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Friday, 22 November, 2024
होमदेशआपबीती : मां को लेकर गया और खो दिया, 'राम भरोसे' चल रहा सुल्तानपुर जिला अस्पताल

आपबीती : मां को लेकर गया और खो दिया, ‘राम भरोसे’ चल रहा सुल्तानपुर जिला अस्पताल

मां का ऑक्सीजन लेवल घटने और ब्लड शुगर बढ़ने के बाद उन्हें सुलतानपुर जिला अस्पताल में भर्ती कराया था, जहां उन्हें वेंटिलेटर सपोर्ट की जरूरत थी लेकिन कोई भी वेंटिलेटर काम नहीं कर रहे थे.

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दिप्रिंट के पत्रकार इन्द्रजीत यूपी के सुल्तानपुर जिला अस्पताल में अपनी मां कलावती देवी के लिए वेंटिलेटर बेड पाने की आपबीती साझा कर रहे हैं.

ऑक्सीजन लेवल गिरकर 36 तक पहुंचने और शुगर लेबल 576 छूने के बाद 68 साल की मेरी मां, कलावती देवी को सुल्तानपुर जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया. प्राइवेट अस्पताल के डॉक्टर्स ने उन्हें वेंटिलेटर बेड वाले आईसीयू में भर्ती कराने को कहा था.

मुझे जरा भी अंदाजा नहीं था कि वो फिर कभी वापस नहीं आएंगी.

अगर आपको कोरोना हुआ है, आप गंभीर हालत में हैं और आप ‘बेमौत मरना’ चाहते हैं तो सुल्तानपुर जिला अस्पताल के ट्रॉमा सेंटर एल टू-2 में आ जाइए. आपको ‘राम भरोसे’ रखते हुए एक से 2 घंटे में मौत मिल जाएगी.

गौरतलब है सुल्तानपुर की सांसद भाजपा की मेनका गांधी हैं. अपने नाम की वजह से यह जिला भाजपा सरकार की नजर में है. नाम बदलकर कुश भवनपुर किए जाने को लेकर यह काफी चर्चा में रहा है. जबकि यहां की चौपट स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करने पर सरकार का कोई ध्यान नहीं है.

यहां प्रशासनिक अधिकारी से लेकर अस्पताल के डॉक्टर सच को छुपाने में एक गैंग की तरह काम कर रहे हैं. उनका ध्यान मरीज़ को बचाने पर कम और इस बात पर ज्यादा है कि कहीं सच बाहर न चला जाए. सीएमओ डीके त्रिपाठी से अगर आप वेंटिलेटर मांगने गए तो आपको आध्यात्मिक ज्ञान मिलेगा.

यह कहानी है मेरी मां कलावती देवी की है, जिनका मस्तिष्क लगभग काम करना बंद कर चुका था, शरीर में कोई सक्रियता नहीं थी, ऑक्सीजन लेवल गिरकर 36 तक पहुंच गया था और शुगर लेवल 576 के पार जा चुका था. एक निजी अस्पताल से उन्हें ज़रूरी तौर पर आईसीयू में रखने, वेंटिलेटर उपलब्ध कराने के लिए जिला अस्पताल रेफर किया गया था.

उन्हें सुल्तानपुर जिला अस्पताल के इमरजेंसी वॉर्ड में 11 मई को 12 बजे को ले जाया गया. रजिस्ट्रेशन की सारी औपचारिकता पूरी करने के साथ ही नर्स कुछ दवाइयां लिखती हैं जो कि अस्पताल में नहीं होतीं, बाहर से खरीदना पड़ता है. इन दवाइयों का इस्तेमाल ऑक्सीजन सिलेंडर के साथ जोड़कर नेबुलाइजर की तरह किया जाना था. इनकी कीमत लगभग 300 रुपये थी.

