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Thursday, 25 April, 2024
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‘द कश्मीर फाइल्स’ के बीके गंजू की कहानी तो आप जान गए, अब जानिए उनके पड़ोसी अब्दुल को

यह आरोप लगाया जाता रहा है कि वो गंजू के पड़ोसी ही थे जिन्होंने आतंकवादियों को उनके छिपने का ठिकाना बताया था.

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श्रीनगर/नई दिल्ली: उनके घर में कोई खिड़की नहीं है, वह सामने का दरवाजा तक खोलने से डरते हैं. अपने जीवन के सैंतालीसवें साल में चल रहे अब्दुल रशीद की आंखों में एक उदासी का बोझ है, जो उनकी जवानी की तस्वीरों में कहीं नजर नहीं आता. राशिद ने तीन दशक से ज्यादा का समय हिंसक मौत की छाया में बिताया है. उनके भाई की 1990 में जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के आतंकवादियों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी. जिसके बाद उनके परिवार को बिजनेस और श्रीनगर के छोटा बाजार में अपने घर को छोड़कर, भागने के लिए मजबूर होना पड़ा था.

जब से ‘द कश्मीर फाइल्स’ देश भर के सिनेमाघरों में चलनी शुरू हुई, भारतीय कश्मीरी पंडित एमटीएनएल इंजीनियर बाल कृष्ण गंजू की कहानी को हर कोई जान गया है. गंजू की 19 मार्च 1990 को आतंकवादियों ने बेरहमी से हत्या कर दी थी.

लेकिन गंजू के पड़ोसी अब्दुल रशीद की कहानी को कोई नहीं जानता. यह आरोप लगाया जाता रहा है कि वो गंजू के पड़ोसी ही थे, जिन्होंने आतंकवादियों को उनके छिपने का ठिकाना बताया था. मगर जिन मुस्लिम पड़ोसियों को आज बदनाम किया जा रहा है, उन्होंने भी उसी दौरान अपने प्रियजनों और घरों को खो दिया था. यह जानकर और भी हैरानी हुई कि राशिद के परिवार को आतंकियों ने इसलिए निशाना बनाया था क्योंकि वह एक गुप्त मुखबिर था. वह राज्य और केंद्रीय पुलिस बलों के साथ काम करते थे.

कुछ और कश्मीर फ़ाइल्स: अब्दुल के परिवार की कहानी

अब्दुल का संबंध शुरू से ही एक खाते-पीते परिवार से रहा था. वह अपने माता-पिता, बड़े भाई और तीन बहनों के साथ 5,000 वर्ग फुट के बड़े से 22-बेडरूम के खूबसूरत घर में रहते थे. उनके पिता की उनके घर के पास ही एक बड़ी किराने की दुकान थी. जीवन अच्छे से चल रहा था.

लेकिन आज अब्दुल के बच्चे आज जिन परिस्थितियों में अपना गुजर-बसर कर रहे हैं, अब्दुल का बचपन उससे बहुत अलग था.

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वह मुस्कराते हुए कहते हैं, ‘हम करोड़पति थे, आज सड़क पर आ गए हैं.’

उनके और घाटी के लिए 1989 में चीजें बदल गईं. उस समय जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद चरम पर था. अब्दुल का दावा है कि उनका परिवार आतंकवादियों के खिलाफ था. उग्रवादी संगठनों को पैसे देने और उनके आगे झुकने से इंकार करने चलते निशाना बनाया.

26 अक्टूबर 1989 के दिन से अब्दुल के परिवार के लिए काफी कुछ बदलने लगा था. उनके घर पर हमला किया गया. परिवार को डराने के लिए गोलियों से खिड़कियों के शीशे तोड़े गए और उनके आंगन में ग्रेनेड तक फेंका गया. 27 अक्टूबर को एक बार फिर से उन पर हमला किया गया. 11 नवंबर 1989 को अब्दुल जब अपनी दुकान पर बैठा था, तो उसे आतंकियों ने गोली मार दी. एक गोली उनके दाहिने हाथ में, दूसरी उनके दाहिने कूल्हे में लगी थी.

अब्दुल ने इन हमलों के बाद पुलिस में एफआईआर भी दर्ज कराई थी. इसकी एक प्रति उन्होंने दिप्रिंट को भी दिखाई.

