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Saturday, 16 November, 2024
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‘जाति व्यवस्था भारतीय समाज को एकजुट करने वाली और उसकी पहरेदार रही है’- इस हफ्ते हिंदू राइट प्रेस ने क्या लिखा

पिछले सप्ताह हिंदुत्व-समर्थक लेखकों ने किस प्रकार समाचारों और समसामयिक मुद्दों पर कवरेज किया और क्या लिखा. दिप्रिंट का वीकली राउंड-अप.

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नई दिल्ली: जाति व्यवस्था का पूरी तरह बचाव करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के हिंदी मुखपत्र पाञ्चजन्य ने कहा है कि जाति भारत में समुदायों को जोड़ने वाली कड़ी रही है. इस सप्ताह की शुरुआत में प्रकाशित एक संपादकीय में पत्रिका के संपादक हितेश शंकर ने लिखा कि जाति व्यवस्था हमेशा भारत की सामाजिक व्यवस्था की रक्षा करने वाले किले की तरह खड़ी रही जिसे बाहरी आक्रांताओं और मिशनरियों ने बार-बार तोड़ने की कोशिश की.

उन्होंने लिखा, ‘निश्चित ही हिंदू के जीवन का बड़ा चक्र, जिसमें उसकी मर्यादा, नैतिकता, उत्तरदायित्व और समुदाय से बंधुत्व की भावना शामिल है, जाति के इर्द-गिर्द घूमता है, जो व्यक्तिवाद केंद्रित ईसाई मान्यताओं के उलट है. वे जानते थे कि भारत को, इसके स्वाभिमान को तोड़ना है तो बंधन और जंजीर बता कर पहले जाति की एकता को तोड़ो.’

उन्होंने आगे लिखा, “वास्तव में हिंदू समाज की जाति व्यवस्था सदा आक्रांताओं के निशाने पर थी. मुगलों ने तलवार के बल पर और मिशनरियों ने ‘सेवा और सुधार’ की आड़ में इसे अपना निशाना बनाया। एक ने सिर पर मैला रखवाया तो दूसरे ने इसे असमानता और उत्पीड़न का स्रोत बताया. भारत को एक रखने वाला यह समीकरण जितना मुगलों को समझ नहीं आया, उससे ज्यादा बारीकी से मिशनरियों ने इसे समझा”

1908 में प्रकाशित बॉम्बे के पूर्व बिशप लुइस जॉर्ज माइल्ने की पु्स्तक ‘मिशन टू हिंदूज:अ कंट्रीब्यूशन टू द स्टडी आफ मिशनरी मेथड्स’ के हवाले से वह कहते हैं कि जाति को अपने आप में, अपने उचित परिवेश से अलग करके देखा जाए तो यह अनिवार्य रूप से एक सामाजिक व्यवस्था है, फिर भी यह हर व्यावहारिक उद्देश्य के लिए करोड़ों लोगों के धर्म का निर्माण करती है. और यह उनके व्यक्तिगत चरित्र के बीच संबंध की कड़ी के रूप में खड़ी है.’

यह कहते हुए कि औद्योगिक क्रांति के बाद पूंजीवादियों का भी मानना था कि भारतीय जाति व्यवस्था एक पहरेदार की तरह काम करती है. उन्होंने लिखा कि अंग्रेजों ने ढाका के उन हजारों बुनकरों की उंगलियां काट दीं जो बढ़िया मलमल बुन सकते थे। उन्होंने लिखा कि ढाका के महीन मलमल बुनने वाले हज़ारों जुलाहों की उंगलियां अंग्रेज़ों ने कटवा दी थी. क्योंकि पीढ़ी-दर-पीढ़ी जाति की सीढ़ी से उतरा यह कौशल ऐसा था, जिसके सामने मैनचेस्टर की विशालकाय मिल का कपड़ा घटिया और मोटा लगता था.

