पानीपत, हरियाणा: पानीपत, हरियाणा के बाहरी इलाके में बसे एक गांव बाबरपुर की सड़कों पर सुबह के 11 बज रहे हैं, और सूरज की तपिश अपना कहर बरपा रही है. इधर गांव के ही एक कोने में, महिलाओं का एक छोटा सा समूह झुमके, कोस्टर, टेबल मैट, वॉल हैंगिंग और यहां तक कि घर की साज-सज्जा के लिए काम आने वाले कालीन और कपड़े बनाने में व्यस्त है.
दूर से देखने पर ये किसी भी अन्य हस्तशिल्प वस्तु की तरह ही दिखते हैं, मगर, नज़दीकी नज़र डालने पर पता चलता है कि क्यों वे अपने आप में अनूठे हैं. दरअसल ये सभी आइटम (वस्तुएं) पराली से बने होते हैं.
पराली, यानी कि अनाज की कटाई के बाद पौधों के बचे हुए डंठल, पिछले कुछ वर्षों में बहुत सारे विवाद और राजनीति का विषय रहा है. अगले बुवाई के मौसम के लिए खेतों को साफ करने हेतु पराली में आग लगाने की प्रथा, जो कि पंजाब और हरियाणा में बड़े पैमाने पर देखी जाती है, को दिल्ली की अतिगंभीर प्रदूषण समस्या में प्राथमिक रूप से योगदान करने वाले कारकों में से एक के रूप में देखा गया है.
इंडियन काउंसिल ऑफ़ एग्रीकल्चरल रिसर्च (आईसीएआर)- इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टिट्यूट (आईएआरआई) के आंकड़ों से पता चलता है कि पंजाब और हरियाणा में इस साल 15 सितंबर से 8 नवंबर के बीच पराली में आग लगाने की 35,714 घटनाएं हुई हैं. इसमें से 33,090 घटनाएं अकेले पंजाब में हुई.
पानीपत की एक युवा उद्यमी आरुषि मित्तल, जिन्होंने ‘पराली बाय आरुषि’ की शुरुआत की है, के मामले में इस बढ़ते प्रदूषण स्तर ने उन्हें कुछ बदलाव लाने के लिए प्रेरित किया. वह साल 2019 की बात है, जब वह यूके में टेक्सटाइल डिजाइन में मास्टर डिग्री की पढ़ाई कर रही थी.
26 वर्षीय आरुषि मित्तल ने दिप्रिंट को बताया, ‘मैं और मेरा परिवार वायु प्रदूषण के बारे में चर्चा कर रहे थे और तभी मैंने अपने मूल स्थान को अपनी तरफ से कुछ वापस देने के लिए इस सामग्री के अन्य उपयोग की खोज करने के बारे में सोचा. मैंने साल 2019 में अपनी थीसिस के एक हिस्से के रूप में इस पर काम करना शुरू किया और फिर धीरे-धीरे इसके व्यावसायिक पहलू की खोज की.’
‘पराली बाय आरुषि’ उनके तीन साल के शोध का नतीजा है. इस साल सितंबर में बाबरपुर में स्थापित अपने उद्यम के तहत मित्तल ने वर्तमान में एक ही गांव की छह महिलाओं को पराली को घरों की सजावट की वस्तुओं में बदलने के लिए काम पर रखा हुआ है.
अपने हाथ में उनके द्वारा डिज़ाइन किये गए एक टेबल मैट को पकड़े हुए मित्तल ने दिप्रिंट से कहा, ‘प्रत्येक उत्पाद के डिजाइन के पीछे एक कहानी है. यदि किसी उत्पाद में कांच का उपयोग किया जाता है, तो यह धान के खेतों में उपयोग किए जाने वाले पानी को दर्शाने के लिए होता है. जैसे पानी आकाश को दर्शाता है, वैसे ही (इस उत्पाद में प्रयुक्त) कांच भी आपको आपका प्रतिबिंब दिखाता है.’
एक बार इस तरह के विचार की कल्पना कर लेने के बाद, मित्तल ने कोविड की वजह से लगाए गए लॉकडाउन के दौरान विभिन्न उत्पादों को बनाकर पराली के साथ प्रयोग करना शुरू कर दिया. हालांकि, महामारी ने उनकी व्यावसायिक योजनाओं को इस वर्ष तक के लिए रोक कर दिया था.
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कचरे से संपत्ति निर्माण की ओर
तो तिनके को कलाकृति का स्वरूप देने में क्या कुछ लगता है? बहुत सारा प्रयास और सरलता, जैसा कि पता चला है.
मित्तल ने इस पूरी प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बताया. सबसे पहले, पराली के ढेर को साफ किया जाता है और फिर उन्हें छांटा जाता है. उन्हीं में से किसी एक ढेर को फिर कालीनों, टेबल मैट और कपड़ों के रूप में बुना जाता है, जबकि कोई दूसरा ढेर कोई अन्य उत्पाद, जैसे कि झुमके, बनाने के काम आता है
मित्तल के अनुसार, पराली का कोई भी हिस्सा बेकार नहीं जाता है – जहां डंठल के ऊपरी हिस्से का उपयोग दीवार पर लटकने वाले शोपीस (वाल हैंगिंग) जैसे हस्तशिल्प के हल्के वस्तुओं को बनाने के लिए किया जाता है, वही बीच के मोटे हिस्से का उपयोग गलीचा और चटाई बनाने के लिए किया जाता है.
