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Saturday, 21 December, 2024
होमदेशएक तरफ 15 अगस्त का जश्न मनेगा, दूसरी ओर बिहार के 'डोम' लोगों को बेघर किया जाएगा

एक तरफ 15 अगस्त का जश्न मनेगा, दूसरी ओर बिहार के ‘डोम’ लोगों को बेघर किया जाएगा

भूमिहीन डोम समुदाय को भारत के जातीय अनुक्रम में सबसे आखिर का दर्जा दिया गया है. देश के विभिन्न हिस्सों में इस समुदाय के लोग शहरों के गंदे नालों के पास रहने को मजबूर हैं.

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बिहार/बक्सर: 15 अगस्त को देश आज़ादी का 73वां जश्न मनाएगा और इस दिन महादलित कहे जाने वाले डोम समुदाय के लोगों को अपने घरों से खदेड़ा जाएगा. क्योंकि इनकी बस्तियां झंडा फहराने वाले नेताओं को नहीं सुहातीं या फिर तिरंगे झंडे से सजे मैदान के साथ इनकी बस्तियां भद्दी नज़र आएंगी. डोम समुदाय के लोग वो लोग हैं, जिससे दलित भी छुआछूत करते हैं. दुर्भाग्य की बात ये है कि संविधान में छुआछूत गैर-कानूनी होने के सात दशक बाद भी ये जारी है.

शमशान घाट का राजा कहे जाने वाले डोम समुदाय के लोग किस तरह गरीबी, तंगहाली और तिरष्कार का जीवन जीते हैं ये आप उत्तरप्रदेश और बिहार के घाटों की यात्रा कर समझ सकते हैं. बिहार के बक्सर ज़िले के किला मैदान से पास होते हुए एक गंदा नाला गंगा नदी में मिल जाता है. इस नाले के पास बसी डोम बस्ती के लोगों के चेहरों पर 15 अगस्त की वजह से पैदा होने वाली परेशानी साफ दिखती है. बस्ती के अशोक डोम दिप्रिंट को बताते हैं, ‘अब 15 अगस्त आएगा तो हमें यहां से अधिकारी खदेड़ने आएंगे. हम हर साल यही लड़ाई लड़ते हैं. हम अपने ही देश के अस्थायी निवासी हैं.’

किला मैदान में स्वतंत्रता दिवस मनाने किसी स्थानीय नेता को ध्वजारोहण के लिए बुलाया जाता है. रंग बिरंगे टेंट से सजे मैदान की सजावट बरकरार रखने के लिए के लिए इनकी बस्ती उजाड़ी जाएगी. इसलिए अधिकारियों और डोम लोगों की झड़प होती है और आखिर में ताकतवर पक्ष की जीत होती है.

एक तरफ किला मैदान और दूसरी तरफ गंदे नाले के पास पड़ा शहर का कूड़ा | तस्वीर- ज्योति यादव

भूमिहीन डोम समुदाय को भारत के जातीय अनुक्रम में सबसे आखिर का दर्जा दिया गया है. देश के विभिन्न हिस्सों में इस समुदाय के लोग कच्ची मिट्टी के मकानों और शहरों के गंदे नालों के पास रहने को मजबूर हैं. अगर सरकारी योजना हाशिए पर खड़े इन लोगों तक पहुंच जाए, तो उसे सफल माना जा सकता है. इस वक्त भूखे, गरीब और भूमिहीन समुदायों के लिए केंद्र सरकार ने दर्जनों योजनाएं चला रखी हैं. मगर इस बस्ती की सुशीला डोम कहती हैं, ‘ना हम आंगनवाड़ी में काम कर सकते हैं औ ना ही स्कूलों में खाना बना सकते हैं. लोग तो घर बनवाने में मजदूरी का काम भी हमसे नहीं लेते. हम इतने अछूत हैं कि कोई अगड़ी जाति का छू जाए तो उसे नहाना पड़ता है. लोगों को हमसे बदबू आती है.’

