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Monday, 18 November, 2024
होमदेशED गुजरात, UAPA, सेंट्रल विस्टा- SC जज खानविलकर ने अपने फैसलों से ‘सरकार समर्थक’ छवि बनाई

ED गुजरात, UAPA, सेंट्रल विस्टा- SC जज खानविलकर ने अपने फैसलों से ‘सरकार समर्थक’ छवि बनाई

हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रह चुके जस्टिस ए.एम. खानविलकर सुप्रीम कोर्ट में छह साल सेवाएं देने के बाद 29 जुलाई को रिटायर हुए हैं.

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नई दिल्ली: प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को मिली शक्तियों का समर्थन करते हुए धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) के प्रावधानों में कई विवादास्पद संशोधनों को बरकरार रखने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले की पिछले महीने विभिन्न स्तरों पर खासी आलोचना हुई थी.

अन्य बातों के अलावा, फैसले में कानून के तहत जमानत के कड़े प्रावधानों और किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के संदर्भ में ईडी को मिली व्यापक शक्तियों को बरकरार रखा गया है. इसने पीएमएलए में उन प्रावधानों को भी बरकरार रखा जिसमें खुद को निर्दोष साबित करने का उत्तरदायित्व प्रतिवादियों पर होता है. जबकि सामान्य तौर पर अन्य कानूनों के तहत मामले को संदेहों से परे साबित करने की जिम्मेदारी अभियोजन पक्ष पर होती है.

फैसला आने के बाद व्यक्तिगत स्वतंत्रता के खिलाफ करार देते हुए इसकी खासी आलोचना की गई, जैसा शिक्षाविद प्रताप भानु मेहता ने लिखा कि ‘अधिकारों के संरक्षक होने के बजाये सर्वोच्च न्यायालय अब इसके लिए एक बड़ा खतरा बन गया है.’

संसद में कांग्रेस सांसदों ने केंद्र सरकार की तरफ से ईडी के कथित दुरुपयोग के खिलाफ जमकर नारेबाजी भी की थी.

यह फैसला उन कुछ विवादस्पद फैसलों में शामिल हैं जो 65 वर्षीय जस्टिस ए.एम. खानविलकर ने सुप्रीम कोर्ट में अपने छह साल के कार्यकाल के दौरान सुनाए हैं.

जस्टिस खानविलकर 29 जुलाई को रिटायर हुए हैं और उन्होंने अपने पीछे कई ऐसे फैसलों की विरासत छोड़ी है जो आलोचकों की नजर में आम तौर पर मोदी सरकार के रुख के अनुरूप थे.

वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने दिप्रिंट से कहा कि जस्टिस खानविलकर की विरासत ‘बहुत निराशाजनक’ है, जबकि वरिष्ठ अधिवक्ता मीनाक्षी अरोड़ा ने कहा कि पीएमएलए पर उनका फैसला ‘हम सभी को एडीएम जबलपुर फैसले की पुनरावृत्ति लगता है.’

एडीएम जबलपुर फैसला अप्रैल 1976 में आपातकाल के दौरान का है. आपातकाल के दौरान एक विवादास्पद आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कोई भी अदालत से किसी तरह की राहत नहीं मांग सकता क्योंकि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार निलंबित कर दिया गया है—भले ही हिरासत का आदेश कानूनी अधिकारों से परे या दुर्भावनापूर्ण या अनधिकृत क्यों न हो.

1957 में पुणे में जन्मे खानविलकर ने फरवरी 1982 में बतौर वकील अपना करियर शुरू किया. मार्च 2000 में बॉम्बे हाई कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत हुए. उन्होंने 4 अप्रैल 2013 को हिमाचल प्रदेश के मुख्य न्यायाधीश के तौर पर कार्यभार संभालने से पहले करीब एक दशक तक अदालत में अपनी सेवाएं दीं.

नवंबर 2013 में उन्हें मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया.

जस्टिस खानविलकर मई 2016 में सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत किए गए और वह कई महत्वपूर्ण बेंच का हिस्सा रहे, जिसमें आधार (2018) और सबरीमाला (2018) जैसे ऐतिहासिक फैसले सुनाने वाली संवैधानिक पीठ शामिल हैं.

