आजादी के बाद इस्लामी आक्रमणों को लेकर हिंदुओं की चिंता बढ़ने से वर्षों वर्ष पहले इंदौर की रानी अहिल्याबाई होल्कर ने सोमनाथ और वाराणसी के मंदिरों को दोबारा बनावाया था. इन मंदिरों के दर्शनार्थियों को आज भी इसके किस्से स्थानीय लोगों, पुरोहितों और टूर गाइडों से सुनने को मिलते हैं. ढहाए गए काशी विश्वनाथ मंदिर का दोबारा निर्माण कराना कई मराठा शासकों का सपना था. लेकिन सिर्फ रानी अहिल्याबाई होल्कर उसे साकार कर पाईं. अब करीब ढाई सदी बाद उनका ढांचा विवाद के केंद्र में है.
ज्ञानवापी मस्जिद परिसर और उससे सटा विश्वेश्वर मंदिर का हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दाखिल करने के बाद सर्वेक्षण किया गया. लेकिन आज मंदिर इसलिए खड़ा है क्योंकि 18वीं सदी की रानी ने उसका दोबारा निर्माण करने का बीड़ा उठाया.
काशी विश्वनाथ मंदिर महंतों की लंबी परंपरा वाले परिवार से संबंध रखने वाले राजेंछ्र तिवार के मुताबिक, अहिल्याबाई को ऐसा करने का सपना आया था. स्थानीय किंवदंतियां यह भी हैं कि अहिल्याबाई ने सोमनाथ मंदिर की जर्जर अवस्था को देखा तो सदमे से उनकी आंखें सफेद हो गईं. फिर उन्होंने एक गुप्त तीर्थस्थल के तहखाने में मूर्ति की स्थापना की, ताकि उसे कोई छू न सके.
दरअसल, सभी प्रमुख हिंदू तीर्थस्थलों से आहिल्याबाई का कुछ न कुछ संबंध है. पुरी के जगन्नाथ मंदिर से लेकर गुजरात में द्वारका, उत्तर में केदारनाथ से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम तक, अहिल्याबाई ने कुछ न कुछ निर्माण कराया और उसके रखरखाव में मदद की. उन्होंने अपनी निजी संपत्ति से पूरे देश के मंदिरों में गंगाजल भिजवाया. जिसे बांस की कावंड में ले जाया गया.
कैसे अनजानी-सी मराठा बहु वह करने में कामयाब हो गई जिसमें पुरुष नाकाम हो गए थे, यह कहानी उनकी धर्मपरायणता की ताकत में छुपी हुई है. गौरतलब यह भी है कि वे एक समय सती बनने जा रही थीं, लेकिन अपने इलाके की निर्विवाद शासक बन गईं. अहिल्याबाई ने अपने राज को कभी धर्म से अलग नहीं किया. स्थानीय किंवदंतियों के मुताबिक, उनके महल से भूमिगतज सुरंग नासिक में बनाए उनके मंदिर से जुड़ती थीं.
अदालतों ने ज्ञानवापी मस्जिद स्थल के पुराने घावों को हरा कर दिया तो महमूद गजनी और औरंगजेब की भूमिकाओं पर सवाल उठने लगे. सिर्फ बीजेपी, आरएसएस और वीएचपी ही नहीं, कई हिंदू शासकों ने भी इन मंदिर स्थलों को सभ्यतागत पराजय के रूप में देखा था. उन्हीं में एक मराठा रानी थीं.
मंदिरों का निर्माण और पुनर्निर्माण करने वाले
अहिल्याबाई सिर्फ अपने प्रशासन के लिए ही नहीं जानी जातीं, बल्कि अपनी धर्मपरायणता, मंदिरों के पुर्निर्माण और मरम्मत के लिए भी प्रसिद्ध हैं. उनका जन्म 1725 में हुआ और उन्होंने 1795 में मृत्यु के बाद 28 साल तक राज किया. अहिल्याबाई ने अपनी धर्मपरायणता को अपनी ताकत बनाया. वे संयमी विधवा और ताकतवर शासक दोनों थीं.