‘हम डरे नहीं, लड़े इनसे’ वह आगे कहते हैं, ‘अगर हमे सहायता मिलती, तो हम भारत के लिए कुछ कर सकते थे.’

जिस दुकान पर अब्दुल रशीद को गोली मारी गई थी। | शुभांगी मिश्रा | दिप्रिंट

16 फरवरी 1990 को जुम्मा का दिन था. पेशे से वकील उनके 32 साल के भाई मेहराज कर्फ्यू में ढील मिलने के बाद दोपहर में सब्जी खरीदने गए थे. जेकेएलएफ के एक आतंकवादी इशफाक माजी वानी ने कथित तौर पर उनकी गर्दन के पीछे गोली मार दी और मेहराज की मौत हो गई. उनके परिवार में दो बच्चे और उनकी पत्नी हैं.

इन हमलों के बाद परिवार को पूरी तरह से सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा. डर की वजह से आस-पड़ोस से कोई भी उनके साथ जुड़ना नहीं चाहता था. यहां तक कि मेहराज के अंतिम संस्कार में भी कोई रिश्तेदार, दोस्त या पड़ोसी शामिल नहीं हुआ या उसे कांधा देने के लिए आगे नहीं आया. अब्दुल तीन महीने पहले गोली लगने से घायल हुआ था, तो उनके पिता को यह सब अकेले करना पड़ा था.

अब्दुल कहते हैं, ‘मैं एक मुखबिर के रूप में भारत सरकार के लिए काम कर रहा था, इसलिए आतंकवादी हमेशा मेरे परिवार के पीछे पड़े रहते थे. कभी-कभी, मुझे ऐसा लगता है कि मेरी वजह से मेरा पूरा परिवार तबाह हो गया.’


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अब्दुल एक मुखबिर

अब्दुल दिप्रिंट को अपने कुछ दस्तावेज दिखाता है. उसमें से एक डीआईजी कार्यालय से जारी किया गया पास है जो उसे एक कार्यकर्ता के रूप में पहचान दिलाता है. यह एक कर्फ्यू पास के तौर पर भी काम करता था. अब्दुल के अनुसार, उन्होंने 2006 तक केंद्रीय जांच ब्यूरो और इंटेलिजेंस ब्यूरो जैसी विभिन्न खुफिया एजेंसियों के लिए एक मुखबिर के रूप में काम किया था. इस दौरान, उन्हें कई हमलों का सामना भी करना पड़ा था. उन्होंने बताया कि मुखबरी करने के लिए जेकेएलएफ के उग्रवादी हिलाल बेग ने उनका अपहरण कर, प्रताड़ित किया था. वह कहते हैं, ‘मुझे नहीं पता कि मैं कैसे बच गया. मुझे लगता है कि अल्लाह हर समय मेरे साथ था.’

हिलाल बेग के साथ मुठभेड़ के कुछ समय बाद अब्दुल और उसका परिवार जम्मू चले गए और 2015 तक वहीं रहे.

1992 में जब परिवार जम्मू में था, तो उनका श्रीनगर का घर जल कर राख हो चुका था. वे वापस नहीं लौट सके और किसी अन्य परिवार ने उनकी जमीन पर कब्जा करके वहां अपना घर बना लिया. अब्दुल का दावा है कि वे लोग अभी भी वहीं रह रहे हैं. वह कहते है, ‘मैं अपना पुराना घर वापस पाने के लिए लड़ाई नहीं लड़ रहा हूं. मैं सिर्फ सरकार द्वारा पुनर्वास चाहता हूं. आज हम लोग जिन हालातों में रह रहे हैं, जरा उसे देखिए. मैंने देश के हित के लिए अपना सब कुछ छोड़ दिया.’

आज अब्दुल के पास कोई नौकरी नहीं है. कोई छोटा-मोटा काम करके वह और उसकी पत्नी मुश्किल से महीने में 12-13,000 रुपये कमा पाते हैं. उसमें से एक बड़ा हिस्सा तो बच्चों की पढ़ाई पर खर्च हो जाता है.

