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Monday, 23 December, 2024
होमदेशमुकदमों को निपटाने की है जरूरत, पर ऐसे में न्याय की बलि न दी जाए: सुप्रीम कोर्ट

मुकदमों को निपटाने की है जरूरत, पर ऐसे में न्याय की बलि न दी जाए: सुप्रीम कोर्ट

शीर्ष अदालत ने एक नाबालिग लड़की से बलात्कार और उसकी हत्या के मामले की सुनवाई दो सप्ताह के भीतर पूरी करके आरोपी को मौत की सजा सुनाने का फैसला निरस्त करते हुये यह टिप्पणी की.

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नयी दिल्ली: उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि मुकदमों के तेजी से निबटारा करने की प्रक्रिया में कभी भी न्याय के मकसद की ‘बलि’नहीं दी जानी चाहिए. शीर्ष अदालत ने एक नाबालिग लड़की से बलात्कार और उसकी हत्या के मामले की सुनवाई दो सप्ताह के भीतर पूरी करके आरोपी को मौत की सजा सुनाने का फैसला निरस्त करते हुये यह टिप्पणी की.

न्यायमूर्ति उदय यू ललित, न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि मुकदमों के त्वरित निबटारे की प्रक्रिया की परिणति कभी भी न्याय के मकसद की बलि के रूप में नहीं होनी चाहिए. पीठ ने इसके साथ ही 2013 में नाबालिग से बलात्कार और उसकी हत्या के मामले में मप्र उच्च न्यायालय का फैसला निरस्त कर दिया.

इस मामले में निचली अदालत ने आरोपी को नौ साल की बच्ची से बलात्कार, अप्राकृतिक यौनाचार और हत्या सहित कई अपराधों के लिये मौत की सजा सुनायी थी. उच्च न्यायालय ने मौत की सजा के फैसले की पुष्टि की थी.

पीठ ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि आपराधिक मामलों के तेजी से निबटारा जरूरी है लेकिन ऐसा करते समय सावधानी बरतने की जरूरत है और यह निष्पक्षता के बुनियादी सिद्धांत और आरोपी को बचाव की अनुमति की कीमत पर नहीं होना चाहिए.

पीठ ने बुधवार को सुनाये गये अपने फैसले में उम्र कैद या मौत की सजा की संभावना वाले सभी मामलों की सुनवाई के लिये एक मानदंड निर्धारित किया. इसके तहत ऐसे मामलों में अदालत की मदद के लिये सिर्फ उन्हीं अधिवक्ताओं को न्याय मित्र नियुक्त करना चाहिए जिनके पास वकालत करने या विधिक सेवा के माध्यम से आरोपी का प्रतिनिधित्व करने का कम से कम दस साल का अनुभव हो.

शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में इस तथ्य का जिक्र किया कि आरोपी को चार फरवरी, 2013 को गिरफ्तार किया गया और चंद दिनों के भीतर ही 13 फरवरी को पुलिस ने अदालत में आरोप पत्र दाखिल कर दिया.

निचली अदालत ने आरोपी के खिलाफ 19 फरवरी, 2013 को आरोप निर्धारित किये और मुकदमे की सुनवाई पूरी करके चार मार्च को उसे मौत की सजा सुनायी थी.

मप्र उच्च न्यायालय ने 27 जून, 2013 को दोषी की मौत की सजा बरकरार रखते हुये उसकी अपील खारिज कर दी.

शीर्ष अदालत ने कहा कि इसमें संदेह नहीं कि आपराधिक मामलों का तेजी से निबटारा होना जरूरी है क्योंकि यह निष्पक्ष सुनवाई का हिस्सा होता है. परंतु मुकदमे के तेजी से निबटारे की प्रक्रिया निष्पक्षता और आरोपी को अवसर देने की कीमत पर नहीं की जानी चाहिए क्योंकि यह समूची अपराध न्याय प्रशासन की बुनियाद है.

शीर्ष अदालत ने कहा कि विधित सेवा प्राधिकरण ने निचली अदालत में आरोपी का प्रतिनिधित्व करने के लिये 18 फरवरी को एक अधिवक्ता नियुक्त किया लेकिन वह मुकदमे की सुनवाई के लिये अगले दिन पेश ही नहीं हुआ.

पीठ ने कहा, ‘पेश मामले में 19 फरवरी, 2013 को न्याय मित्र नियुक्त होता है और उसी दिन आरोप निर्धारित करने के चरण में आरोपी के बचाव के लिये उसे बुलाया गया. पूरे विश्वास के साथ यह कहा जा सकता है कि न्याय मित्र को इस मामले के बुनियादी दस्तावेजों का अध्ययन करने या आरोपी के साथ किसी प्रकार के विचार विमर्श के लिये पर्याप्त समय नहीं मिला.’

पीठ ने उच्चतम न्यायालय विधिक सेवा प्राधिकरण की ओर से आरोपी का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा के इस कथन का संज्ञान लिया और कहा कि इस मामले की सुनवाई करने में किसी भी तरह की निष्पक्षता नहीं थी.

न्यायालय ने कहा, ‘हमारी राय में, निचली अदालत ने तेजी से सुनवाई पूरी करने का नजरिया अपनाया होगा लेकिन इसने न्याय का हित नहीं किया.’

पीठ ने कहा कि ऐसे अपराध, जिनमें मौत की सजा एक वैकल्पिक दंड हो सकता है, के मुकदमों की सुनवाई के दौरान अदालतों को पूरी तरह सतर्क रहना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए की प्रत्येक दौर में आरोपी को पूरा अवसर मिले.

निचली अदालत और उच्च न्यायालय के फैसले निरस्त करते हुये पीठ ने शीर्ष अदालत की टिप्पणियों से प्रभावित हुये बगैर ही निचली अदालत को इस मामले पर नये सिरे से विचार करने का निर्देश दिया.

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