पराली के शेष अवशेषों को मिट्टी जैसी चीजों के साथ मिलाकर मनके और छोटी मूर्तियां बनाई जाती हैं. मित्तल ने कहा, ‘बचेखुचे अंश का उपयोग कागज, कार्डबोर्ड आदि बनाने के लिए भी किया जाता है. इसलिए वास्तव में कुछ भी बर्बाद नहीं होता है.’
‘पराली बाय आरुषि’ में काम पर रखी गईं सभी महिलाओं को उनके द्वारा ही प्रशिक्षित किया जाता है.
वे कहती हैं, ‘मैं गांव की महिलाओं को किसी तरह का कौशल सिखाने के लिए उन्हें प्रशिक्षण दे रही हूँ. ये महिलाएं पहले भी खेतों में काम कर चुकी हैं.’
मित्तल के साथ काम करने वाली महिलाओं की टीम में ममता तोमर भी शामिल हैं.
गर्व से भरी दिख रहीं तोमर ने दिप्रिंट को बताया, ‘हमने यह सब आरुषि दीदी से ही सीखा है. कभी-कभी यह सही होता है, कभी-कभी यह गलत हो जाता है, लेकिन अंततः हम सीख जाते हैं कि इसे कैसे बनाया जाता है.’
‘आरुषि बाय पराली’ की एक अन्य कर्मचारी मंजू तोमर ने कहा, ‘इसे बनाते समय हमें अच्छा लग रहा है.‘ उनके साथ की अन्य महिलाओं ने भी मुस्कुराते हुए सहमति में सिर हिलाया.
‘आरुषि बाय पराली’ द्वारा तैयार किये गए झुमके की एक जोड़ी की कीमत 60 रुपये, कोस्टर के एक सेट की कीमत 500 रुपये और एक टेबल मैट की कीमत 800 रुपये आती है.
वह अपने उत्पादों की मजबूती को बनाए रखने के लिए पराली के साथ जैविक सूती धागे में बुनाई करती है.
मित्तल ने बताया, ‘जैविक कपास सामान्य कपास की तुलना में लगभग चार गुना अधिक महंगा होता है, लेकिन यह पर्यावरण के लिए अच्छा है. हालांकि यह वही उत्पाद है मगर इसमें किसी भी कीटनाशक या कृमिनाशक का उपयोग नहीं किया जाता है.’
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काफी अधिक लागत
हालांकि, यह सब करना एकदम से सहज भी नहीं है – उत्पादन शुरू होने से पहले ही चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.
मित्तल ने बताया परेशानियां पराली की खरीद के चरण में ही शुरू हो जाती है, पराली – फसल का वह बचा हुआ हिस्सा जिसे किसान आमतौर पर कचरा मानते हैं – के लिए मित्तल द्वारा चुकाई गई कीमत 350 रुपये से 650 रुपये प्रति क्विंटल के बीच हो सकती है. उन्हें अक्सर किसानों को अपनी पराली बेचने के लिए राजी करने में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘बहुत से किसान इस बात को समझते ही नहीं हैं कि अपसाइक्लिंग का क्या मतलब है. उन्हें इस बात पर संदेह होता है कि हम इसका (पराली का) इस्तेमाल किस लिए करने जा रहे हैं और इसलिए वे हमें महंगी दरों पर बेचते हैं. उनमें से कई तो इसे हमें बेचने के बजाय जलाने के लिए भी तैयार रहते हैं.’ साथ ही, उन्होंने कहा कि वह इसे आसानी से किसानों से वैसे ही मुफ्त में ले सकती थीं, मगर वह इसे खरीद रही हैं क्योंकि वे वास्तव में चाहती हैं कि लोग इस अवशेष की कुछ कीमत देखें.
आरुषि ने कहा, ‘यह कोई कचरा नहीं है, यह एक संसाधन है और हम इसे एक संसाधन के रूप में उपयोग करने की कोशिश कर रहे हैं.’
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घर, घर पराली
फिलहाल, मित्तल का सारा कारोबार मुख्य रूप से प्रदर्शनियों के माध्यम से होता है, हालांकि उनकी बिजनेस-टू -बिजनेस सेल – यानी व्यावसायिक घरानों से मिलने वाले खरीद के ऑफ़र – भी तेजी से बढ़ रहे हैं.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि उनके काम को हस्तशिल्प विशेषज्ञों के बीच भी सराहना मिली है.
वे कहती हैं, ‘मैं हर घर, हर सेट-अप में पराली को देखना चाहती हूं जैसे बांस को एक संसाधन के रूप में देखा जाता है, वैसे ही मैं चाहती हूं कि पराली को भी एक संसाधन के रूप में देखा जाए, न कि किसी कचरे के रूप में.’
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