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Wednesday, 24 April, 2024
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बिहार के गोपालगंज के एक गांव ने साझी रसोई से पेश की हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल, सड़क पर चल रहे मजदूरों को खिला रहे खाना

हिंदू-मुस्लिमों के सहयोग से इस रसोई में करीब 8 से 10 हजार मजदूरों को खाना खिलाया जा रहा है. इसमें लगभग 60 लोग काम करते हैं.

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गोपालगंज: बिहार में इस वक्त लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर अपने गांव-देहात में लौट रहे हैं. इसके लिए वो ट्रक, साइकिल, बस और पैदल ही चल पड़े हैं. इस बीच बिहार के गोपालगंज जिले के भोपतापुर गांव के लोग एक साथ मिलकर यूपी से बिहार आ रहे मजदूरों को खाना खिला रहे हैं.

मजदूरों की पीड़ा देखते हुए इस गांव के लोगों ने हाईवे के बगल में ही एक साझी रसोई शुरू कर दी है. यह राष्ट्रीय राजमार्ग 27 से थोड़ी दूर सड़क किनारे सामुदायिक रसोई शुरू की है. हर रोज इस रसोई में पकने वाले खाने से करीब 8 से 10 हजार मजदूरों को खाना खिलाया जा रहा है. सुबह के 3 बजे ही यहां खाना बनना शुरू कर दिया जाता है.

इसकी शुरुआत उमेश यादव ने की है जो कि एक टीचर भी हैं. उनके साथ पांच छह लोग और जुड़ गए. फिलहाल इस जगह पर लगभग 60 लोग काम करते हैं.

गांव वाले पलायन कर रहे मजदूरों के लिए भोजन उपलब्ध करा रहे हैं/फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंटदिप्रिंट ने इस कम्यूनिटी किचन में दिन और रात के दौरान लोगों को ट्रकों, साइकिलों और बसों से उतरकर खाते हुए देखा. यहां प्रवासी मजदूरों के साबुन से हाथ धुलवाए जा रहे थे, चापाकल (हैंडपंप) से पानी भरवाकर दिया जा रहा था और फिर लाइन में लगकर खाना दिया जा रहा है.

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मोहम्मद मंसूर ने दिप्रिंट को बताया, ’11-16 मई के बीच, हमने रोजाना 8000-10000 लोगों को भोजन कराया, इसकी अनुमानित लागत 20,000-30000 के बीच थी. उस समय फंसे हुए प्रवासी कामगारों की संख्या अधिक थी, क्योंकि उन्हें यूपी-बिहार सीमा पर छोड़ा जा रहा था. जो अब पाथरी (गोपालगंज) चेक पोस्ट पर पास जारी होने के बाद कम हो गया है. बिहार सरकार इन मजदूरों को पास देने की प्रक्रिया शुरू की है.’

मोहम्मद मंसूर ने आगे कहा, ’17 मई से हम 2000-3000 कम प्रवासी मजदूरों को खाना खिला रहे हैं. क्योंकि पास जल्दी जारी होने के बाद से वे अपने मूल गांवों के लिए सीधी बसें लेना शुरू कर चुके हैं.’

‘हम जरूरत के हिसाब से धन इकट्ठा नहीं कर पा रहे हैं. यह सब पूरी तरह से गांव के लोगों के योगदान पर आधारित है- सिलेंडर से लेकर साबुन, राशन तक.’ मंसूर ने कहा.

मंसूर ने कहा, ‘समय के साथ रामपुर बाबू जैसे नजदीकी गांवों से भी योगदान आना शुरू हुआ.’

उमेश यादव ने इस कम्युनिटी किचन को 3 हफ्ते पहले शुरू किया था.

सोशल डिस्टैंसिंग के लिए कई सर्कल भी बनाए गए थे और एक लाउडस्पीकर व माइक के जरिए बार बार दूरी बनाए रखने की घोषणा भी की जा रही थी. इसके अलावा यहां के लोग बिस्किट और स्नैक्स भी पैक करके मजदूरों को दे रहे थे ताकि जिनको आगे जाना है वो खाना साथ लेकर जा सकें.

हिंदु-मुस्लिम साथ आए

भोपतापुर गांव में लगभग 70 फीसदी हिंदू और 30 फीसदी मुस्लिम हैं.

उमेश दिप्रिंट को बताते हैं, ‘पैदल और ट्रकों में आ रहे इन प्रवासी मजदूरों की पीड़ा को देखना मुश्किल हो रहा था इसलिए हमने खाना खिलाना शुरू किया. बाद में हिंदू और मुस्लिम दोनों ही धर्मों के लोग इससे जुड़ते गए.’

वह आगे कहते हैं, ‘रमजान का महीना चल रहा है मुस्लिम समुदाय से कुछ लोग आए और उन्होंने कहा कि वो भी मदद करना चाहते हैं. मुझे सुनकर बड़ी खुशी हुई. ऐसे समय में इस बात से बढ़कर क्या होगा कि दोनों ही धर्मों के लोग इस नेक कार्य में लगे हुए हैं.’

हैंडपंप से पानी भरता मजदूर/फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

वो आगे जोड़ते हैं, ‘तीन हफ्ते पहले हम छह लोगों ने इसकी शुरुआत की थी. लेकिन कारवां बढ़ता गया और आज हम लोग साठ लोग इससे जुड़े हुए हैं. दिन और रात, दोनों ही टाइम खाना बनता है. लेकिन मजदूरों के समूह रात को ज्यादा चलते हैं और दिन में वो लोग ब्रेक लेते हैं. हम लोग रात में 1 से 2 बजे के बीच ब्रेक लेते हैं और तीन बजे फिर रसोई शुरू कर देते हैं.’