इन्द्रजीत की मां कलावती देवी जिन्हें सुलतानपुर जिला अस्पताल में वेंटिलेटर बेड नहीं मिल पाया | फोटो- इन्द्रजीत | दिप्रिंट

गिड़गिड़ाकर मांगने पर भी नहीं दिया वेंटिलेटर

मौत से जूझती अपनी मां के लिए मैंने गिड़गिड़ाकर अस्पताल प्रशासन से वेंटिलेटर की मांग की लेकिन उन्हें अस्पताल में मौजूद 6 वेंटिलेटर्स में से एक भी नहीं दिए गए. वार्ड स्टाफ ने कहा कि सारे वेंटिलेटर बंद पड़े हैं, चल नहीं सकते और ये कोविड मरीजों के लिए नहीं हैं. कोविड मरीज के लिए आप अस्पताल के ट्रॉमा सेंटर एल-2 में जाइए वहां वेंटिलेटर की व्यवस्था है.

यहां स्पष्ट कर दें कि मेरी मां का कोविड टेस्ट नहीं हुआ था. हां लक्षण सारे कोविड वाले थे फिर भी वेंटिलेटर नहीं दिया गया और ट्रॉमा सेंटर एल-2 में भेज दिया गया. आखिर गैर कोविड मरीजों के लिए उपलब्ध वेंटिलेटर को देने में क्या दिक्कत थी? एक तरह से डॉक्टर्स अपनी जान छुड़ाने में लगे थे, इसके लिए वे उन्हें लखनऊ के लिए रेफर करने को भी तैयार थे.

इसके बाद निजी गाड़ी से मैं अपनी मां को ट्रॉमा सेंटर एल-2 लेकर गया. इस उम्मीद में कि यहां वेंटिलेटर मिल जाएगा. अब तक दोपहर के लगभग 1 बज चुके थे.

यहां पर उन्हें वेंटिलेटर वार्ड के एक कमरे में ले जाया जाता है जहां 5 बंद पड़े वेंटिलेटर थे. उन्हें तत्काल ऑक्सीजन सिलेंडर मिल जाता है.

और असल कहानी की शुरुआत अब होती है. वेंटिलेटर चलाने के लिए दो टेक्नीशियन आते हैं. काफी जूझते हैं. यह सब कवायद दिन के 2:30 बजे तक चलती है. वेंटिलेटर नहीं चलता है. मैं सुल्तानपुर के डीएम रवीश गुप्ता को फोन करता हूं. इसके बाद वेंटिलेटर को ठीक करने की कवायद और तेज़ हो जाती है, लेकिन वेंटिलेटर नहीं चलता है.


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सीएमओ ने दिया ‘आध्यात्मिक ज्ञान’

इसके बाद मैं सीएमओ के चैंबर में जाता हूं. वहां सीएमओ फोन पर किसी से बात करने में बिज़ी थे. फोन से फ्री होकर वे वहां मौजूद लोगों में से एक-एक को अटेंड करने लगे. काफी देर बाद सीएमओ से बातचीत के लिए मेरा नंबर आता है. सीएमओ मुझसे मुखातिब होते हैं. बोलते हैं, ‘क्या समस्या है.’ वेंटिलेटर की मांग रखने पर उनका जवाब काफी टाल-मटोल भरा होता है.

वह कहते हैं, ‘हम वेंटिलेटर उस मरीज को देते हैं जिसे जरूरत हो. और किसे जरूरत है यह मरीज देख रहे डॉक्टर नहीं बल्कि कोविड वार्ड के इंचार्ज डॉ. गोपाल जी तय करते हैं.’

मैंने कहा, ‘सर गोपाल जी को भेज दीजिए देखने के लिए, मरीज को वेंटिलेटर की सख्त जरूरत है, वरना जान चली जाएगी.’

फिर सीएमओ का आध्यात्मिक ज्ञान शुरू होता है, ‘देखिए एक मरीज को बचाने में जितनी खुशी हम डॉक्टरों को होती है उतनी किसी को नहीं होती है. रही बात मरीज को बचाने की तो हम डॉक्टर लोग नहीं, असल में ऊपर वाला बचाता है.’