सुप्रीम कोर्ट में अपने कार्यकाल के दौरान, उनके फैसलों ने पीएमएलए और विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम (एफसीआरए) में मोदी सरकार के संशोधनों की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा.

बेंच, जिसमें वह भी शामिल थे, की तरफ से जारी आदेश ने ही कठोर गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत आरोपी किसी भी व्यक्ति के लिए जमानत पाना कठिन बना दिया और सरकार को याचिकाकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई में सक्षम बना दिया.

शीर्ष कोर्ट में अपने अंतिम दो वर्षों के दौरान जस्टिस खानविलकर—जो अपनी सेवानिवृत्ति से पहले सुप्रीम कोर्ट के तीसरे सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश थे—उन बेंच का हिस्सा रहे जिन्होंने कम से कम तीन महत्वपूर्ण मामलों का फैसला सुनाया था.

सेंट्रल विस्टा को हरी झंडी

जनवरी 2021 में, जस्टिस खानविलकर ने सेंट्रल विस्टा पुनर्विकास परियोजना को हरी झंडी दिखाने वाला एक फैसला सुनया. बहुमत की राय वाले इस फैसले में वह जस्टिस दिनेश माहेश्वरी के साथ थे जबकि जस्टिस संजीव खन्ना ने इससे असहमति जताई थी.

यह फैसला सुनाने से नौ महीने पहले जस्टिस खानविलकर और जस्टिस माहेश्वरी ने मार्च 2020 में सेंट्रल विस्टा परियोजना को चुनौती देने वाली सभी याचिकाओं को दिल्ली हाई कोर्ट से शीर्ष अदालत में स्थानांतरित करा लिया था.

गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) की विदेशी फंडिंग

इस साल अप्रैल में जस्टिस खानविलकर की अध्यक्षता में तीन-न्यायाधीशों की एक अन्य बेंच ने गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) के विदेशी फंडिंग लेने और उसका इस्तेमाल करने को लेकर कड़ाई बरतते हुए एफसीआरए में संशोधन को बरकरार रखा.

फैसले में कहा गया, ‘हमारे देश के भीतर दानदाताओं की कोई कमी नहीं है’, और ‘किसी भी देश की आकांक्षाएं विदेशी दान की उम्मीदों से नहीं बल्कि अपने नागरिकों के दृढ़ और सशक्त दृष्टिकोण से पूरी हो सकती हैं. इसने यह भी कहा था कि विदेशी चंदा प्राप्त करना ‘पूर्ण अधिकार’ नहीं हो सकता.


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ईडी की शक्तियों का दायरा

सेवानिवृत्ति से दो दिन पहले ही जस्टिस खानविलकर ने पीएमएलए, 2002 के कुछ प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली 241 याचिकाओं को खारिज करते हुए एक फैसला लिखा.

ईडी को मजबूती देने वाले माने जा रहे इस फैसले में मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप में कानून के तहत बुक किए गए किसी भी व्यक्ति के लिए कठोर जमानत शर्तों को बरकरार रखा गया, साथ ही खुद को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी भी आरोपी पर ही डाली गई है.

इसने कई मामलों में ईडी को मिली शक्तियों के दायरे को बरकरार रखा, जिसमें तलाशी और जब्ती का अधिकार, एजेंसी के समक्ष स्वीकारोक्ति वाले बयानों की स्वीकार्यता, और एजेंसी को प्रवर्तन मामले की सूचना रिपोर्ट (जो ईडी के लिए एफआईआर की तरह है) की एक प्रति अनिवार्य तौर पर आरोपी को मुहैया कराने से छूट आदि शामिल हैं.

यूएपीए के तहत जमानत

यह देखते हुए गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1967 नियमित आपराधिक मामलों से कुछ अलग है और इसमें जमानत एक नॉर्म है और ट्रायल से पहले जेल अपवाद है.

हालांकि, यूएपीए की धारा 43डी(5) कहती है कि अध्याय IV (आतंकवाद) और VI (आतंकवादी संगठन से संबंधित) के तहत अपराध के आरोपी किसी व्यक्ति को जमानत पर रिहा नहीं किया जाएगा यदि अदालत केस डायरी और पुलिस रिपोर्ट देखने के बाद यह ‘राय बनाती है कि संबंधित व्यक्ति के खिलाफ आरोपों को प्रथम दृष्टया सच मानने के लिए पर्याप्त आधार है.’