शंकर ने तर्क दिया कि राहुल द्वारा उठाए जाने वाले जाति के मुद्दे उपनिवेशवादियों के हमलों के समान हैं. ऐसा इसलिए है, क्योंकि, उन्होंने लिखा, क्योंकि, राहुल, उपनिवेशवादियों की तरह, “हिंदू एकता” को एक अपने लिए राजनीतिक बाधा के रूप में देखते हैं.

‘हलवा समारोह’ पर राहुल गांधी की टिप्पणी ‘दुश्मनों की राजनीति’ है

3 अप्रैल को इंडियन एक्सप्रेस में छपे एक लेख में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव और नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक इंडिया फाउंडेशन के अध्यक्ष राम माधव राहुल गांधी के ‘जाति की राजनीति’ पर प्रकाश डालते हैं.

माधव ने लिखा, ‘उनके (राहुल के) पिता राजीव गांधी ने सितंबर 1989 में मंडल आयोग पर एक बहस में कहा था कि वी.पी. सिंह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय मोर्चा सरकार देश में जातिगत तनाव पैदा कर रही है. राजीव ने याद दिलाने की कोशिश की कि उनकी पार्टी ने उनकी मां के नेतृत्व में 1980 में ‘न जात पर, न पात पर’ के नारे पर चुनाव लड़ा था.’

संसद में राहुल के ‘हलवा समारोह’ वाले बयान पर माधव ने कनाडा के लिबरल पार्टी के पूर्व नेता माइकल इग्नाटिफ़ के हवाले से कहा कि यह “दुश्मनों की राजनीति (Politics of Enemies)” है.

आगे उन्होंने कहा, “एक बार जब राजनीति का वह रूप शुरू हो जाता है, तो भाषा, व्यवहार और बांटने के तरीके राजनीतिक परिदृश्य पर हावी होने लगेगी. ऐसी ‘दुश्मनों की राजनीति’ राजनीतिक संस्थानों के द्वार तक ही सीमित नहीं रहती, बल्कि पारंपरिक और सोशल मीडिया के माध्यम से फैल सकती है और बड़े पैमाने पर नागरिकों को प्रभावित कर सकती है.”

उन्होंने कहा कि ‘देश का हलवा बन रहा है और 73 प्रतिशत लोग हैं ही नहीं’ जैसे बयान शुरुआत में हल्के या कम महत्वपूर्ण लग सकते हैं, लेकिन नेताओं को पता है कि बाद में इसका बड़ा असर होगा.

माधव ने आगे लिखा, “ऐसी राजनीति करने वाले नेता जानते हैं कि शुरू में लोग उनकी भाषा और विचारों को लेकर संशय में हो सकते हैं, लेकिन इस तरह की बयानबाजी को बार-बार दोहराने से उन्हें जुबानी जंग जीतने और भोले-भाले लोगों को धीरे-धीरे अपनी ओर करने में मदद मिलेगी. बस जरूरत है उदारता और ईमानदारी के दिखावे की.”

इग्नाटिफ़ के हवाले से माधव ने कहा कि “दुश्मनों की राजनीति’ को आकर्षक बनाने वाली बात यह है कि इसकी निर्ममता को अक्सर लोकतंत्र की रक्षा के रूप में पेश किया जाता है.”


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संगठित तरीके से हो रहा धर्मांतरण

राहुल द्वारा जाति के मुद्दे को उठाए जाने पर लिखने के अलावा, इस सप्ताह के पाञ्चजन्य ने उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में ब्यूटी एंड मेकअप इन्स्टीट्यूट लैक्मे फैशन एकेडमी की डायरेक्टर रक्षंदा खान द्वारा युवा हिंदू पुरुषों और महिलाओं के कथित रूप से इस्लाम में धर्मांतरण के मुद्दे पर भी प्रमुखता से लिखा.