ऐसा बहुत कम हो पाता है कि इस समुदाय के बच्चे दसवीं या बाहरवीं तक की पढ़ाई कर सकें. अक्सर स्कूल में बच्चे इनके साथ बैठने से मना कर देते हैं. इस बात का हल डोम समुयाद के बच्चों को शिक्षा से वचिंत कर निकाला जाता है. अपने साथ हुए जातीय भेदभाव के अनुभव को साझा करते हुए अशोक जोड़ते हैं, ‘मैंने स्कूल जाना शुरू किया था. लेकिन बाद में लड़कों को मेरे शरीर से बदबू आने लगी. मैं लाशें भी जलाता था और स्कूल भी जाता था. लोगों ने इतना मानसिक रूप से प्रताड़ित कर दिया कि मैंने स्कूल ही छोड़ दिया. हमारी जाति के ज्यादातर बच्चों की यही कहानी है.’

अशोक| तस्वीर- ज्योति यादव

अशोक श्मशान घाट पर लाशों को जलाने का काम करते हैं. दिनभर धूप में तपकर उनका शरीर भी काला पड़ गया है. सालों से लाशों से उठते धुएं, अगरबत्ती और घी की जलने की महक उनके शरीर में रम गई है. इस धुएं से वो अपनी आने वाली पीढ़ियों को दूर करना चाहते हैं. लेकिन रास्ता नहीं पता. जैसा दुष्यंत कुमार ने लिखा है, ‘यहां तक आते आते सूख जाती हैं कई नदियां..’

हिंदू धर्म की एक प्रचलित कहानी के मुताबिक डोम समुदाय के एक कल्लू नाम के शख्स को भगवान शिव ने मां पार्वती का झुमका चुराने के लिए श्राप दे दिया था. बाद में माफी के बदले उन्होंने लाशों को अग्नि देने का काम स्वीकार किया.

अशोक आगे बताते हैं, ‘दिनभर श्मशान घाट पर मरे हुए पशुओं, शहर की गंदगी साफ करते हुए मुझे खुद घिन्न आती है. लेकिन, गंदगी साफ करने के बावजूद हमें ही गंदा मान लिया गया है. एक बार हम होटल में खाना खाने गए. पूरे पैसे देने के बावजूद होटल वाले ने वहां बैठाने से मना कर दिया.’

शमशान घाट पर आसमान को तकती और सपने देखती आंखें

इस बस्ती में बंगाल से आए एक युवा लड़के ने फिल्म कबीर सिंह की तरह बाल कटवाए हैं. वो सुअरों को पालने या लाशों का जलाने की बजाय किसी छोटे-मोटे धंधे में लग गया है. उसने बताया, ‘अगर हमारी जाति का कोई लड़का पढ़-लिख ले, घर बना ले या बाइक ही खरीद ले तो इसे दूसरी जातियों के अपमान के तौर पर देखा जाता है. पूरा समाज ऐसे व्यवहार करेगा कि ये उसका सबसे बड़ा अपराध है.’

इसी बस्ती के एक तंग कमरे में रह रही सुशीला ने अपने बच्चे को पढ़ाने के लिए शहर से कई सालों तक एक-एक ईंट इकट्ठा कीं. उसके बाद एक कमरा बनाया, ताकि उसके बच्चे को कोई ट्यूशन पढ़ा सकें. वो कहती हैं, ‘मैं अपने बेटे को लाशें जलाने के कुचक्र से बाहर निकालना चाहती हूं. इसका दाखिला एक छोटे प्राइवेट स्कूल में करवाया. किसी ट्यूशन वाले की बाट जोहते रहते हैं. कोई इस कमरे में आकर बच्चे को नहीं पढ़ाना चाहता.’

बस्ती की एक महिल| तस्वीर- ज्योति यादव

सुशीला (बदला हुआ नाम) आगे बताती हैं, ‘हमें शौच के लिए खुले में जाना पड़ता है. कई बार छेड़खानी भी होती हैं. हमारी भी जवान होती बेटियां हैं. कौन बात उठाएगा हमारी? हम तो गंदा पानी पीने को भी मजबूर हैं.’