अप्रैल 2019 में, जस्टिस खानविलकर की अगुआई वाली बेंच की तरफ से जहूर वटाली मामले में की गई इस प्रावधान की व्याख्या ने यूएपीए के तहत जमानत प्राप्त करना और भी कठिन बना दिया है.

दिल्ली हाई कोर्ट ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की ओर से कश्मीरी व्यापारी जहूर अहमद शाह वटाली के खिलाफ बनाए गए केस की सुनवाई करते हुए 2018 में यूएपीए के इस प्रावधान के तहत उसे जमानत दे दी थी.

हाई कोर्ट ने इसका आधार यह बनाया था कि जांच एजेंसी के पास वटाली के खिलाफ सामग्री थी, लेकिन सुनवाई के दौरान बतौर साक्ष्य इसमें काफी कुछ स्वीकार्य नहीं था.

हालांकि, अगले वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने उस मामले में हाई कोर्ट के दृष्टिकोण को ‘अनुचित’ करार दिया.

पीठ ने कहा कि जमानत के स्तर पर हाई कोर्ट के लिए किसी आरोपी के खिलाफ सबूतों को आंकना आवश्यक नहीं है, और एजेंसी की तरफ से उपलब्ध कराई गई सामग्री को पूरी तरह देखने के बाद यह तय करना है कि क्या प्रथम दृष्टया कोई मामला बनता है.

इसका मतलब यह था कि, जमानत के स्तर पर निचली अदालतें इस पर गौर नहीं कर सकती थीं कि क्या किसी आरोपी के खिलाफ पेश किए जा रहे सबूत—जैसे अहस्ताक्षरित, अप्राप्य दस्तावेज—मुकदमे के दौरान स्वीकार्य होंगे.

शीर्ष अदालत को तबसे इस प्रावधान की व्याख्या के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा है, जैसा क्रिमिनल लायर अभिनव सेखरी कहते हैं कि ‘सुप्रीम कोर्ट ने निश्चित तौर पर ऐसी कानूनी स्थिति को चुना है जो लंबी अवधि के लिए विचाराधीन हिरासत की संभावना को बढ़ाती है.’

अप्रैल 2019 के बाद से दिल्ली दंगों और भीमा कोरेगांव मामलों सहित, आरोपियों की जमानत खारिज करने के लिए लगभग सभी यूएपीए फैसलों में इसी व्याख्या का हवाला दिया गया है.

जस्टिस खानविलकर का भीमा कोरेगांव मामले से एक और संबंध है—इस मामले में शुरुआती कुछ गिरफ्तारियों के कुछ महीनों बाद सितंबर 2018 में उन्होंने एक फैसला सुनाया था.

अगस्त 2018 में इतिहासकार रोमिला थापर और चार अन्य विद्वानों ने मामले की स्वतंत्र जांच की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर दस्तक दी थी और शुरुआती जांच करने वाली पुणे पुलिस के खिलाफ कथित ‘अभद्रता’ की शिकायत की थी.

हालांकि, इन याचिकाओं को 2:1 के बहुमत से खारिज कर दिया गया, जिसमें जस्टिस खानविलकर बहुमत के फैसले की तरफ थे जबकि जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने इसका विरोध किया था.

याचिकाकर्ताओं को दंडित करना

अपने अंतिम दो महीनों के कार्यकाल के दौरान जस्टिस खानविलकर की पीठ दो ऐसे फैसले सुनाए जिनकी व्याख्या सरकारी मशीनरी को कोर्ट का दरवाजा खटखटाने वाले याचिकाकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई का आधार मुहैया कराती है.

24 जून को जस्टिस खानविलकर की अध्यक्षता वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने 2002 के गुजरात दंगों के पीछे एक ‘बड़ी साजिश’ के दावों को निराधार करते हुए याचिकाकर्ता जकिया जाफरी की याचिका खारिज कर दी, जिसमें गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को विशेष जांच दल की तरफ से मिली क्लीन चिट को चुनौती दी गई थी. फैसले में ये टिप्पणी भी की गई कि जो लोग ‘बार-बार साजिश का आरोप लगाते रहते हैं, उन्हें कठघरे में खड़ा किए जाने की जरूरत है.’