उमेश का काम देखकर इस गांव के मुस्लिम भी उनके साथ मिलकर काम करने लगे. रसोई में खाने को पकाने और बांटने का समय सेहरी और इफ्तारी को ध्यान में रखते हुए निर्धारित कर लिया गया है.

यहां मौजूद पेशे से टेक्निशियन आजाद हुसैन अंसारी दिप्रिंट को बताते हैं, ‘रमजान बरकत का महीना होता है. अल्लाह का नाम लेकर हम हर भूखे का पेट भरने की कोशिश कर रहे हैं. हम उमेश जी का आभार प्रकट करते हैं कि उन्होंने इस नेक काम की शुरुआत की. अब हम रमजान के दिन यहां सेवा करने में बिताते हैं.’

वो कहते हैं, ‘जब हम भूखे,प्यासे और चेहरे पर बेबसी लिए पैदल जा रहे मजदूरों को देखते हैं तो दुख होता है. वो लोग बताते हैं कि कैसे शहरों ने उन्हें लाचार अवस्था में छोड़ दिया है और वहां खाने के लाले पड़ गए हैं. इसलिए हमने उमेश जी से कहा कि हम लोग भी पार्ट टाइम में उनके साथ मिलकर काम करना चाहते हैं. इंसानियत सबसे पहले काम आती है.

महमूद मंसूर भी एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं. वो बताते हैं कि इस गांव के युवा भी दिन रात खाना बनाने व पैक करने में लगे हुए हैं.

महमूद के कहते हैं,’ हम सब मिलकर ये काम कर रहे हैं तो सबसे एकता की भावना है. हिंदू हो या मुस्लिम इस गांव के सारे युवाओँ ने इस काम की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले रखी हैं और बारी-बारी से सभी अपना काम कर भी रहे हैं. हमारे यहां दोनों धर्मों के बीच भाईचारा है और यहीं दोनों धर्मों की खूबसूरती है.’

अनुशासन में हैं सभी

सांझी रसोई में भी सोशल डिस्टैंसिंग का पालन करने की कोशिशें की जा रही हैं. जूट की रस्सियों द्वारा रसोई को अलग- अलग किया गया है ताकि जो लोग खाना बांट रहे हैं और जो लोग खाना खा रहे हैं उनके बीच पर्याप्त दूरी बने रहे.

माइक के जरिए थोड़ी थोड़ी देर में घोषणा कर याद भी दिलाया जा रहा है कि सैनिटाइज करें और सोशल डिस्टैंसिंग का पालन करें. इसके अलावा उन्हें गोपालगंज ट्रांजिट सेंटर पर स्क्रीनिंग कराने के लिए भी कहा जा रहा है.

हाईवे के आस पास के इलाके में रसोई से जुड़े लोग मजूदरों को आराम करने, हाथ धोने, पानी पीने और खाने के लिए बार-बार आग्रह कर रहे हैं.

मजदूरों के हाथ-पैर धोने के लिए अलग से चापाकल (हैंडपंप) भी लगवाया गया है. लोगों को सैनिटाइज करने की भी कोशिश की जा रही हैं.

उमेश बताते हैं कि वो हर रोज हजारों लोगों को यहां से जाते हुए देख रहे हैं. सारे लोग अनुशासन का पालन कर रहे हैं. कोई लाइन तोड़ने की कोशिश नहीं कर है और ना ही कोई खाने के लिए छीना झपटी कर रहा है.

एक आदमी मदद के लिए एक किलो आटा लाया

वहां मौजूद लोगों ने दिप्रिंट को बताया कि खाने का मैन्यू हर रोज बदलता रहता है. कभी पूरी सब्जी तो कभी दाल चावल खिलाए जाते हैं. पॉलिथिन बैग्स में खाना पैक करके भी दिया जा रहा है. इसके अलावा पानी की बोतलें भी बांटी जा रही है.

यहां काम करने वाले राजेश शाह जोड़ते हैं, ‘लोगों ने दिल खोलकर दान किया है. इन क्राइसिस में लोगों का दयालु पक्ष भी सामने निकल कर आया है. कई मौके ऐसे भी रहे हैं जब गरीब से गरीब आदमी ने आगे बढ़कर मदद की है. यहां एक ऐसा भी केस था जहां एक व्यक्ति ने एक किलो आटा भी दान किया. ‘

वो कहते हैं, ‘लोग सिलेंडर से लेकर राशन या पैसे, जो भी उनसे हो पा रहा है, कर रहे हैं.’

यहां खाना बनाने वाले विजेश दिप्रिंट को बताते हैं, ‘मैं खुद अपना गुजारा बड़ी मुश्किल से कर पा रहा हूं, लॉकडाउन के चलते मेरा काम भी बंद हो गया है. अब मैं यहां अपनी सेवा दे रहा हूं. मैं एक बार में लगभग 1000 लोगों का खाना बना लेता हूं.’

विजेश बताते बताते भावुक होने लगते हैं. वो कहते हैं, ‘भले ही मेरी कमाई रूक गई है लेकिन मैं इन मजबूर लोगों के लिए खाना बनाकर पैसे नहीं कमा सकता. ये मेरे अपने लोगों के लिए हैं जो भूख से मर रहे हैं. मैं बस अपने बिहारियों को घर आते हुए देखन चाहता हूं.’

खाना और पानी देने के लिए इस रसोई के पास ही मैकेनिक भी हैं जो साइकल से चले आ रहे प्रवासी मजदूरों की साइकिलें भी रिपेयर करते हैं. साथ ही जिनकी चप्पलें टूट गई हैं, उनको भी चप्पलें देते हैं.

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