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Tuesday, 23 April, 2024
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4 चिट्ठियां, 1 जवाब- जजों की नियुक्ति पर मोदी सरकार का SC से टकराव 7 साल तक कैसे चला

2015 में SC ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को न्यायपालिका के कामकाज में दखल बताते हुए खारिज कर दिया था. तब से इसने मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर पर सिर्फ एक पत्र का जवाब दिया है.

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नई दिल्ली: मोदी सरकार ने न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया में अधिक पारदर्शिता लाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को पिछले सात सालों में चार बार पत्र लिखकर मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (एमओपी) को फिर से तैयार करने के लिए कहा है. हालांकि, दिप्रिंट को पता चला है कि शीर्ष अदालत ने अब तक सिर्फ एक पत्र का जवाब दिया है.

MoP एक नियम पुस्तिका है जिसका पालन न्यायपालिका और सरकार सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए करती है. यह पिछले कुछ सालों से एक विवाद के केंद्र में रहा है. केंद्र सरकार का दावा है कि इसमें निर्धारित नियुक्ति प्रक्रिया ‘अपारदर्शी’ कॉलेजियम प्रणाली को प्रधानता देती है.

इन सभी पत्रों में- जिसमें हाल ही में केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू द्वारा इस साल जनवरी में भेजा गया पत्र भी शामिल है- विवादास्पद बिंदु शीर्ष अदालत का दिसंबर 2015 का वह आदेश है, जिसमें पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने केंद्र सरकार से नियुक्तियों में अधिक पारदर्शिता लाने के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ सलाह मशवरा करके अतिरिक्त दिशानिर्देशों के साथ एमओपी को अंतिम रूप देने के लिए कहा था.

रिजिजू के पत्र ने उस तरीके पर चिंता व्यक्त की, जिसमें शीर्ष अदालत ने प्रशासनिक पक्ष में लंबित पड़े नियुक्तियों के मुद्दे से निपटने की बजाय न्यायिक हस्तक्षेप के माध्यम से इसे आगे बढ़ाया है. पत्र में कहा गया है, ‘हालांकि मामला प्रशासनिक पक्ष में लंबित है. ऐसे में न्यायिक हस्तक्षेप के जरिए इस तरह के अनिर्णीत मामलों को आगे बढ़ाने से मसले पैदा हो सकते हैं. यह उचित और न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता है.’

दिप्रिंट ने 2016 और 2023 के बीच सरकार द्वारा लिखे गए सभी पत्रों को देखा है.

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सुप्रीम कोर्ट का दिसंबर 2015 का आदेश अक्टूबर 2015 के फैसले की अगली कड़ी था, जिसने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) को रद्द कर दिया था. पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने 4:1 के बहुमत से फैसला सुनाते हुए कहा था कि NJAC ‘असंवैधानिक’ है और ‘संविधान के मूल ढांचे’ का उल्लंघन करता है.

संसद ने 2014 में एनजेएसी अधिनियम पारित किया था. यह एक्ट एनजेएसी के साथ न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली को बदलने की मांग करता है. इसके अंतर्गत हाई कोर्ट में जजों के नियुक्तियों के लिए सरकार को ज्यादा अधिकार दिए गए थे.

एक हजार पन्नों में दिए गए 2015 के फैसले की बहुमत राय में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जेएस खेहर- जो खंडपीठ की अध्यक्षता कर रहे थे- न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर, कुरियन जोसेफ और एके गोयल शामिल थे. न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर खंडपीठ के एकमात्र विरोधी थे.

इस फैसले के बाद पीठ ने खुली अदालत में विचार-विमर्श किया और अंतत: एमओपी में संशोधन का काम केंद्र सरकार पर छोड़ दिया. दिसंबर 2015 के आदेश में यह भी कहा गया था कि एमओपी को संशोधित करने पर सीजेआई का फैसला उनके बाद के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों वाले कॉलेजियम के सर्वसम्मत विचार पर आधारित होगा.

इसके बाद काफी मशक्कत के बाद सरकार ने अगस्त 2016 में तत्कालीन सीजेआई को एमओपी का मसौदा भेजा था. तत्कालीन सीजेआई जस्टिस खेहर ने मार्च 2017 में इसका जवाब भेजा था. न्यायमूर्ति खेहर ने जवाब में सरकार की ओर से दिए गए सुझावों पर अपने कॉलेजियम सदस्यों के साथ की गई व्यापक चर्चा का उल्लेख किया था.