गंजू की हत्या

अब्दुल के अनुसार गंजू परिवार के साथ उनके पारिवारिक संबंध थे. उनके घर रोजाना का आना-जाना था. मैं उनसे फिजिक्स का ट्यूशन लेता था. उन्होंने कहा, ‘गंजू जी मेरे टीचर थे. वह मुझे फिजिक्स तो पढ़ाते ही थे, लेकिन गणित और केमेस्ट्री जैसे कई अन्य विषयों में भी मेरी मदद की थी.’

बी.के. गंजू के भाई शिबन किशन गंजू का कहना है कि उनके बीच ज्यादा गहरे संबंध तो नहीं थे लेकिन सौहार्दपूर्ण रिश्ता जरूर था. बी.के. गंजू की पत्नी अब्दुल के परिवार से दूध खरीदती थी. लेकिन बाद में वह खुद ही उनके घर दूध पहुंचाने लगा था.

अब्दुल के अपने भाई की मौत के एक महीने के बाद ही बी.के. गंजू की भी आतंकियों ने हत्या कर दी थी. परिवार का दावा है कि उनके निकटतम पड़ोसियों ने इशारों से बताया था कि गंजू कहां छिपे थे.

बीके के छोटे भाई शिबन किशन गंजू ने बताया कि उस रात को घर पर केवल बाल कृष्ण, उनकी पत्नी और छोटी बेटी थी. नजदीकी पड़ोसियों के अलावा और कोई बी.के की छिपने की जगह के बारे में नहीं बता सकता था. वह दिप्रिंट को एक दूसरे के ठीक बगल वाले घरों का वीडियो दिखाते है. ऊपर के कमरे बहुत करीब हैं और पड़ोसी संभावित रूप से एक-दूसरे के घरों में झांक सकते थे. उन्होंने नई दिल्ली में दिप्रिंट को बताया कि ‘हमारे पास के पड़ोसियों के अलावा मेरे भाई के छिपने की जगह को कौन देख या जान सकता था. इसलिए हम जानते हैं कि उन्होंने उस जगह के बारे में जानकारी दी थी.’

बाल कृष्ण जानते थे कि वह असुरक्षित हैं और आतंकवादियों की हिट लिस्ट में हैं. पूरा परिवार बाल कृष्ण से घाटी छोड़ने की मिन्नतें कर रहा था लेकिन वह अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए वहीं रुके रहे. एक फेसबुक पोस्ट में शिबन किशन गंजू ने अपने भाई के साथ आखिरी बार टेलीफोन पर हुई बातचीत को याद करते हुए लिखा था, ‘मैं घाटी नहीं छोड़ सकता क्योंकि मैं बाराज़ुला श्रीनगर के इलेक्ट्रॉनिक एक्सचेंज में एक महत्वपूर्ण काम से जुड़ा हूं … एक्सचेंज से कॉल आतंकवादियों द्वारा टैप किया जा रहा है … बाराज़ुला बिना किसी समस्या के काम करता रहे, ये मेरा मुख्य कर्तव्य है … यह केंद्र और राज्य के बीच एकमात्र कड़ी है.’

बी.के गंजू के भाई एस.के. गंजू, नई दिल्ली में अपने आवास पर। | शुभांगी मिश्रा | दिप्रिंट

शिबन अपने फेसबुक पोस्ट में लिखते हैं, ‘त्रासदी यह है कि हमारे घर के ठीक बगल वाले पड़ोसियों ने आतंकवादियों को फिर से घर पर भेज दिया था. इन्हीं पड़ोसियों को हत्या से ठीक एक दिन पहले बाल जी ने 20 किलो चावल, 10 किलो आटा और 5 किलो चीनी दी थी, क्योंकि उस परिवार के पास खाने के लिए कुछ भी नहीं था. और यही लोग हत्यारे बन गए.’

यह पूछे जाने पर कि एक परिवार जिसने पहले ही आतंकवादियों के हाथों अपने प्रियजन को खो दिया था, वह उनके लिए ऐसा काम क्यों करेगा? वह कहते हैं, ‘आप दो मौतों की तुलना नहीं कर सकते. आतंकवादी और परिवार एक ही धर्म के हैं. बाल जी कहां छिपे हैं, उनके अलावा और कोई नहीं बता सकता था.’

