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भारतीय विश्वविद्यालयों में छात्र संघ चुनाव छात्र जीवन का केवल औपचारिक हिस्सा नहीं हैं, बल्कि यह लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत करने वाले प्रयोगात्मक मंच हैं. यह प्रक्रिया न केवल छात्र प्रतिनिधियों के चयन तक सीमित है, बल्कि छात्रों को उत्तरदायित्व संवाद, नेतृत्व और सामाजिक सहभागिता की व्यावहारिक शिक्षा भी देती है. समय- समय पर इन चुनावों को लेकर बहस हुई है, आलोचनाएं भी आई हैं, लेकिन आज भी यह निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जाना चाहिए कि छात्र संघ चुनावों की प्रासंगिकता बनी हुई है — विशेषत: उस समाज में, जहां युवाओं की भागीदारी लोकतंत्र की गुणवत्ता का निर्धारण करती है.
छात्र संघों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी हुई है, जब विश्वविद्यालय परिसरों में छात्रों ने ब्रिटिश राज के विरुद्ध संगठित प्रतिरोध खड़ा किया था. भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारी छात्र जीवन में ही राजनीतिक चेतना से लैस थे और आगे चलकर स्वतंत्र भारत में छात्र राजनीति की यह विरासत संस्थागत रूप से छात्र संघों के रूप में विकसित हुई.
20वीं शताब्दी के साठ और सत्तर के दशक में बिहार, गुजरात और असम जैसे राज्यों में हुए छात्र आंदोलनों ने व्यापक सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन की दिशा तय की. गुजरात का नवनिर्माण आंदोलन, बिहार में जेपी आंदोलन, असम आंदोलन, चिपको आंदोलन, दलित आंदोलन इस बात के जीवंत उदाहरण हैं कि छात्र राजनीति केवल परिसरों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि यह राष्ट्र के लोकतांत्रिक ढांचे को भी प्रभावित करने की क्षमता रखती है.
छात्र संघ चुनावों के माध्यम से छात्र नेतृत्व कौशल, प्रतिनिधित्व की समझ, विचारों के आदान-प्रदान और संगठन की बारीकियों को सीखते हैं. भारत के अनेक नामी नेता जैसे सीताराम येचुरी, सरोजिनी नायडू, सुचेता कृपलानी, प्रकाश करात, अरुण जेटली, लालू प्रसाद यादव, सत्यपाल मलिक, अशोक गहलोत, नीतीश कुमार, सुषमा स्वराज, ममता बनर्जी, नितिन गडकरी, अजय माकन, जैसे नेताओं ने छात्र राजनीति से ही अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत की और राष्ट्रीय नेतृत्व तक पहुंचे.
हालांकि, समय-समय पर छात्र संघ चुनावों में हिंसा, जातिगत ध्रुवीकरण, बाहरी राजनीतिक हस्तक्षेप और अनुशासनहीनता जैसे आरोप भी लगे हैं. इन समस्याओं को देखते हुए 2006 में उच्चतम न्यायालय ने जे.एम. लिंगदोह समिति का गठन किया जिसकी सिफारिशों में उम्मीदवारों की आयु-सीमा, उपस्थिति की अनिवार्यता, छात्र संघ पदाधिकारी का चुनाव एक हर बार लड़ने की अनुमति, सामंती संबंधी प्रबंध, खर्च की सीमा, आपराधिक पृष्ठभूमि पर रोक और बाहुबल व धनबल के प्रयोग पर नियंत्रण जैसे प्रावधान शामिल थे. इन दिशा-निर्देशों ने चुनावों को अधिक पारदर्शी और अनुशासित बनाने का अवसर दिया, किंतु दुर्भाग्यवश कई विश्वविद्यालयों में इन्हें लागू करने की बजाय चुनाव ही स्थगित किए गए हैं.
आज देश के कई विश्वविद्यालयों में छात्र संघ चुनाव या तो वर्षों से नहीं हुए हैं या प्रशासिनक कारणों से टाले जा रहे हैं. राजस्थान, जो छात्र राजनीति का ऐतिहासिक केंद्र रहा है, वहां पिछले कुछ वर्षों से चुनाव स्थगित किए जा रहे हैं. देश के बड़े-बड़े शैक्षणिक संस्थानों और उच्च शिक्षा विभाग की यह दलील रही है कि चुनावों के दौरान हिंसा, प्रशासनिक व्यस्तता, अस्थिरता और शैक्षणिक वातावरण में अव्यवस्था उत्पन्न होती है इस कारण से से चुनाव टाल दिए जाते हैं.