दोपहर के 11 बजे हैं, कुछ बच्चे गंदे नाले के पास बने हैंडपंप पर नहा रहे हैं. उसी पानी से एक महिला पीने की बोतलें भर रही हैं. यहां सात-आठ मकानों में करीब 30-40 लोग रहते हैं. ये लोग शौचालय के लिए गंदे नाले के इलाके का ही इस्तेमाल करते हैं. इन लोगों का ना आयुष्मान कार्ड बना है और ना ही उज्जवला योजना का लाभ मिला है. प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत मकान भी नहीं मिले हैं. बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ का इन लोगों को अता-पता नहीं है. पोषण अभियान से भी कोई लेना देना नहीं है.

कौन होते हैं ‘डोम’ समुदाय के लोग?

डोम समुदाय को देश के अलग-अलग राज्यों में कई नामों से जाना जाता है. इस जाति का पारंपरिक व्यवसाय कूड़ा-कचरा और लैटरीन साफ करने, सुअर पालने, मृत मनुष्यों और जानवरों की लाशों को जलाने का काम रहा है. आज़ादी के 72 साल बाद भी इस जाति के 50 फीसदी लोग अभी इन कामों में लगे हुए हैं. 

डोम जाति अधिकतर पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में फैली हुई है. कई राज्यों में इन्हें सरकारी और प्राइवेट संस्थानों में झाड़ू लगाने और लैटरीन साफ करने की नौकरियों पर रखा गया है. हां, ये भी हुआ है कि कुछ लोग खेतों में मजदूरी का काम भी करने लगे हैं. समय के साथ-साथ इन्हें स्कूलों में जाने की अनुमति भले ही मिल गई हो, लेकिन अभी भी डोम जाति में साक्षरता दर 8 फीसदी ही है. लिंगानुपात के मामले में डोम बाकी दलित समुदायों में बेहतर हैं.

मान्यता है कि अगर मृतक की लाश को डोम ने नहीं जलाया है, तो वो स्वर्ग नहीं जाएगा. इसलिए एक दिन के लिए इन्हें ‘डोम राजा’ भी कहा जाता है. सामान्य लोगों में भ्रम है कि ऐसा करके डोम खूब कमाई करते हैं कि क्योंकि उन्हें एक दिन मुंह मांगी रकम मिल जाती है. इस पर बनारस के एक डोम बताते हैं, ‘मुंह मांगा पैसा नहीं, बल्कि लोगों की हैसियत के हिसाब से पैसा मिलता है. एक दिन के लिए डोम राजा बना लेते हैं, लेकिन अगले ही दिन लात मारकर निकाल देते हैं. किसी-किसी दिन हमारी कमाई सिर्फ सौ रुपए ही होती है. उसके लिए भी आपस में मारा मारी.’

बक्सर में रहने वाले डोम समुदाय के लोग| तस्वीर- ज्योति यादव

बक्सर में एक कहानी भी प्रचलित है कि एक ब्राह्मण मदई पांडे ने डोम की लड़की से शादी करने के लिए सुअर पाले, मांस खाया और महिलाओं के स्नान किए पानी को भी पिया. जब उसने डोम समुदाय के साथ जीवन जीकर देख लिया तब जाकर उसकी शादी डोम लड़की से हुई. मदई डोम की प्रेमकहानी वहां की लोककथाओं में मिलती है.

इस मामले पर बक्सर के जिलाधिकारी राघवेंद्र सिंह ने दिप्रिंट को बताया, ‘हर साल हटाया तो जाता है. क्योंकि ये लोग जहां रह रहे हैं वो जमीन सिंचाई विभाग के अंतर्गत आती है. हाईकोर्ट के एक ऑर्डर के मुताबिक वो वहां नहीं रह सकते हैं. प्रधानमंत्री आवास योजना भूमिहीन लोगों के लिए नहीं है. हालांकि बिहार सरकार की एक नई योजना के तहत इन्हें शहर में घर दिए जाएंगे. आने वाले दो महीनों में इनको मकान दिए जाएंगे. अभी हम जगह खोज रहे हैं.’

वो इन लोगों के आरोपों को निराधार बताते हुए कहते हैं, ‘केंद्र और राज्य सरकार की जो योजनाएं आती हैं, वो हमने लागू की हैं. इनके लिए मोबाइल टॉयलेट बनाए गए हैं.’

लेकिन डोम बस्ती में मोबाइल टॉयलेट दूर-दूर तक नजर नहीं आता है.

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