लेख में, अनुरोध भारद्वाज ने लिखा कि अब यह धर्मांतरण उन लोगों द्वारा करवाया जा रहा है जो गैर-मुस्लिम थे और अब इस्लाम में धर्मांतरण कर लिया है.

भारद्वाज ने लिखा है कि डेढ़ दशक पहले हिंदू रही रक्षंदा खान (पूर्व में सपना सिंह) शादीशुदा हिंदू युवतियों को बिंदी, सिंदूर लगाने और कलावा पहनने की अनुमति नहीं देती थी.

वह लिखते हैं कि, “हद तो तब हो गई, जब रक्षंदा खान हिंदू छात्राओं को मुस्लिम छात्रों वाले ग्रुप में शामिल कर उन पर लड़कों से दोस्ती करने का दबाव बनाने लगी. विरोध करने पर हिंदू छात्र-छात्राओं को तरह-तरह से परेशान किया जाता था. वह तीन तलाक और हलाला का कभी जिक्र नहीं करती थी, पर नमाज़ पढ़ने, इस्लाम कबूलने के कल्पित फायदे गिनाती थी.”

पिछले साल गाजियाबाद में पुलिस द्वारा पकड़े गए कथित अंतरराष्ट्रीय गिरोह के बारे में बात करते हुए भारद्वाज ने कहा, “गिरोह का सरगना अपने लोगों की बजाए उन लोगों को कन्वर्ज़न का जिम्मा सौंपता था, जो खुद कन्वर्टेड होते थे. इस मामले में पुलिस ने तीन लोगों को गिरफ्तार किया था, जो इस्लाम कबूल चुके थे. उनके निशाने पर पढ़े-लिखे हिंदू युवक-युवतियां थीं, जिन्हें कन्वर्ट कर फिदायीन बनाया जाता था.”

उन्होंने कहा, “जिस राहिल ने गाजियाबाद की युवती को लव जिहाद में फंसाकर उसका ब्रेनवॉश किया और मानव बम बनाया, वह पहले हिंदू था और उसका नाम राहुल अग्रवाल था.”

‘अर्बन नक्सल’ मुसलमानों को ‘पीड़ित’ और हिंदुओं को ‘फासीवादी’ बताते हैं

इस सप्ताह आरएसएस के अंग्रेजी मुखपत्र ऑर्गनाइजर पत्रिका में लेखक और शोधकर्ता बिनय कुमार सिंह और स्तंभकार दिव्यांश काला ने लिखा कि “अर्बन नक्सल” मुसलमानों को “पीड़ित” और हिंदुओं को “फासीवादी” के रूप में चित्रित करने के अपने खतरनाक एजेंडे को आगे बढ़ाना चाहते हैं.

महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रस्तावित एक विधेयक का हवाला देते हुए, लेख में कहा गया, “सीपीआई (माओवादी) भारत में सक्रिय सबसे बड़ा वामपंथी उग्रवादी संगठन है. यह इस साल दर्ज की गई कुल नक्सली हिंसा के लगभग 80 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार है.”

इसमें आगे कहा गया है कि “दलितों, सिखों और ईसाइयों का उल्लेख भी रणनीतिक रूप से किया गया है और इन तीनों को पूरे हिंदू समुदाय के खिलाफ़ खड़ा करने की कोशिश की गई.”

यह बताते हुए कि अर्बन नक्सल इस्लामवादियों और मिशनरियों के साथ सहयोग करते हैं, लेख में कहा गया है, “निकट भविष्य में, देश में इसी पैटर्न पर विभिन्न मुद्दों पर कई और विरोध प्रदर्शन देखने को मिलेंगे. उनके एजेंडे के कार्यान्वयन के साथ-साथ विचारधाराओं के प्रचार के लिए सिविल सोसायटीज़ एक नया सक्रिय मंच बन जाएंगी.”