प्राथमिक तौर पर उनका सरोकार शैव तीर्थस्थलों के जीर्णोद्धार में था. उनके दो सबसे प्रसिद्ध परियोजनाएं सोमननाथ मंदिर और काशी विश्वनाथ मंदिर हैं.
प्रभाष पाटन के सोमनाथ मंदिर और वाराणसी के काशी विश्वनाथ पर 11वीं सदी में महमूद गजनी ने हमला किया और 17वीं सदी में औरंगजेब ने तोड़ा. ये मंदिर सबसे खास शैव तीर्थस्थल हैं और आज अहल्याबाई की वजह से श्रद्धालुओं और पर्यटकों के सामने खड़े हैं. स्वतंत्रता सेनानी और वीएचपी के सह-संस्थापक के.एम. मुंशी की किताब के मुताबिक, 1783 में जब अहिल्याबाई ने उसके निर्माण का आदेश दिया तो वह जर्जर अवस्था में था. उनका मंदिर आखिरकार 1950 में सरदार वल्लभभाई पटेल और मुंशी की देखरेख में बने भव्य मंदिर के आगे छोटा हो गया. अहिल्याबाई के पुनर्निर्माण से यह तीर्थ तीर्थयात्रियों के लिए जीवंत बना रहा.
गुजरात में वेरावल में रहने वाले और सोमनाथ मंदिर परिसर का टूर आयोजित करने वाले ड्राइवर संजय व्यास कहते हैं, ‘अहिल्याबाई मंदिर को अब ‘पुराना सोमनाथ या अहिल्याबाई मंदिर’ कहा जाता है, जो मुख्य सोमनाथ मंदिर से 200 मीटर दूर स्थित है.’ व्यास पर्यटकों को बताते हैं कि सोमनाथ में अहिल्याबाई मंदिर की दशा देख इस कदर परेशान हुईं कि उन्होंने एक गुप्त स्थल पर मूर्ति की स्थापना की. सोमनाथ में ‘शिवलिंग’ बीच में झूलता रहता था लेकिन गजनी के हमले में जमीन पर फेंक दिया गया.
व्यास ने कहा, ‘उसके बाद कई मूल्यवान ढांचे भूमिगत बनाए गए, ताकि हमलावरों की नजर न पड़े. और अहिल्याबाई की मुर्ति प्रतिष्ठा शांति के दौर में हुई, जिससे उनका मंदिर कायम रहा और वर्षों के अंतराल में कुछ मरम्मत वगैरह ही हुए.’
काशी में भी अहल्याबाई के प्रभाव की कहानी ऐसी ही है. उन्होंने औरंगजेब के ढहाने के 111 साल बाद 1780 में काशी विश्वनाथ मंदिर को दोबारा जिंदा कराया. उन्होंने ज्ञानवापी मस्जिद के बगल में दक्षिण का स्थान चुना, और उनका मंदिर स्कंद पुराण के काशीकांड में वर्णित कर्मकांडों के अनुरूप हैं.
काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत राजेंद्र तिवार के मुताबिक, अहिल्याबाइ को सपना आया कि मंदिर के पुराने गौरव को बहाल करना उनका दायित्व है. तीर्थस्थल से अपने परिवार की पुश्तैनी संबंधों का साझा करते हुए तिवारी ने दिप्रिंट से कहा, ‘वे काशी विश्वनाथ के दर्शन को आईं और हमारे पूर्वजों से उनकी जमीन पर मंदिर बनाने की अनुमति मांगी, जो उन्होंने सहर्ष दे दी.’
तिवारी ने कहा, ‘निर्माण पूरा हो जाने के बाद अहिल्याबाई ने एक पत्थर गड़वाया, जिस पर संस्कृत में लिखा था कि अहिल्याबाई ने मेरे परिवार की मदद और अनुमति से मंदिर की पुनर्स्थापना की.’