हालांकि, सामान्य परंपरा के विपरीत, फैसले में यह लिखने वाले न्यायाधीश के नाम का उल्लेख नहीं था.

इस फैसले के एक दिन बाद ही अहमदाबाद में डिटेक्शन ऑफ क्राइम ब्रांच की तरफ से जाफरी की सह-याचिकाकर्ता तीस्ता सीतलवाड़, सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी आरबी श्रीकुमार और पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई थी.

यद्यपि सीतलवाड़ और श्रीकुमार को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया और भट्ट—जो पहले से ही 27 साल पुराने एक मामले में जेल में बंद थे—को पिछले महीने गिरफ्तार किया गया.

14 जुलाई को जस्टिस खानविलकर और जस्टिस जे.बी. पारदीवाला की अगुवाई वाली एक अन्य पीठ ने एक एक्टिविस्ट के खिलाफ 5 लाख रुपये का जुर्माना लगा दिया, जिसने छत्तीसगढ़ पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा बलों की तरफ से 2009 में दंतेवाड़ा में माओवादी विरोधी अभियानों के दौरान कथित न्यायेतर हत्याओं की सीबीआई जांच की मांग करने वाली एक याचिका दायर की थी.

कोर्ट ने केंद्र सरकार के उस आवेदन को स्वीकार कर लिया जिसमें ‘उन लोगों की पहचान करने और उन पर मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी गई थी जिन्होंने सुरक्षा बलों को दोषी ठहराते हुए झूठे बयान दिए और साजिश रची.’

याचिकाकर्ता हिमांशु कुमार ने बाद में सार्वजनिक रूप से दावा किया कि वह जुर्माना नहीं भरेंगे, उन्होंने कहा, ‘मुझे पता है कि मैं जेल जाऊंगा. लेकिन जुर्माना भरने का मतलब यह स्वीकार करना होगा कि मैंने कुछ गलत किया है.’


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सबरीमाला यू-टर्न

जस्टिस खानविलकर सितंबर 2018 में पांच-न्यायाधीशों वाली दो प्रमुख संविधान पीठों का भी हिस्सा रहे.

इनमें से एक पीठ ने कुछ कानूनी प्रावधानों को रद्द करते हुए आधार अधिनियम की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा.

एक अन्य खंडपीठ ने 4:1 बहुमत के साथ केरल के सबरीमाला में पहाड़ी पर स्थित भगवान अयप्पा के मंदिर में 10 से 50 वर्ष की आयु वाली महिलाओं और लड़कियों के प्रवेश पर पाबंदी को हटा दिया. कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि सदियों पुरानी धार्मिक प्रथा असंवैधानिक और अवैध थी.

भारत के तत्कालीन चीफ जस्टिस (सीजेआई) दीपक मिश्रा और जस्टिस खानविलकर, चंद्रचूड़ और रोहिंटन नरीमन ने बहुमत से फैसला सुनाया, जबकि जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने असहमति जताई. इसमें जस्टिस खानविलकर को छोड़कर सभी न्यायाधीशों ने अपनी अलग-अलग राय लिखी जबकि खानविलकर ने तत्कालीन सीजेआई की राय से सहमति जताई.

बाद में इस फैसले को चुनौती देने वाली पुनर्विचार याचिकाएं दायर की गईं. फैसले की समीक्षा आमतौर पर वही बेंच करती है, जिसने मूल निर्णय सुनाया हो. हालांकि, चूंकि जस्टिस मिश्रा तब तक सेवानिवृत्त हो चुके थे, इसलिए उनकी जगह नए मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को पीठ में शामिल किया गया.

नवंबर 2019 में नई पीठ ने—3:2 बहुमत के साथ—सबरीमाला फैसले की शुचिता को लेकर कुछ सवालों को व्याख्या के लिए मामला एक बड़ी बेंच के पास भेजने का निर्णय किया. बहुमत की राय वाले तीन न्यायाधीश जस्टिस गोगोई (जो पहली बार यह केस सुन रहे थे), जस्टिस मल्होत्रा (जिन्होंने पहले असहमति जताई थी) और जस्टिस खानविलकर थे.

