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Monday, 1 December, 2025
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Subscriber Writes: योग्यता बनाम जातीय समीकरण: बिहार की राजनीति में बदलाव का संघर्ष

उम्मीदवार किस जाति का है? और शिक्षा, दृष्टि, ईमानदारी तथा कार्य-क्षमता ये सब चुनावी मेन्यू के वे व्यंजन बन जाते हैं जिन्हें देख तो लेते हैं, पर चुनते कोई नहीं.

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हाल ही में बिहार में चुनाव संपन्न हुए. इन चुनावों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह रही कि यहां भी योग्यता से अधिक जातिगत समीकरणों को प्रमुखता से देखा गया.

वर्तमान और पूर्ववर्ती चुनावों—दोनों में सत्ता पक्ष पर लगातार यह आरोप लगता रहा कि वह धनबल, जातीय समीकरण और क्षेत्र विशेष की राजनीति करता है. वहीं विपक्षी दल भी इन्हीं आरोपों से मुक्त नहीं रहे. इस चुनाव में कुछ नए और अपेक्षाकृत सक्षम उम्मीदवारों को भी आज़माने की कोशिश की गई, परंतु उन्हें अपेक्षित समर्थन नहीं मिल सका. अन्य दलों ने भी अपने-अपने प्रत्याशी उतारे, किंतु वे भी उल्लेखनीय सफलता प्राप्त नहीं कर सके. दरअसल, भारतीय राजनीति में आज भी जाति, धर्म और धनबल की राजनीति मुख्य केंद्र में बनी हुई है. यह लोकतांत्रिक व्यवहार के लिए चिंताजनक है. देश को स्वतंत्र हुए 75 वर्ष से अधिक हो चुके हैं, फिर भी राजनीतिक संस्कृति में अपेक्षित परिपक्वता विकसित नहीं हो सकी है. इसके साथ ही वर्तमान समय में ‘मुफ़्त की रेवड़ी संस्कृति’ एक गंभीर नीतिगत समस्या के रूप में उभरकर सामने आई है, जो दीर्घकालिक शासन और नीति-निर्माण को प्रभावित करती है.

बिहार की राजनीति एक ऐसा व्यंग्यात्मक महाकाव्य है, जिसे हर पांच साल पर जनता स्वयं लिखती भी है और पछताते हुए स्वयं ही पढ़ती भी है. यहां योग्य, शिक्षित और साफ-सुथरे उम्मीदवार ठीक वैसे दिखाई देते हैं जैसे मूसलाधार बारिश में खड़ी वह एकमात्र छतरी जो सबसे उपयोगी होती है, पर भीड़ फिर भी उसी के पीछे चलती है जिसके हाथ में जातीय तंबू हो. चुनाव आते ही सारा विमर्श एक ही प्रश्न पर सिमट जाता है. उम्मीदवार किस जाति का है? और शिक्षा, दृष्टि, ईमानदारी तथा कार्य-क्षमता ये सब चुनावी मेन्यू के वे व्यंजन बन जाते हैं जिन्हें देख तो लेते हैं, पर चुनते कोई नहीं. योग्य उम्मीदवार जब जनता के बीच जाता है तो उसके चेहरे पर योजनाओं का उजाला, बदलाव की उम्मीद और विकास का विश्वास होता है. पर जनता उसे उसी संदेह से देखती है, जैसे कोई डिजिटल युग में नया मोबाइल देखकर सोचता है अच्छा तो है, पर भरोसा कैसे करें?

