विशेषज्ञों और शोधकर्ताओं का कहना था कि दक्षिण एशिया में चीन ने अपनी विदेश नीति का आकर नेपाल के साथ इसके संबंधों को तिब्बत से जोड़कर, बौद्ध धर्म को ‘सॉफ्ट पावर’ के एक साधन के रूप में इस्तेमाल करके और भारत एवं पाकिस्तान के बीच चल रहे चिरकालिक तनाव का लाभ उठाकर, तय कर रखा है.
मालूम हो कि दिप्रिंट इस आयोजन का डिजिटल पार्टनर था.
भारत के पूर्व विदेश सचिव शिवशंकर मेनन, जिन्होंने ‘चाइनीज इन्फ्लुएंस इन साउथ एशिया (दक्षिण एशिया में चीनी प्रभाव)’ शीर्षक वाले सत्र का संचालन किया, ने कहा कि इस क्षेत्र में चीन की नीति से संबंधित बारीकियों की गहन जांच करना महत्वपूर्ण है क्योंकि इस बारे में मीडिया द्वारा गढ़ा जा रहा नैरेटिव या तो ‘चीनी जुग्गरनौत (दमनकारी वाहन) या फिर ‘सारी दुनिया चीनियों के खिलाफ हो गई है’, जैसे दो चरमवादी सिद्धांतों को दर्शाता है.
काठमांडू में राइटर की साइड नाम की एक साहित्यिक एजेंसी के सलाहकार संपादक अमीश राज मुलमी ने कहा कि नेपाल के साथ चीन के संबंधों में तिब्बत एक अहम बिंदु है.
मुलमी ने इसे और बेहतर समझाते हुए कहा कि नेपाल से चीन का सारा-का-सारा जुड़ाव ‘इस देश के अंदर पहले से रह रहे निर्वासित तिब्बती समुदाय की सभी तरह की राजनीतिक अभिव्यक्तियों को रोकने’ तथा ‘नेपाल में नए तिब्बती नागरिकों के प्रवेश को कम करने’ पर आधारित है.
अक्टूबर 2019 में, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की नेपाल यात्रा से पहले दर्जनों प्रदर्शनकारियों, मुख्य रूप से तिब्बती शरणार्थियों को हिरासत में लिया गया था.
मुलमी ने बताया कि चीनी राजदूतों ने हाल के वर्षों में नेपाल की मीडिया में अपनी पहुंच (‘आउटरीच’) काफी बढ़ा दी है. उन्होंने चीनी राजदूत होउ यांकी का उदाहरण देते हुए कहा कि कैसे उन्होंने 2020 में नेपाली मीडिया को कम-से-कम छह साक्षात्कार दिए और विभिन्न अखबारों के लिए पांच लेख भी लिखे. इसके अलावा उन्होंने इस साल नेपाल को चीन द्वारा कोविड-19 वैक्सीन के जरिये दिए जा रहे सहयोग पर भी पर चार ऑप-एड (लेखकीय विचार) प्रकाशित किये.
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‘चिरकालिक रूप से तनावपूर्ण’ भारत-पाक संबंध भी बीजिंग को प्रासंगिक बनाते हैं
सेंटर फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक प्रोग्रेस (सीएसईपी), नई दिल्ली में शोध सहयोगी अंतरा घोषाल सिंह ने बताया कि चीनी विद्वान बीजिंग को दक्षिण एशिया में ‘नकद के भंडार’ के रूप में देखे जाने की प्रवृत्ति से भी नाराज हैं.
सिंह ने कहा, ‘वे (विद्वान) अक्सर चीन को ‘सॉउथ-ईस्ट एशिया मिस्टेक’ (दक्षिण-पूर्व एशिया वाली गलती) दोहराने के खिलाफ सावधानी बरतने की सलाह देते हैं, जिसके तहत दक्षिण एशियाई देश अपने आर्थिक विकास के लिए चीन पर और सुरक्षा के लिए भारत और अन्य देशों पर भरोसा करते हैं. उनका मानना है की इससे चीन के संबंधों की लागत में वृद्धि होगी इसकी तुलना में उसे मिलने वाला लाभ निरन्तर कम होता जायेगा.’
उन्होंने कहा कि चीन एक ‘बिखरे हुए’ दक्षिण एशिया में अपने लिए अवसर देखता है, क्योंकि भारत-पाकिस्तान संबंध में चल रहा चिरकालिक तनाव बीजिंग को इस क्षेत्र में प्रासंगिक बनाए रखने में मदद करता है.
हालांकि, रोहिंग्या संकट जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर बीजिंग कुछ हद तक अपनी प्रासंगिकता खोता जा रहा है.
इंस्टीट्यूट ऑफ पॉलिसी, एडवोकेसी एंड गवर्नेंस (आईपीएजी), ढाका में परियोजनाओं और कार्यक्रम संभाग के वरिष्ठ समन्वयक शाहताज महमूद ने बताया कि रोहिंग्या संकट पर बांग्लादेश और म्यांमार के बीच चीन की मध्यस्थता का मामला इस साल फरवरी में म्यांमार में हुए तख्तापलट के बाद से अटका पड़ा है.
उनका कहना था, ‘बांग्लादेश भी अब धीरे-धीरे चीन की इस मध्यस्थता प्रक्रिया में अपना धैर्य और आशा खोने लगा है. वर्तमान में यह रूस की ओर देख रहा है तथा रूस और म्यांमार के बीच तेजी से उभरते संबंधों का अपने हित में उपयोग करना चाहता है.’
सॉफ्ट पावर के एक साधन के रूप में बौद्ध धर्म का प्रयोग
इंस्टीट्यूट ऑफ साउथ एशियन स्टडीज, नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर के शोधकर्मी चुलनी अट्टानायके ने बताया कि चीन दक्षिण एशिया में बौद्ध धर्म को सॉफ्ट पावर के एक साधन के रूप में इस्तेमाल करता है.
वे कहती हैं. ‘हाल के वर्षों में, चीन ने आस्था आधारित कूटनीति पर काफी जोर दिया है … विशेष रूप से, दक्षिण एशियाई क्षेत्र में अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए चीन खासतौर पर बौद्ध इतिहास और बौद्ध धर्म के संपर्कों का उपयोग करता है.’
अट्टानायके ने कहा कि बीजिंग महाचुललोंगकोर्नराजविद्यालय यूनिवर्सिटी, थाईलैंड में स्थित इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ़ वेसाक की ‘कॉमन बुद्धिस्ट टेक्स्ट’ जैसी पहलों के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बौद्ध धर्म को बढ़ावा देता रहता है.
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