अब्दुल ने इन आरोप से इनकार किया. वह कहते हैं, ‘ जिस रात गंजू की हत्या की हुई थी, घर पर उनकी 18 साल की बहन और मां के अलावा कोई नहीं था. वे (गंजू का परिवार) नहीं जानते कि हम किन परिस्थितियों से गुजर रहे थे या हम देश के लिए क्या कर रहे थे. आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता. नहीं तो हमारे परिवार को निशाना क्यों बनाया गया?’

जबरदस्ती चावल खिलाने का सच

बीके गंजू की हत्या की कहानी को विवेक अग्निहोत्री ने अपनी ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ में फिर से दोहराया है. फिल्म ने भारत में सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने का काम भी किया है.

फिल्म में एक ऐसा दृश्य है जिसमें बाल कृष्ण की पत्नी को अपने मृत पति के खून से सना हुआ चावल खिलाया जाता है.

हालांकि ऐसा सच में हुआ था या नहीं, इसे लेकर सवाल उठते रहे हैं.

जब दिप्रिंट ने इस बारे में एस.के.गंजू से पूछा तो उन्होंने कहा, ‘परिवार ने कभी ऐसी कोई बात नहीं कही है.’ उन्होंने बताया कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ के निर्माताओं ने कभी भी इनपुट के लिए परिवार से संपर्क नहीं किया. वह आगे कहते हैं, ‘यह एक काल्पनिक हिस्सा है. या फिर किसी और की कहानी रही होगी. यह निश्चित रूप से मेरे भाई की कहानी का हिस्सा नहीं था’

यह एक मिथक है जिसे पहले भी निराधार रिपोर्टों में गंजू की हत्या से जोड़ा गया है. गंजू की पत्नी ने उस रात के बारे में कभी भी सार्वजनिक रूप से बात नहीं की और न ही किसी पत्रकार को कोई इंटरव्यू दिया.

दिप्रिंट ने इस दृश्य के आसपास की वास्तविकता को समझने के लिए द कश्मीर फाइल्स के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री को लिखा और साथ ही ये जानने की भी कोशिश की कि इसे उन्होंने कहां से लिया. उन्होंने इसका जवाब, बी.के. गंजू की बेटी दीपिका के उस पत्र के साथ दिया, जिसमें उन्होंने फिल्म की प्रशंसा करते हुए लिखा कि इससे ‘परिवार को ठीक होने में मदद मिली है’. इसके बाद उन्होंने मैसेज लिखा: ‘मुझे आशा है कि इस पत्र को पढ़ने के बाद आप मृतकों और उनके पीड़ित परिवारों को सम्मान देंगे. सब कुछ पत्रकारिता नहीं है. सहानुभूति नाम की भी कोई चीज होती है और इंसानियत भी. उन्हें ठीक होने दो’

जम्मू और कश्मीर (1995-2010) पर काम करने और कश्मीरी पंडितों पर कई लेख लिखने वाली पूर्व पत्रकार सोनिया जब्बार कहती हैं कि उन्होंने इस साल से पहले इस कहानी (खून से लथपथ चावल खिलाने की) के बारे में कभी नहीं सुना था. ‘हिंसा की ये कहानियां अतिरंजना के बिना भी काफी भयानक हैं. इतना बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की जरूरत क्या है? क्या हम अपने पड़ोसियों और साथी भारतीयों के साथ सहानुभूति रखने की भावना को पूरी तरह से खो चुके हैं, जब तक इसे मसाला लगा कर पेश नहीं किया जाता, हमें प्रतिक्रिया देना असंभव लगता है? शायद कुछ एजेंडा वाले लोग महसूस करते हैं, जब तक कि वे चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं करेंगे और उसे भयानक नहीं बनाएंगे तो इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा. इसलिए आपको इस तरह की कहानियां मिलती हैं. कितनी शर्म की बात है कि कोई भी जम्मू-कश्मीर के लोगों- हिंदू, मुस्लिम और बौद्ध – की वास्तविक त्रासदी के साथ सहानुभूति नहीं रखता है, जिन्होंने 70 से अधिक वर्षों से भारत और पाकिस्तान के बीच ‘युद्ध’ का खामियाजा भुगता है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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