यद्यपि अन्य न्यायाधीश जहां अपने पहले के फैसले पर अडिग, केवल जस्टिस खानविलकर ने ही अपने पहले के फैसले पर संदेह जताया.

हालांकि, इन दोनों ही मौकों पर उन्होंने कोई अलग राय नहीं लिखी, बल्कि उस समय के चीफ जस्टिस की लिखी राय का ही समर्थन करने का फैसला किया.

बहरहाल, इस माह के शुरू में कन्फेडरेशन ऑफ एलुमनी फॉर नेशनल लॉ यूनिवर्सिटीज फाउंडेशन (कैन फाउंडेशन) की तरफ से आयोजित एक विदाई समारोह में जस्टिस खानविलकर ने सामाजिक परिवर्तन के लिए कानूनी शिक्षा पर जोर दिया और बताया कि वकीलों को मानवता की सेवा के लिए कैसे काम करना चाहिए.

उन्हें यह कहते उद्धृत किया गया, ‘पेशेवर जीवन में, हमें मानवता के लिए सेवा करने वाले ईमानदार, सम्मानित और मेहनती नागरिक बनने का प्रयास करना चाहिए.’

‘बहुत निराशाजनक रहा कार्यकाल’

जस्टिस खानविलकर के फैसलों के संबंध में टिप्पणी करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने कहा कि उनकी ‘विरासत बहुत निराशाजनक है.’

दवे ने दिप्रिंट से कहा, ‘विशेषकर मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बनने और फिर सुप्रीम कोर्ट आने के बाद अपने करियर में उन्होंने जो न्यायिक दृष्टिकोण अपनाया है, वह बहुत निराशाजनक रहा है.’

सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष, दवे ने जस्टिस खानविलकर को ‘बहुत ज्यादा व्यवस्था-समर्थक’ करार दिया.

उन्होंने कहा, ‘एक न्यायाधीश के तौर पर आपको पूरी तरह स्वतंत्र होना चाहिए और किसी भी चीज और हर चीज़ का बचाव नहीं करना चाहिए… न्यायाधीशों को हर चीज का ध्यान रखना चाहिए, वे कार्यपालिका को वह नहीं करने दे सकते जो वह करना चाहती है.’

जाकिया जाफरी और हिमांशु कुमार मामलों में जस्टिस खानविलकर के नजरिये के संदर्भ में दवे ने कहा, ‘यह न केवल असंवैधानिक था, और सिर्फ अवैध या अनुचित ही नहीं बल्कि मैं कहूंगा कि यह अत्यधिक अनैतिक था. उन्होंने देश को एक भयावह संदेश भेजा…सुप्रीम कोर्ट की तरफ से ऐसा कोई फैसला पारित करना शर्मनाक है.’

उन्होंने कहा, ‘गुजरात में दंगे हुए थे…न्यायाधीश राज्य की वास्तविकता से अनजान नहीं हो सकते, उन्हें जागरूक होना चाहिए कि आसपास क्या हो रहा है, वे इस तरह अनभिज्ञ नहीं बने रह सकते.’

वही, वरिष्ठ अधिवक्ता मीनाक्षी अरोड़ा ने जस्टिस खानविलकर के न्यायिक दृष्टिकोण को ‘काफी पीछे ले जाने वाला’ करार दिया है.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘सबसे पहले, गुजरात दंगों के पीड़ितों की ओर से मामला आगे बढ़ाने वाले लोगों के संबंध में मुझे यह आदेश अभूतपूर्व लगता है. यह एक भयावह असर डालने वाला है. कल को कोई किसी के लिए खड़ा नहीं होगा. आपके पास नेकी करने वाले लोग नहीं होंगे.’

पीएमएलए पर फैसले के संदर्भ में अरोड़ा ने कहा, ‘पीएमएलए पर उनके दूसरे फैसले को लेकर हम सभी को लगता है कि ये एडीएम जबलपुर केस की पुनरावृत्ति है…यह एकदम अधिकार विरोधी है.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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