मूल निवासी दिवस, एक दुष्प्रचार

इस सप्ताह ऑर्गेनाइज़र के संपादकीय में प्रफुल्ल केतकर ने पश्चिमी देशों द्वारा इंटरनेशनल डे ऑफ वर्ल्ड इंडीजेनस पीपल्स के सेलिब्रेशन के बारे में लिखा, जिसे आमतौर पर इंडीजेनस पीपल्स डे या राजनीतिक भाषा में मूलनिवासी दिवस कहा जाता है. 9 अगस्त को प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला यह दिन संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वदेशी समुदायों की विविधता और योगदान का जश्न मनाने के दिन के रूप में मान्यता प्राप्त है.

केतकर ने कहा कि यह दिन भारत जैसे देशों पर उपनिवेशवादियों के सामूहिक अपराध को थोपने का एक साधन है, जो “सदियों से विभिन्न परंपराओं और धार्मिक प्रथाओं के साथ विभिन्न जनजातियों के साथ रह रहे हैं”.

इंडीजेनस पीपल्स डे को मनाने के पीछे के एजेंडे को उजागर करते हुए केतकर ने लिखा, “क्रिस्टोफर कोलंबस द्वारा अमेरिका की खोज किए जाने का दावा ही उपनिवेशवादियों का एक खराब और वर्चस्ववादी नैरेटिव है. कोलंबस के अक्टूबर 1492 में अमेरिकी तट पर पहुंचने और वहां ‘प्रगति व ज्ञान’ का प्रसार करने के मिथक का स्रोत वाशिंगटन इरविंग द्वारा 1828 में प्रकाशित एक पुस्तक है, जिसका शीर्षक था- ए हिस्ट्री ऑफ द लाइफ एंड वॉयजेज़ ऑफ क्रिस्टोफर कोलम्बस.”

उन्होंने आगे लिखा, “वास्तव में, कोलंबस और कैथोलिक चर्च के प्रतिनिधियों ने स्वदेशी समुदायों (Indigenous Communities) को एक विनाशकारी और अस्तित्वगत झटका दिया, जो कि अलग-अलग विश्वास और परंपराओं का पालन करते थे. इन्होंने स्थानीय लोगों की भूमि छीन ली, लोगों को मार डाला और गुलाम बना लिया, उनके संसाधनों को लूट लिया, महिलाओं के साथ बलात्कार किया, बच्चों का अपहरण किया, संधियों को तोड़ा और सदियों तक संपत्ति और सामानों को लूटा.”

केतकर ने लिखा, “इंडीजेनस पीपल्स डे केवल उन देशों में ही क्यों मनाया जाता है जो किसी समय उपनिवेश थे? वे कौन लोग थे जिन्होंने समुदायों को धर्मांतरित करने के लिए अमानवीय तरीकों का इस्तेमाल किया? सभ्य (Civilised) और आदिवासी के बीच के इस कानूनी वर्गीकरण के कारण क्या थे? क्यों वही समूह अन्य सभी भारतीय लोगों को बाहरी बताकर धर्मांतरण को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करना जारी रखते हैं?”

अनुसूचित जनजातियों को “भारतीय समाज का अभिन्न अंग” बताते हुए उन्होंने लिखा, “सभी भारतीय, चाहे वे किसी भी धर्म, भाषा और परंपराओं के हों, भारत के मूल निवासी हैं. वे केवल नागरिक ही नहीं हैं, बल्कि भारत के अभिन्न अंग हैं, जिनके वंश, संस्कृति और मातृभूमि एक ही हैं.”

केतकर ने कहा, “सौभाग्य से सरकार ने 15 नवंबर को महान स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा की जयंती पर जनजाति गौरव दिवस मनाकर और स्वतंत्रता संग्राम में अनुसूचित जनजातियों के योगदान का सम्मान करके उन्हें मान्यता दी है.”

डिस्क्लेमर: इस लेख में मेनस्ट्रीम मीडिया के समाचार प्रकाशनों से हिंदुत्व-समर्थक लेखकों के लेख भी शामिल हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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