पिथौरागढ़, 13 अगस्त (भाषा) उत्तराखंड के सीमांत पिथौरागढ़ जिले के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी दिवंगत कृष्णानंद उप्रेती के देश की आजादी में दिए गए योगदान से लोगों को परिचित कराने के लिए केंद्र सरकार ने उनकी जीवनगाथा जारी की है ।
भारत के 78 वें स्वतंत्रता दिवस से पूर्व स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के योगदान पर जारी श्रृंखला की पहली कड़ी में कृष्णानंद उप्रेती को शामिल किया गया है।
उप्रेती के पौत्र राजेश मोहन उप्रेती ने इस पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि इस जिले की अत्यधिक प्रभावशाली हस्तियों में शुमार उनके दादा ने इस दूरस्थ क्षेत्र में कांग्रेस का पहला कार्यालय खोला था और कुली बेगार प्रथा को समाप्त करने में अहम भूमिका निभाई थी ।
वर्ष 1895 में पिथौरागढ़ शहर के निकट हुड़ेती गांव में जन्मे उप्रेती राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के करिश्माई व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे। इस बारे में राजेश मोहन ने कहा,‘‘ उन्होंने न केवल 1920 में कांग्रेस की सदस्यता ली बल्कि 1921 में हुड़ेती गांव में अपने मकान में कांग्रेस का पहला कार्यालय भी खोला।’’
पिथौरागढ़ के एक सरकारी स्कूल में अध्यापक राजेश मोहन ने कहा कि इसके बाद क्षेत्र के स्वतंत्रता सेनानियों ने मिलकर हमारे गांव में एक सम्मेलन किया और वे उप्रेती के नेतृत्व में एकजुट होना शुरू हुए।
उन्होंने कहा कि सूर घाटी में कांग्रेस का पहला कार्यालय खुलने के बाद पिथौरागढ़ के कई स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों जैसे प्रयागदत्त पंत, लक्ष्मण सिंह महर, दुर्गादत्त जोशी, जमन सिंह वल्दिया आदि ने गांधीजी के आह्वान पर लोगों को ब्रिटिश राज के खिलाफ संगठित करना शुरू किया ।
बद्री दत्त पांडे के नेतृत्व में संचालित आंदोलन के कारण 1921 में समाप्त हुई कुली बेगार प्रथा, जिसे कुली उत्तराखंड या कुली बरदैस के नाम से भी जाना जाता है, में भी उप्रेती का अहम योगदान रहा । इस प्रथा के तहत कुमांउ क्षेत्र के गांवों में रहने वाले लोगों को बिना किसी भुगतान के ब्रिटिश अधिकारियों के सामान की ढुलाई करने के लिए मजबूर किया जाता था ।
कृष्णानंद की जीवगाथा के अनुसार, उप्रेती ने पिथौरागढ़ में बड़ी संख्या में लोगों को कुली बेगार प्रथा के खिलाफ संगठित किया और आंदोलन में बढ़—चढ़कर हिस्सा लेने के लिए प्रेरित किया । उन्होंने 13 और 21 फरवरी 1921 को पिथौरागढ़ और गंगोलीहाट में जनसभाएं कर इस अपमानजनक प्रथा के विरूद्ध भाषण दिए और उन्हें जागरूक किया।
कुली बेगार आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए उप्रेती को एक मार्च 1922 को छह माह के कठोर कारावास की सजा सुनाई गयी थी।
राजेश मोहन ने कहा कि उप्रेती ने न केवल आजादी के आंदोलन में बल्कि ब्रिटिश अधिकारियों की शोषण और दमनात्मक नीतियों के विरूद्ध सामाजिक सुधार और वन आंदोलनों में भी बढ़—चढ़कर हिस्सा लिया ।
उन्होंने बताया कि स्थानीय लोगों के पारंपरिक वन अधिकारों के लिए संघर्ष करने के कारण 1923 में उन्हें फिर तीन माह के लिए कारावास की सजा सुनाई गयी ।
राजेश मोहन ने कहा कि उस समय के अन्य गांधीवादी नेताओं की तरह उप्रेती भी जमींदारों द्वारा आम जनता पर अत्याचारों के विरूद्ध थे।
इस संबंध में उन्होंने कहा कि जब लोगों ने कृष्णानंद उप्रेती से अस्कोट के राजबर द्वारा आम किसानों पर अत्याचारों की शिकायत की तो वह जमींदारों के खिलाफ खड़े हो गए और संघर्ष छेड़ दिया । उन्होंने कहा कि इस संघर्ष की परिणिति यह हुई कि जमींदार को अपने रुख से पीछे हटना पड़ा ।
उप्रेती के प्रयासों से ही 1928 में पिथौरागढ़ में पहला हाईस्कूल खुला ।
उप्रेती ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी सक्रिय रूप से हिस्सा लिया जिसके लिए उन्हें 1930 में अल्मोड़ा जेल में छह माह की सजा काटनी पड़ी ।
देश की आजादी के लिए संघर्ष करने के बावजूद उप्रेती आजादी का सूरज नहीं देख पाए और 1937 में 42 साल की उम्र में दुनिया से विदा हो गए ।
भाषा सं दीप्ति मनीषा नरेश
नरेश
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