नई दिल्ली: सर्वोच्च न्यायलय ने हाल ही में यह कहते हुए कि मुकदमों के त्वरित निपटारे के अधिकार में दोषी ठहराए जा चुके लोगों की अपीलों का त्वरित निपटान भी शामिल है, छह उच्च न्यायालयों को निर्देश दिया कि इसकी योजना बनाएं कि लंबे समय से अटकी आपराधिक अपीलों को वह जल्दी कैसे निपटा सकते हैं.
जिन छह राज्यों से हलफनामा दाखिल करने को कहा गया है उनमें उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और ओडिशा शामिल हैं.
जस्टिस एल.एन. राव और जस्टिस एस. रवींद्र भट्ट की पीठ ने गत 15 जून को यह आदेश 28 सितंबर 2019 को हत्या के एक मामले में दोषी करार व्यक्ति की तरफ से दायर उस याचिका पर सुनवाई के दौरान दिया जिसमें आजीवन कारावास की सजा निलंबित करने की मांग की गई थी.
इस दौरान पीठ ने विशेष तौर पर इस बात का उल्लेख किया कि 10 उच्च न्यायालयों में 2 लाख से ज्यादा आपराधिक मामले करीब 20 सालों से अंतिम फैसले का इंतजार कर रहे हैं.
याचिकाकर्ता ने अपनी मांग के समर्थन में यह दलील दी थी कि वह जेल में तीन साल सजा काट चुका है और ऐसी कोई गुंजाइश नजर नहीं आ रही है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट दोषी करार दिए जाने और सजा के खिलाफ उसकी अपील पर निकट भविष्य में कोई फैसला सुनाएगी.
न्यायपालिका की त्रिस्तरीय व्यवस्था के तहत किसी आपराधिक मामले में ट्रायल कोर्ट के फैसले के खिलाफ, चाहे दोषी करार दिया जाना हो या बरी करना, अपील हाईकोर्ट में फाइल की जाती है. एक बार इस पर हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद मामला सुप्रीम कोर्ट के पास पहुंचता है.
पीठ ने 4 नवंबर 2019 को याचिका के दायरे को बढ़ाया था और समग्र रूप से मामलों के त्वरित निस्तारण के उपाय ढूंढ़ने का फैसला किया था.
कोर्ट ने उस समय कहा था कि अदालत के लिए यह संभव नहीं है कि जब भी जैसे भी अभियुक्त उनके पास मामला लेकर आएं तो हर एक मामले के आधार पर फैसला सुनाया जाए.
10 हाईकोर्ट में 2 लाख से ज्यादा आपराधिक अपीलें लंबित
लंबित मामलों का रिकॉर्ड रखने वाले ऑनलाइन डाटाबेस नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड (एनजेडीजी) के मुताबिक 10 हाईकोर्ट में 2.35 लाख से ज्यादा आपराधिक अपीलें करीब 20 सालों से लंबित हैं.
पीठ ने एनजेडीजी के आंकड़ों का हवाला देते हुए आगे बताया कि ऐसी ही 14,484 अपीलों पर पिछले 30 सालों से कोई फैसला नहीं हुआ है. यही नहीं 33,000 से ज्यादा ऐसी अपीलें अंतिम फैसले का इंतजार कर रही हैं जो 20 साल से ज्यादा लेकिन 30 साल से कम समय से लंबित हैं.
अपील के अधिकार और त्वरित निपटारे की जरूरत की अहमियत पर जोर देते हुए पीठ ने कहा, त्वरित निपटारे के अधिकार में दोषियों की अपील का जल्द निष्पादन भी शामिल होगा. अगर इस तरह की अपीलों पर उचित समय के भीतर सुनवाई नहीं होती तो अपील का अधिकार खुद में भ्रामक होगा और असंगत होगा, क्योंकि ऐसे में बंदी दोषियों (जिन्हें जमानत नहीं मिली) का एक बड़ा हिस्से को जेल में बिताना पड़ेगा, भले ही यह उनकी सजा की पूरी अवधि के बराबर न हो.
कैदियों से जुटाई जाए जानकारी
शीर्ष अदालत ने अपने आदेश में स्पष्ट किया है कि उसे हाईकोर्ट से कैसी जानकारी अपेक्षित है.
अदालत की तरफ से मांगे गए ब्यौरे में पूछा गया है कि हाईकोर्ट के समक्ष लंबित अपीलों पर सुनवाई की प्रतीक्षा करने वाले अभियुक्तों की कुल संख्या कितनी है, कितने पुराने मामलों की जमानत दी जा चुकी है, सुनवाई में तेजी के लिए प्रस्तावित कदम क्या हो सकते हैं और जेल में बंद दोषियों के मामले में सुनवाई को प्राथमिकता के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं.
यह डाटा मांगने के साथ ही कोर्ट ने राज्यों से एमिकस क्यूरी-राज्य के खर्च पर कोर्ट की सहायता के लिए नियुक्त किए जाने वाले वकील के ऐसे निर्धारित पूल की व्यावहार्यता का आकलन करने को भी कहा है जो सिर्फ ऐसे ही मामलों में बहस करें.
हाईकोर्ट की तरफ से केस रिकॉर्ड के डिजिटाइजेशन जैसे कामों के लिए सूचना प्रौद्योगिकी के उपयुक्त इस्तेमाल किए जाने की जरूरत भी बताई गई है.
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य की लीगल सर्विस अथॉरिटी से संबंधित जेल प्रशासन के साथ समन्वय बनाकर कैदियों के लिए उपयुक्त प्रश्नावली तैयार करने को भी कहा है जिसके जरिये उनकी अपील की स्थिति और हिरासत अवधि के बारे में जानकारी जुटाई जा सके.
प्रश्नावली में यह भी शामिल किया जाना चाहिए कि संबंधित कैदी को किस प्रावधान के तहत दोषी करार दिया गया है. सजा का कितना वक्त बीत चुका है और उनके स्वास्थ्य की क्या स्थिति है. कोर्ट ने कहा कि इस जानकारी की तुलना लंबित अपीलों पर हाईकोर्ट के पास उपलब्ध डाटा से की जाएगी.
लीगल सर्विस अथॉरिटी संबंधित डाटा के संकलन में हाईकोर्ट की मदद करेगी. सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई अब 29 जुलाई को होगी.
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