उनका वेंटिलेटर पर ज्ञान दिलचस्प होता है. वह कहते हैं, ‘ध्यान रखिए वेंटिलेटर पर जाने के बाद मरीज वापस नहीं लौटता.’ यानि कि सीधे शब्दों में कहें तो उनका कहना था कि मरीज को वेंटिलेटर मत दीजिए वरना उसकी जान बचनी होगी तो भी नहीं बचेगी. सीएमओ का यह अद्भुत ज्ञान वेंटिलेटर की जरूरत को ही खारिज कर देता है. जबकि तमाम रिपोर्ट बताती हैं कि वेंटिलेटर मिलने से मरीज को 40-50% ठीक होने का चांस रहता है.

वह कहते हैं, ‘वेंटिलेटर का काम होता है फेफड़े की धमनियां या नसों में हवा भरना, जो कि फेफड़े करते हैं. हम वेंटिलेटर तो दे देंगे लेकिन मेरी मानिए तो इससे बचिए, मरीज को वेंटिलेटर पर मत ले जाइए.’

मैं फिर सवाल करता हूं कि सर आपके तो एक भी वेंटिलेटर काम नहीं कर रहे हैं. इस बात को पहले तो वो मानने को तैयार नहीं हुए, फिर कहते हैं कि हम आपको जिला अस्पताल से वेंटिलेटर मंगा कर दे देंगे लेकिन आप प्लीज मरीज को वेंटिलेटर पर न ले जाइए, जान खतरा बढ़ जाएगा.’

मैं निराश होकर सीएमओ के चैंबर से बाहर निकल जाता हूं और डीएम को फोन करता हूं. डीएम कहते हैं कि आप उस डॉक्टर का नंबर दीजिए जो मरीज को देख रहा है. डॉक्टर का नंबर मेरे पास नहीं था. मेरी मां को देखने वाला डॉक्टर काफी देर तक नजर भी नहीं आता. हालांकि, डीएम ने फिलहाल गंभीरता दिखाते हुए बिना कहे सीधा सीएमओ को फोन कर दिया.

दम तोड़ देती हैं मेरी मां

इसी बीच मेरी मां दम तोड़ देती हैं. मैं कोविड वॉर्ड गेट की सीढ़ी पर बैठकर रो रहा था. तभी सीएमओ का मेरे पास फोन आता है, ‘भाई अभी डीएम साहब का फोन आया था. कलावती देवी आपकी ही मरीज हैं.?’

मैने जवाब दिया- ‘हां’.

सीएमओ डीके त्रिपाठी पूछते हैं कि अभी कैसी हैं वो? मैंने बताया कि वो नहीं रहीं. त्रिपाठी फोन पर ‘हे राम’ कहते हैं. आगे वह कुछ और कहें तभी मैंने फोन काट दिया.

इसके बाद उनकी डेडबॉडी को ले जाने के लिए काफी अच्छी व्यवस्था की जाती है. कोविड कवर में रखने के बाद एकदम नई निकलवाई गई एंबुलेंस को घर भेजने के लिए दिया जाता है जिससे मां की लाश को लेकर मैं घर के लिए निकल जाता हूं.

दरअसल, इस अनुभव को साझा करने का बस इतना ही मकसद है कि आप जान सकें कि सरकार के हेल्थ सिस्टम का क्या हाल है और एक मरीज कैसे पूरे सिस्टम से जूझता है और मर जाता है. कहें तो एक तरह सिस्टम मरीजों की हत्या कर रहा है.

आखिर में प्यासा फिल्म के अभिनेता गुरुदत्त पर फिल्माए गए गाने की य़े लाइनें बोगस हेल्थ सिस्टम को लेकर आपको सांत्वना दे सकती हैं.

यहां इक खिलौना है इंसा की हस्ती,

ये बस्ती है मुर्दा परस्तों की बस्ती,

यहां पर जीवन से है मौत सस्ती,

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है !

जारी……..

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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