नयी दिल्ली, सात जून (भाषा) भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) बी आर गवई ने कहा कि न्यायिक निर्णय लेने में प्रौद्योगिकी को मानव मस्तिष्क का स्थान नहीं लेना चाहिए, बल्कि उसका पूरक होना चाहिए। उन्होंने रेखांकित किया कि न्यायिक निर्णय लेते समय विवेक, सहानुभूति और न्यायिक व्याख्या का स्थान कोई नहीं ले सकता।
न्यायमूर्ति गवई लंदन विश्वविद्यालय से संबद्ध स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज (एसओएएस) में ‘भारतीय कानूनी प्रणाली में प्रौद्योगिकी की भूमिका’ विषय पर आयोजित व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका स्वचालित वाद सूचियों, ‘डिजिटल कियोस्क’ और आभासी सहायकों जैसे नवाचारों का स्वागत करती है, लेकिन उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मानवीय निगरानी, नैतिक दिशानिर्देश और मजबूत प्रशिक्षण उनके कार्यान्वयन का अभिन्न अंग हों।
न्यायमूर्ति गवई ने कहा, ‘‘विवेक, सहानुभूति और न्यायिक व्याख्या का मूल्य अपूरणीय है।’’ उन्होंने बताया कि भारतीय न्यायपालिका देश की संवैधानिक और सामाजिक वास्तविकताओं के अनुरूप घरेलू नैतिक ढांचे के विकास को लेकर बेहतर स्थिति में है।
न्यायमूर्ति गवई ने कहा, ‘‘हमारे पास तकनीकी विशेषज्ञता, न्यायिक दूरदर्शिता और लोकतांत्रिक जनादेश है, जिससे हम ऐसी प्रणालियां विकसित कर सके जो समानता, सम्मान और न्याय के हमारे मूल्यों को प्रतिबिंबित करती हों।’’
उन्होंने कहा, ‘‘वास्तव में, भारत के प्रधान न्यायाधीश के रूप में पदभार ग्रहण करने के बाद पहले ही सप्ताह में, मैंने न्यायपालिका में कृत्रिम बुद्धिमत्ता और उभरती प्रौद्योगिकियों के नैतिक उपयोग पर एक व्यापक नोट तैयार करने के लिए उच्चतम न्यायालय के अनुसंधान और योजना केंद्र के साथ चर्चा शुरू की थी।’’
सीजेआई ने कहा, ‘‘न्यायिक निर्णय लेने में प्रौद्योगिकी को मानव मस्तिष्क का स्थान नहीं लेना चाहिए, बल्कि उसका पूरक होना चाहिए।’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘हमेशा इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि प्रौद्योगिकी का उपयोग विश्वास और पारदर्शिता बढ़ाने के लिए किया जाए – न्याय के मूल में मानवीय विवेक का स्थान लेने के लिए नहीं।’’
उन्होंने कहा कि यद्यपि न्यायपालिका ने प्रौद्योगिकी को अपनाना शुरू कर दिया है, लेकिन न्यायिक प्रक्रियाओं में कृत्रिम-बुद्धिमत्ता (एआई) के इस्तेमाल के साथ – केस प्रबंधन से लेकर कानूनी अनुसंधान, दस्तावेज अनुवाद और यहां तक कि पूर्वानुमान विश्लेषण तक – सावधानी बरती जानी चाहिए।
सीजेआई ने रेखांकित किया, ‘‘दुनिया भर में कानूनी प्रणालियों में एआई के नैतिक उपयोग के बारे में बहस चल रही है। इसमें एल्गोरिदम संबंधी पूर्वाग्रह, गलत सूचना, आंकड़ों में हेरफेर और गोपनीयता का उल्लंघन शामिल है। उदाहरण के लिए, अपराध पीड़ित की पहचान जैसी संवेदनशील जानकारी को एआई त्रुटि या स्पष्ट प्रोटोकॉल की अनुपस्थिति के कारण कभी भी प्रकट नहीं किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, हाल के कुछ मामलों से पता चला है कि अगर एआई उपकरणों का उचित रूप से विनियमन और निगरानी नहीं की जाती है, तो वे मनगढ़ंत उद्धरण या पक्षपातपूर्ण सुझाव दे सकते हैं।’’
न्यायमूर्ति गवई ने अपने संबोधन के समापन पर कहा, ‘‘मेरा दृढ़ विश्वास है कि न्याय तक पहुंच केवल न्यायपालिका की जिम्मेदारी नहीं है। यह एक साझा राष्ट्रीय प्रतिबद्धता है। विधि विद्यालयों, नागरिक समाज, कानूनी सहायता संस्थानों और सरकारों को ऐसे तकनीकी मॉडल विकसित करने और बढ़ावा देने के लिए एकजुट होकर काम करना चाहिए जो सुलभ, पारदर्शी और समावेशी हों।’’
इस बीच, लंदन अंतरराष्ट्रीय विवाद सप्ताह के अवसर पर आयोजित सिंगापुर अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र (एसआईएसी) और ट्राइलीगल के संयुक्त कार्यक्रम में, सीजेआई गवई ने मध्यस्थता को महत्वपूर्ण करार दिया। उन्होंने कहा कि हाल के दशकों में न्याय प्रक्रिया, जो पहले केवल अदालतों की चारदीवारी तक सीमित थी, ने वैकल्पिक विवाद समाधान के तरीकों में एक महत्वपूर्ण बदलाव देखा है और मध्यस्थता इस परिवर्तन के एक प्रमुख स्तंभ के रूप में उभरी है।
भाषा धीरज पवनेश
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