उसमें दो गर्भ-गृह विश्वेश्वर और दंडपाणि के लिए बनाए गए. नंदीकेश और महाकालेश्वर का कोई स्थान नहीं बनाया गया. इतिहासकार माधुरी देसाई की किताब बनारस रिकन्सट्रक्टेड: आर्र्किटेक्चर ऐंड सैक्रेड स्पेस इन ए हिंदू होली सीटी में अहिल्याबाई के मंदिर को ज्ञानवापी परिसर की प्रतिस्पर्धा में बनाया गया और उसे तीर्थस्थल के रूप में प्रसिद्ध होने में कुछ समय लगा. अंग्रेज विद्वान जेम्स प्रिंसेप बताते हैं कि उनका मंदिर 1820 के दशक में काफी लोकप्रिय हुआ.
अहिल्याबाई ने दूसरों को भी दान देने को प्रेरित किया, ताकि प्रमुख तीर्थों का ख्याल रखा जा सके.
मसलन, काशी में अहिल्याबाई का नया मंदिर 19वीं सदी प्रमुख दानादाताओं के आकर्षण का केंद्र बना. माधुरी देसाई लिखती हैं कि नागपूर के भोंसला परिवार ने 1811 में मंदिर में चांदी का चढ़ाव चढ़ाया, और लाहौर के महाराजा रंजीत सिंह ने मंदिर के ‘कंगूरे’ और ‘शिखर’ पर चढ़ाने के लिए सोने के पत्तर मुहैया कराए. बगल के ज्ञानवापी परिसर को ग्वालियर के सिंधिया राजाओं से भी संरक्षण प्राप्त हुआ, जिन्होंने एक पत्थर का स्तेभ बनवाया.
धर्मपरायणता की ताकत
इन मंदिर स्थलों में अहिल्याबबाई होल्कर के योगदान को ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने की कोशिश कहने का लालच होता है. लेकिन अहिल्याबाई की धर्मपरायणता उनके समय से ही प्रेरित नहीं थी, बल्कि यह उनकी सत्ता को स्थापित करने का भी जरिया थी.
असल में, बताया जाता है कि अपने पति के परिवार में उनका उत्थान भी उनके पवित्र स्वभाव की वजह से हुआ. उनके ससुर मल्हारराव होल्कर ने आठ साल की अहिल्याबाई को प्रार्थना में गहरे लीन अवस्था में देखा था. उसके बाद से इंदौर का राजकाज लगातार बदलता रहा और शून्य जैसी स्थिति भी पैदा हुई जिसमें अहिल्याबाई ने उम्मीद और आस्था कायम किया.
होल्कर परिवार खुद सामाजिक पायदान पर सबसे ऊंचा नहीं था. अहिल्याबाई धनगड़ जाति से थी. सरदारों की तरह ही होल्कर भी गद्दी के संरक्षक थे और पेशवाओं से निचली पांत के थे. मल्हारराव होल्कर पेशवा बाजीराव प्रथम के वफादार थे और कई पेशवा सैन्य अभियानों में हिस्सेदार रहे थे. उनके बेटे तथा अहिल्याबाई के पति खांडेराव होल्कर एक सैन्य अभियान में 1754 में मारे गए.
अहिल्याबाई के पति शराबी और स्त्रियों के शौकीन थे. कहा जाता है कि इससे अहिल्याबाई काफी परेशान थीं. फिर, पेशवा बाजीराव की मस्तानी से रोमांस की लोकप्रिय कहानियों ने घाव पर नमक डिडक़ने जैसा काम किया. लेकिन वे पति के प्रति वफादार थीं. जब वे मरे उनकी ‘सरदार-स्त्री’ अहिल्याबाई उनके नौ कनिष्ठ पत्नियों के साथ सति हो जाने को तैयार थीं.
कथा यह है कि मल्हारराव ने अहिल्याबाई को खुद को बलिदान करने से रोका क्योंकि उन्होंने उनमें शासक होने का गुण देखा था. लेकिन खांडेराव की दूसरी नौ पत्नियों का यह भाग्य नहीं था. अहिल्याबाइ को मिलाकर उनकी दस पत्नियां थीं और एक मुसलमान पत्नि शबनम थी. 1766 में मल्हारराव की मौत के बाद अहिल्याबाई ने अपने छोटे-से बेटे की एवज में सत्ता संभाली. आखिरकार उन्होंने पेशवा माधव राव प्रथम के आगे गुहार लगाई और 1767 में उनके हाथ पूरी तरह सत्ता आ गई. उसके बाद तो उन्होंने अपनी स्थिति मजबूत की.