छात्र आंदोलन केवल छात्रहितों तक सीमित नहीं हैं. वे व्यापक सामाजिक-राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बन चुके हैं. विश्वविद्यालयों में देशद्रोह के आरोपों में छात्र नेताओं की गिरफ्तारी, उच्च शिक्षा संस्थानों में जातिगत भेदभाव और संस्थागत उपेक्षा के परिणामस्वरूप हत्या व आत्महत्या जैसी ददर्नाक घाटनाओं ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और राष्ट्रवाद की परिभाषा पर राष्ट्रीय बहस छेड़ दी है. सामाजिक वैज्ञानिक सुधांशु भूषण (2016) ने इसे “ऊपर से आरोपित राष्ट्रवाद की आधिकारिक परिभाषा” कहा, जो विद्यार्थियों की असहमति को अपराध घोषित करने की प्रवृति दर्शाता है. इन घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि विश्वविद्यालय केवल अध्ययन का स्थल नहीं, बल्कि विचारों के मंथन, असहमति के अधिकार और सामाजिक न्याय की प्रयोगशाला भी हैं. इन मंचों को दबाना, सीमित करना या समाप्त कर देना लोकतांत्रिक चेतना को सीमित करना है.
छात्र संघ चुनाव वैकल्पिक नेतृत्व निमार्ण का साधन हैं. इसका उद्देश्य छात्र संघ चुनाव मंच से उन युवाओं को अवसर देना है, जो वंशवादी और जातिगत ढांचों से बाहर आकर, योग्यता के आधार पर आगे बढ़ना चाहते हैं. वतर्मान में छात्र राजनीति बाहुबल, धनबल या बाहर राजनीतिक दलितों के हस्तक्षेप से प्रभावित है, जिससे यह मंच व्यवस्ता के आवाज़ के बजाय राजनीतिक लॉन्चपैड बनता जा रहा है. छात्र नेता कैंपस में विद्यार्थी और प्रशासन के मध्य सेतु बनने की बजाय डर और गुंडागर्दी का पयार्य बनते जा रहे हैं. छात्र राजनीति में जातिगत और बाहरी राजनीतिक प्रभाव की एक वास्तविक चुनौती है, लेकिन समाधान चुनाव को प्रतिबंधित करना नहीं बल्कि सुधार और सहभागिता में है. यह आवश्यक है कि छात्र संघ के मंच पर सभी वर्गों को विशेषकर वंचि और महिला समुदाय को समान अवसर मिले. लोकतंत्र की आत्मा तभी प्रकट होती है जब नेतृत्व विविधता से निकले.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) के लागू होने के बाद शिक्षा प्रणाली में व्यापक बदलाव हो रहे हैं. इस काल में शिक्षक और विद्यार्थी दोनों नई व्यवस्था को समझने का प्रयास कर रहे हैं. ऐसे में छात्र प्रतिनिधित्व और संवाद की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है. दक्षिणी राजस्थान जैसे क्षेत्रों में यह देखा गया कि छात्र नेता प्रशासन और छात्रों के बीच एक मजबूत सेतु के रूप में सामने आए, जहां तकनीक और संसाधनों की सीमाएं हैं, वहां छात्र प्रतिनिधित्व संवाद की विश्वसनीय आधारशिला बन सकता है.
आज जब विश्वविद्यालों में शिक्षक को राजनीतिक विचारधारा अपनाने, उसे व्यक्त करने, चुनाव लड़ने और समानांतर रूप से अध्यापन करने की स्वतंत्रता है, तो विद्यार्थियों को लोकतांत्रिक पद्धति से भागीदारी से क्यों वंचित किया जाए? आवश्यकता है कि छात्र संघ चुनावों को पारदर्शी, समावेशी और गरिमामयी रूप से पुनः स्थापित किया जाए. इन्हें केवल राजनीतिक उपकरण न माना जाए, बल्कि नीति-निर्माण में युवाओं की भागीदारी का सशक्त माध्यम समझा जाए. लोकतंत्र तब ही जीवंत रहता है जब उसकी जड़ें शिक्षण संस्थानों में मज़बूत होती हैं और छात्र संघ चुनाव उन्हीं जड़ों को सींचने का कार्य करते हैं.
(इस लेख को ज्यों का त्यों प्रकाशित किया गया है. इसे दिप्रिंट द्वारा संपादित/फैक्ट-चैक नहीं किया गया है.)
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