काफी विचार करने के बाद कॉलेजियम ने एमओपी में मामूली संशोधनों को स्वीकार कर लिया. हालांकि पत्र में खासतौर पर उल्लेख किया गया था कि ‘जो एमओपी में शामिल नहीं हैं और जो बदलाव भविष्य में जरूरी हो सकते हैं, उन पर बाद में विचार किया जाएगा’.


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एमओपी में किया गया संशोधन

घटनाक्रम की जानकारी रखने वाले सूत्रों के अनुसार, 2017 में एमओपी में वकीलों की जज के रूप में नियुक्ति के संबंध में दो मामूली संशोधन किए गए थे. संशोधित MoP ने हाइकोर्ट न्यायधीश पद के लिए कानूनी समुदाय से उम्मीदवारों के चयन के लिए दो मानदंड पेश किए. पहला, अधिवक्ता की आयु 45 से 55 वर्ष के बीच होनी चाहिए और दूसरा वकील की पिछले पांच सालों की शुद्ध औसत वार्षिक व्यावसायिक आय 7 लाख रुपये और उससे अधिक होनी चाहिए.

उपरोक्त सूत्रों में से एक ने कहा, ‘मार्च 2017 के पत्र ने एमओपी में संशोधन पर आगे विचार-विमर्श की संभावना को खत्म नहीं किया. बल्कि, इसने सरकार को भविष्य में इस मुद्दे को उठाने की अनुमति दी.’

दूसरी बार सरकार ने जुलाई 2017 में शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया था. यह दो न्यायाधीशों द्वारा संवैधानिक अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर फिर से विचार करने की जरूरत को रेखांकित के तुरंत बाद किया गया था. न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त होने के बाद से) चेलमेश्वर और पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई ने सात-न्यायाधीशों की पीठ का हिस्सा होने के दौरान ये अवलोकन किया था. पीठ हाई कोर्ट जज, जस्टिस सीएस कर्णन के खिलाफ अवमानना कार्यवाही की सुनवाई कर रहा था.

जुलाई 2017 में शीर्ष अदालत के रजिस्ट्रार जनरल को लिखे गए पत्र में तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने एक संस्थागत तंत्र के निर्माण की बात कही थी. उन्होंने कहा था, ‘ यह सुप्रीम कोर्ट के फैसले में (दिसंबर 2015 के) अनिवार्य रूप से मूल्यांकन और पारदर्शिता के लिए उपयुक्त प्रक्रिया के मानदंडों को पूरा करने के लिए जरूरी है.’

शंकर ने कहा कि एक मूल्यांकन समिति का गठन करके शीर्ष अदालत ने एक मजबूत मूल्यांकन प्रक्रिया की आवश्यकता को कर्णन मामले में अपने फैसले में और मजबूत किया है.

उन्होंने यह भी कहा, ‘हालांकि शीर्ष अदालत ने एक सचिवालय की स्थापना की थी, लेकिन यह केवल जिला न्यायपालिका के रिकॉर्ड से संबंधित एक डेटाबेस को बनाए रखने तक सीमित था.’

पत्र में आगे लिखा था, इस तरह की व्यवस्था किसी भी तरह से सभी पात्र उम्मीदवारों की पहचान करने में कॉलेजियम की सहायता करने में सार्थक योगदान नहीं देगी. इस पत्र का शीर्ष अदालत से कोई जवाब नहीं आया.

नियुक्ति प्रणाली में सुधार की जरूरत

इस बीच सुप्रीम कोर्ट नियुक्तियों पर आदेश सुनाता रहा. मार्च 2018 में जस्टिस ए.के. गोयल और यू.यू. ललित (जो पिछले साल सीजेआई के रूप में सेवानिवृत्त हुए) की दो-न्यायाधीश पीठ, व्यवस्था में कमियों को सामने लाई और नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार की जरूरत पर बल दिया.

बाद में अप्रैल 2021 में, तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने सरकार द्वारा कॉलेजियम प्रस्ताव की प्रोसेसिंग में लगने वाले समय के संबंध में अतिरिक्त समय सीमा निर्धारित की और सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में भी निर्णय दिया.

इसने सरकार को एक बार फिर दिसंबर 2015 के फैसले के अनुरूप मौजूदा एमओपी के पूरक के लिए मसौदा दिशानिर्देश तैयार करने के लिए प्रेरित किया. सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि इसपर भी सुप्रीम कोर्ट से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)

(अनुवाद: संघप्रिया मौर्य | संपादन: अलमिना खातून)


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