उधर पारंपरिक नेता चुनाव से तीन महीने पहले अचानक अवतरित होते हैं और बड़ी आत्मीयता से घोषणा करते हैं “आपका बेटा हूं, आप ही के बीच पला-बढ़ा हूं.” जबकि पांच साल तक उनका अता-पता नहीं मिलता. किंतु जातीय गणित ऐसी विचित्र सत्ता है कि जनता तुरंत भावुक होकर कहती है “चलो, बेटा ही सही, सीट पर बैठते ही सुधर जाएगा.” लोकतंत्र यह दृश्य देखकर बस मुस्कुराता है कि जनता पांच साल नेता को नहीं ढूंढ़ पाती, पर अगला पांच साल उम्मीद करती है कि नेता उसे ढूंढ़ लेगा. मतदाता का मनोविज्ञान भी अपने आप में शोध का विषय है. चुनावी मौसम में भावनाएँ इतनी गाढ़ी हो जाती हैं कि तर्क उसी में घुटकर समाप्त हो जाता है. लोगों को डर दिखाया जाता है कि “दूसरी जाति वाला जीत गया तो हमारा नुकसान होगा.” यह भय इतना गहरा बैठा है कि कई बार वह नेता भी चुन लिया जाता है जिसे देखकर भीतर की आवाज़ कहती है .“यह नहीं जीतना चाहिए.” पर वोट फिर भी उसी को मिलता है जो जातीय पहचान का झंडा उठाए खड़ा हो. और पांच साल बाद फिर वही जनता पूछती है “बिहार बदल क्यों नहीं रहा?” जवाब उतना ही सीधा है जितना कड़वा ,वोट अगर आदत से दिया जाए, तो परिणाम कभी बदल नहीं सकता.

योग्य प्रत्याशी यहां ऐसे लगते हैं जैसे किसी मांसाहारी भोज में बुलाया गया शाकाहारी मेहमान सब उसका सम्मान तो करते हैं, पर प्लेट उसके सामने कोई नहीं रखता. वह सोचता है कि जनता विकास देखेगी, रोडमैप सुनेगी और पारदर्शिता चुनेगी; लेकिन जनता अपनी जाति का चेहरा ढूंढ़ लेती है और वही निर्णय कर देती है. वह सोचते-सोचते हार जाता है, और जनता सोचती रहती है. “अगली बार इसे मौका देंगे” पर अगली बार भी जातीय कैलकुलेटर ही पहले चालू होता है, और बाकी सब बाद में.

परिवर्तन संभव है और पूरी तरह से संभव है.लेकिन इसके लिए जनता को अपनी मतदान-आदतें बदलनी होंगी. सबसे अहम है राजनीतिक साक्षरता मतदाता को यह समझना होगा कि वोट पहचान का नहीं, भविष्य का दस्तावेज़ होता है. यदि कॉलेजों, स्कूलों और पंचायतों में लगातार जागरूकता अभियान चलें कि “वोट जाति को नहीं, काम को दो,” तो तीन चुनाव पर्याप्त हैं बिहार को नया रास्ता दिखाने के लिए. योग्य उम्मीदवारों को भी मौसम के मेहमान नहीं, बल्कि 5 वर्ष जनता के बीच रहने वाले कर्मयोगी बनना होगा. जब जनता देखेगी कि यह व्यक्ति सिर्फ चुनावी समय का मुसाफ़िर नहीं, बल्कि स्थायी सेवक है, तब जातीय दीवारों में पहली दरार पड़ेगी. युवा मतदाता भी केवल सोशल मीडिया के योद्धा न बनें बूथ पर जाकर राष्ट्र का भविष्य तय करें. मीडिया और बुद्धिजीवी समाज को भी जातीय राजनीति पर चुप्पी तोड़नी होगी, सवाल उठाने होंगे, ताकि जनता समझ सके कि विकास कोई आदर्शवादी सपना नहीं, बल्कि व्यवहारिक आवश्यकता है. अंत में बिहार की इस चुनावी विडंबना पर एक व्यंग्यात्मक शायरी, जो इस पूरी कहानी का निचोड़ है: “हमने तो वोट जाति को देकर सोचा था उजाला होगा, पर पता चला अंधेरा नेता नहीं बदलता, सोच बदलनी पड़ती है.हम विकास की बातें करते हैं, पर वोट पहचान को दे आते हैं, फिर कहते हैं बिहार क्यों नहीं बदलता अरे साहब, चेहरा बदलने से क्या होगा .जब आदतें अभी भी वही पुरानी हैं.

(लेखक अशुतोष रंजन, सीनियर रिसर्च फेलो, राजनीति विज्ञान विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय और भारतीय राजनीति विज्ञान परिषद (IPSA) के सदस्य हैं.)

(इस लेख को ज्यों का त्यों प्रकाशित किया गया है. इसे दिप्रिंट द्वारा संपादित/फैक्ट-चैक नहीं किया गया है.)

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