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में भारतीय इतिहास और संस्कृति के रिटायर प्रोफेसर, इतिहासकार रोजालिंड ओ’हानलोन ने कहा, ‘इसमें कोई संदेह नहीं कि वे काफी पवित्र महिला थीं. हालांकि ऐसे सार्वजनिक कामों से उनकी ताकत का इजहार होता था और उनकी बतौर शासक छवि मजबूत होती थी.’
प्रोफेसर ओ’हानलोन ने दिप्रिंट से कहा कि यह बेहद चतुर चुनाव था क्योंकि पवित्र सार्वजनिक कामों को एक महिला के लिए सही माना जाता था और इस तरह उनकी सत्ता मजबूत होती थी. ऐसी ही एक कहानी यह है कि पेशवा के खिलाफ उन्होंने शिव से रक्षा की प्रार्थना की थी.
ओ’हानलोन ने कहा, ‘उनके कई कामों को याद करना भी अहम है. मसलन, तालाब, सडक़ और सराय के निर्माण से तीर्थयात्रियों और यात्रियों सभी को उसी तरह लाभ मिला, जैसे हिंदू श्रद्धालुओं को.’
ऐतिहासिक दस्तावेजों के मुताबिक, अहिल्याबाई का सम्मान पूरे देश के हिंदू और मूसलमान दोनों राजा किया करते थे. एक अंग्रेज लेखक जॉन माल्कम ने 1823 में अपनी किताब ए मेम्योर ऑफ सेंट्रल इंडिया में लिखा कि अहिल्याबाई को ‘सभी एक ही तरह से सम्मान करते थे.’
माल्कम लिखते हैं, ‘दक् कन के निजाम और टीपू सुल्तान ने उन्हें पेशवाओं जैसा ही सम्मान दिया था, और उनकी लंबी उम्र और समृद्धि के लिए हिंदुओं के साथ मुसलमानों ने भी प्रार्थना की.’
उनके मौजूदा वारिश रिचर्ड होल्कर ने एक कहानी दिप्रिंट को यह बताई जिससे पता चलता है कि वे कैसे राजकाज करती थीं. जब पेशवा ने नर्मदा नदी के पार उनके इलाके पर दावा करने की कोशिश की तो अहिल्याबाई ने सिर्फ एक संदेश भेजा.
बकौल होल्कर, अहिल्याबाई ने संदेश में कहा, ‘मुझे मालू है कि आप क्यों आए हो, लेकिन कृपा करके यह समझें कि मैं एक सौ सैनिकों और उनकी पत्नियों के साथ एक स्त्री हूं और मराठा स्त्रियां काफी ताकतवर होती हैं. आप हमें जीत सकते हो लेकिन अगर भगवान शिव का हम पर आशीर्वाद रहा और हमने आपको हरा दिया तो आपकी इज्जत क्या रह जाएगी?’ पेशवा पुणे लोट गया, शायद इसलिए कि उसे अहिल्याबाई की आस्था पर संदेह नहीं था कि भगवान शिव उनकी रक्षा करेंगे. ऐसी थी उनकी प्रतिष्ठा.
आम रानी जैसी नहीं
अहिल्याबाई जब लड़ाइयां जीत जाती थीं तो इतिहासकार, परिजन, मंदिर के महंतख् और वे खुद ‘जन कल्याण’ करने को अपना पवित्र कर्तव्य मानती थीं.
लेकिन अहिल्याबाई कट्टर नहीं थीं. पति खांडेराव की मृत्यु के छह महीने बाद अहिल्याबाई को एक अंतिम संस्कार में पुजारियों की नाराजगी झेलनी पड़ी, जब उन्होंने उनकी मुस्लिम पत्नी के हक की आवज उठाई, जो सती हो गई थी. जब पुजारियों ने कर्मकांड करने से मना कर दिया तो अहिल्याबाई ने कहा कि वे स्थानीय मौलवी के पास जाएंगी. तब उन पर समूचे इंदौरी समाज ने उन पर मुस्लिमों की हमदर्द होने का लांछन लगाया.
