नई दिल्ली: दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने निचली अदालत के न्यायाधीश के कथित यौन दुराचार के खिलाफ एक जांच शुरू कर दी है. अभी कुछ दिनों पहले जज का एक स्टेनोग्राफर के साथ आपत्तिजनक स्थिति में बना वीडियो ऑनलाइन लीक हो गया था. दिप्रिंट को यह जानकारी मिली है.
सूत्रों ने बताया कि दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा ने बुधवार को जज जितेंद्र कुमार मिश्रा को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया है.
महिला स्टेनोग्राफर की याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट की एक पीठ ने बुधवार देर रात सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को वीडियो के सभी सर्कुलेशन को ब्लॉक करने आदेश दिया. क्या कोई अपराध किया गया था, इसे लेकर पुलिस ने अभी तक एक आपराधिक जांच शुरू नहीं की है.
नाम न छापने की शर्त पर एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘न्यायपालिका मामले की जांच कर रही है. हमें अभी तक पीड़िता की ओर से कोई शिकायत या कोई संदर्भ नहीं मिला है.’
एक दूसरे वरिष्ठ अधिकारी ने समझाते हुए कहा कि हालांकि पुलिस स्वत: संज्ञान लेते हुए मामला दर्ज कर सकती है. लेकिन ज्यादातर मामलों में तभी एफआईआर दर्ज की जाती है जब पीड़ित शिकायत को लेकर पुलिस के पास आता है. कई बार पुलिस पीड़िता से संपर्क करके भी पूछती है कि क्या वह एक आधिकारिक शिकायत दर्ज करना चाहती है. अधिकारी ने आगे बताया, ‘इस मामले में यह स्पष्ट नहीं है कि ये संबंध सहमति से बनाए गए थे या फिर मजबूरी में. जांच की जा रही है (दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा) और आगे की कार्रवाई उसी के अनुसार की जाएगी.’
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जिस वीडियो को दिप्रिंट ने एक्सेस किया है, उसे देखकर ऐसा लग रहा है कि स्टेनोग्राफर मिश्रा के आगे बढ़ने का बार-बार विरोध कर रही थी.
अदालत ने अपने आदेश में कहा ‘वीडियो की कामुक प्रकृति को देखते हुए और इससे वादी की निजता को संभावित नुकसान को ध्यान में रखते हुए, एकपक्षीय सुनवाई के आधार पर रोक जरूरी है.’ इसकी एक प्रति दिप्रिंट के पास है.
इसमें आगे कहा गया ‘अपमानजनक वीडियो को शेयर करने, डिस्ट्रीब्यूशन, फॉरवर्ड या पोस्ट करने पर तत्काल रोक लगाई जाती है.’
‘गिरफ्तारी से छूट नहीं, इसलिए कि वह जज हैं’
दिप्रिंट से बात करते हुए सीनियर एडवोकेट गीता लूथरा ने समझाया कि लीक हुए वीडियो में नजर आ रहा है कि अदालत परिसर के भीतर कदाचार किया गया है. यकीनन यह सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है. उन्होंने कहा कि उच्च न्यायालय इसके न्यायिक पक्ष या प्रशासनिक पक्ष पर गौर करेगा और एक इंक्वायरी बैठाई जाएगी.
उन्होंने कहा, ‘अगर व्यक्ति शिकायत करने के लिए आगे आता है और कहता है कि यह उसकी बिना-सहमति के किया गया है तो इसके लिए सजा भी दी जा सकती है.’
लूथरा ने समझाया कि जज के खिलाफ एक क्रिमिनल केस तभी चलाया जा सकता है जब उस मामले की शिकायत दर्ज की जाएगी. उन्होंने कहा, ‘आप पहले यह नहीं कह सकते कि यह सहमति से है या नहीं … आमतौर पर शिकायतकर्ता को आगे आने होगा. क्योंकि ये संज्ञेय अपराध हैं और इसलिए संज्ञान लिया जा सकता है. ऐसे में आमतौर पर आप किसी ऐसे व्यक्ति से अपेक्षा करेंगे, जिसके पास शिकायत करने का अधिकार है.’
उन्होंने जोर देकर कहा कि मिश्रा सिर्फ इसलिए नहीं बच सकते हैं क्योंकि वह एक जज हैं. सिर्फ एक मंजूरी की जरूरत है, धारा 197 के तहत मंजूरी आ सकती है और यह किसी भी समय आ सकती है… यह उनके न्यायिक कर्तव्यों के निर्वहन में कार्य करने या कार्य करने के लिए नहीं आता है. किसी भी मामले में कदाचार के दृष्टिकोण से आप कह सकते हैं कि वह अपने अधिकारों का दुरुपयोग नहीं कर सकते हैं. तो कार्यस्थल पर दुराचार और यौन उत्पीड़न को लेकर सभी सवाल उठाए जाएंगे.’
दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 197 अदालतों को किसी भी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ किसी भी अपराध का संज्ञान लेने से रोकती है जो न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट या लोक सेवक है या था, जब वे किसी भी अपराध के आरोपी हैं जो कथित तौर पर उनके द्वारा किया गया है. आईपीसी की धारा 197 के तहत मंजूरी की आवश्यकता होती है.
वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने लूथरा के कानूनी आकलन से सहमति जताते हुए कहा कि धारा 197 के तहत मुकदमा चलाने के लिए पर्याप्त मंजूरी की जरूरत होगी. लेकिन अगर महिला द्वारा शिकायत दर्ज कराई जाती है तो जांच के लिए मंजूरी की जरूरत नहीं होगी.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘उन्हें (मिश्रा) कारण बताओ नोटिस दिया जाना चाहिए और सरसरी तौर पर सस्पेंड कर दिया जाना चाहिए. इस सबूत के बाद उनके पास कोई स्पष्टीकरण नहीं है…. उनके खिलाफ कड़ी से कड़ी और तेजी से कार्रवाई करते हुए एक उदाहरण स्थापित करना चाहिए.’
वरिष्ठ अधिवक्ता के.टी.एस. तुलसी ने कहा कि संभावित तौर पर मंजूरी की जरूरत नहीं है क्योंकि आरोप न्यायाधीश के आधिकारिक कर्तव्यों से संबंधित नहीं थे. उन्होंने कहा, ‘न्यायाधीश के खिलाफ कानून के अनुसार कार्यवाही शुरू करने पर कोई रोक नहीं है … यह एक न्यायाधीश के रूप में उनके कर्तव्यों का हिस्सा नहीं है. इसलिए, मुझे नहीं लगता है कि धारा 197 के तहत किसी मंजूरी की जरूरत है.’
अनुवाद: संघप्रिया मौर्या
संपादन: इन्द्रजीत
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