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Saturday, 21 December, 2024
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राखी नहीं, शादी की सलाह नहीं, पीड़िता के कपड़ों पर चर्चा नहींः यौन अपराधों पर SC की नई गाइडलाइन

सुप्रीम कोर्ट ने कई दिशा-निर्देश जारी किए हैं जिन्हें अदालतों को महिलाओं के खिलाफ अपराधों से जुड़े मामलों में जमानत आदेश पारित करते समय पालन करना होगा.

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नई दिल्ली: जेंडर संबंधी मामलों को प्रभावित करने वाले एक महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को फैसला सुनाते हुए कहा कि अदालतों को यौन अपराधों के मामलों में आरोपी और शिकायतकर्ता के बीच शादी या मध्यस्थता जैसे समझौते का सुझाव या प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए.

न्यायमूर्ति एएम खानविलकर और न्यायमूर्ति एस रविंद्र भट की पीठ ने इस मामले में कई दिशा-निर्देश जारी किए हैं जिन्हें अदालतों को महिलाओं के खिलाफ अपराधों से जुड़े मामलों में जमानत आदेश पारित करते समय पालन करना होगा.

शीर्ष अदालत ने यह आदेश मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के एक जुलाई 2020 के आदेश को खारिज करते हुए जारी किया, जिसमें छेड़छाड़ के आरोपी एक व्यक्ति को शिकायतकर्ता द्वारा राखी बंधवाने की शर्त पर रिहा कर दिया गया था.

यह फैसला नौ महिला वकीलों की याचिका पर आया है. याचिका में यह दलील दी गई है कि इस तरह के जमानत आदेश यौन अपराधों की गंभीरता को कम करके दिखाते हैं. सुनवाई के दौरान पीठ ने अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल से सहायता मांगी थी.

उच्च न्यायालय के फैसले पर उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ‘जमानत के लिए राखी बांधने को शर्त के रूप में रखना न्यायिक प्रक्रिया द्वारा छेड़छाड़ करने वाले एक व्यक्ति को भाई बना देने जैसा है.’

कोर्ट के मुताबिक, ‘इस तरह की शर्त थोपना या इस तरह के मामलों में समझौता करने का सुझाव देना किसी भी अदालत के अधिकार क्षेत्र और शक्तियों से बाहर है.’

आगे कोर्ट ने कहा कि अदालतों को ऐसे वाक्यों या अभिव्यक्तियों का इस्तेमाल करने से बचना चाहिए जो कि महिलाओं की और समाज में उनके स्थान के बारे में स्टीरियोटाइप या पितृसत्तात्मक धारणा को दर्शाते हैं. जमानत की शर्तें, दंड प्रक्रिया संहिता (CrPc) के तहत आवश्यकताओं के अनुसार सख्त होनी चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘न्यायाधीशों को विशेष रूप से लिखित या मौखिक रूप से किसी भी ऐसे शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिए, जो कि पीड़िता की निष्ठा को अदालत में कम करे या हिला दे.’


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न्यायाधीशों, वकीलों द्वारा पालन किए जाने हेतु दिशा-निर्देश

अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अदालतों के लिए सात दिशा निर्देश दिए हैं जिनका पालन उन्हें जमानत का आदेश देते वक्त करना होगा.

अदालत ने कहा, ‘पीड़िता पर किया गया इस तरह का कृत्य कानून में एक अपराध है, और यह एक मामूली अपराध नहीं है जिसे माफी मांगने से, कम्युनिटी सर्विस के जरिए या राखी बांधने जैसे कार्यों के माध्यम से सुधारा जा सकता है.’

अदालत द्वारा दिए गए प्रमुख निर्देशों में यह भी शामिल है कि जमानत की शर्तों में आरोपी और पीड़ित के बीच संपर्क की अनुमति या अनिवार्यता नहीं होनी चाहिए, पीड़िता की रक्षा करने की कोशिश करनी चाहिए, शिकायतकर्ता के व्यवहार, कपड़ों, पिछले आचरण या नैतिकता पर चर्चा नहीं करनी चाहिए और शिकायतकर्ता को तुरंत जमानत आदेश के बारे में सूचित किया जाना चाहिए.

पीठ ने यह भी कहा कि अदालतों को महिलाओं के बारे में, कार्यवाही के दौरान बोले गए शब्दों में, या न्यायिक आदेश के दौरान किसी भी स्टीरियोटाइप राय को व्यक्त करने से बचना चाहिए.

इसके अलावा, शीर्ष अदालत ने कहा यह भी कहा कि ‘महिलाएं शारीरिक रूप से कमजोर हैं और सुरक्षा की जरूरत है’, ‘महिलाएं अपने दम पर निर्णय लेने में असमर्थ हैं या नहीं ले सकतीं’, ‘पुरुष घर के मुखिया हैं व उन्हें परिवार से संबंधित सभी निर्णय लेने चाहिए’ और ‘अच्छी महिलाएं यौनिक रूप से पवित्र हैं’ जैसी अभिव्यक्तियों को किसी भी फैसले में स्थान नहीं मिलना चाहिए.

अदालत ने सरकारी वकीलों सहित न्यायाधीशों और वकीलों के प्रशिक्षण और उन्हें संवेदनशील/जागरुक बनाए जाने का सुझाव दिया.

अदालत ने कहा कि प्रत्येक न्यायाधीश के फाउंडेशनल ट्रेनिंग में जेंडर सेन्सिटाइज़ेशन पर एक मॉड्यूल को शामिल किया जाना चाहिए. इस मॉड्यूल का उद्देश्य न्यायाधीशों को यौन उत्पीड़न के मामलों की सुनवाई और निर्णय लेने में अधिक संवेदनशील बनाने और सामाजिक पूर्वाग्रह, खासतौर पर स्त्रियों के प्रति, को दूर करना होना चाहिए. आगे कोर्ट ने कहा कि मौन रहने की संस्कृति में लैंगिक हिंसा या तो दिखती नहीं या दब जाती है.

अदालत ने कहा, ‘महिलाओं के खिलाफ हिंसा के कारणों और कारकों में पुरुषों और महिलाओं के बीच व्याप्त असमान शक्ति समीकरण शामिल हैं जो हिंसा और इसकी स्वीकार्यता को बढ़ावा देते हैं, सांस्कृतिक और सामाजिक मानदंडों, आर्थिक निर्भरता, गरीबी और शराब की लत आदि से यह और ज्यादा बढ़ जाते हैं.

इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.


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