अहिल्याबाई कभी राजकाज से उदासीन नहीं हुईं. एक मौके पर जब खजाने पर उनका ध्यान खींचा गया तो अहिल्याबाई ने वह कर दिखाया जो किसी दूसरी मराठा रानी या भारतीय इतिहास में और किसी ने नहीं किया था. उन्होंने अपने पति पर सालाना भत्ते को शराब पर दो महीने में उड़ा देने और राज के खजांची गंगोबा तात्या से अधिक धन मांगने के लिए भारी शुल्क दिया.
यह महत्वपूर्ण प्रशासकीय पहल थी. हिमालय से लेकर दक्षिण भारत तक मंदिरों, घाटों, नहरों, सुरंगों के बड़े पैमाने पर निर्माण-पुनर्निर्माण से रोजगार के अवसर पैदा हो रहे थे. सावित्री फुले पुणे यूनिवर्सिटी में पीएचडी फेलो गुंजन लालेश गरुड़ के मुताबिक, इससे मराठा साम्राज्य पर उनकी पकड़ मजबूत हुई.
रानी की प्रशासकीय क्षमताओं को अमूमन नजरअंदाज कर दिया है. होल्कर ने कहा, ‘हमें अहिल्याबाई को देश भर में शिव तीर्थस्थलों के निर्माण और बहाल करने के लिए उनकी प्रसिद्धि को ही नहीं देखना चाहिए, बल्कि उनकी प्रतिष्ठा चतुर प्रशासक के नाते भी थी, जिनका दरबार सबके लिए खुला था.’
सांस्कृतिक विरासत
अहिल्याबाई ने हिंदू तीर्थस्थलों का संरक्षण ही नहीं किया, बल्कि माहेश्वर का विकास भी किया.
सावित्री फुले पुणे यूनिवर्सिटी में इतिहास की प्रोफेसर श्रद्धा कुंभोजकर कहती हैं, ‘18वीं सदी में आधुनिकाता का उदय शुरू हुआ. अहिल्या देवी जैसे शासकों को नए विचारों के लिए भारी विरोध का सामना करना पड़ा. स्त्री होना भी शासक होने के लिए एक दिक्कत की तरह था. शुक्र है कि उनके ससुर का उन पर वरदहस्त था.’
मंदिरों के निर्माण और पुनर्निर्माण के अलावा अहिल्याबाई की विरासत माहेश्वरी के बुनकरों को मदद करने की भी रही है. रिचर्ड होल्कर के मुताबिक, अहिल्याबाई ने अपने बेटे की मृत्यु के बाद अपनी राजधानी माहेश्वर ले जाकर उसे पहचान दी. उन्होंने ‘तबाही के कगार’ पर पहुंच गए हथकरघा और हस्तकला उद्योग को समर्थन दिया और कई सांस्कृतिक गतिविधयों को बढ़ावा दिया. जैसे नर्मदा परिक्रमा वगैरह.
कुंभोजकर ने कहा, ‘अहिल्या देवी ने माहेश्वरी के बुनकरों को काफी प्रश्रय दिया. उसी की वजह से साड़ी उद्योग आज भी वहां की पहचान बना हुआ है.’
आखिरी महाराजा यशवंत राव होल्कर द्वितीय के बेटे रिचर्ड और उनकी पूर्व पत्नी सैली का 1970 के दशक से काम माहेश्वर महल या अहिल्या फोर्ट को हेरिटेज होटल में बदलने और हथकरघा उद्योग को नया जीवन देने के लिए रहा है. यह उद्योग अहिल्याबाई की मृत्यु के बाद की सदियों में कमजोर होता गया और 1950 में भारतीय संघ में उसके शामिल होने के बाद से तो मृतप्राय है.
कुंभोजकर ने कहा, ‘मृत्यु के बाद भी अहिल्याबाई को इलाके में विकास का श्रेय कई माने में जाता है. अहिल्याबाई ने अपनी स्थिति को मंजूर कर लिया था और अपनी प्रगतिशील नीतियों को जारी रखा. वे धार्मिक थीं मगर लड़ाई के मैदान में रणनीति बनाने वाली वीरांगना भी थीं.’
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