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Wednesday, 8 May, 2024
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सामाजिक आचरण, चुनने का हक- क्यों SC ने हिजाब मामले में अनिवार्य धार्मिक प्रथाओं की अनदेखी की

जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस सुधांशु धूलिया ने हिजाब प्रतिबंध पर अलग-अलग राय रखी. लेकिन दोनों ने इस बारे में विस्तार से नहीं बताया कि क्या इस्लाम में हिजाब पहनना एक अनिवार्य धार्मिक प्रथा है.

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नई दिल्ली: हिजाब विवाद में बंटा हुआ फैसला देने वाले सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों ने इस बात का फैसला नहीं किया कि क्या हिजाब पहनना इस्लाम में एक अनिवार्य धार्मिक प्रथा (ईआरपी) है.

हिजाब प्रतिबंध पर अपनी अलग-अलग राय देते हुए, जहां न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता ने मुस्लिम छात्राओं की याचिकाओं को खारिज कर दिया, तो वहीं न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने उन्हें बरकरार रखते हुए कर्नाटक सरकार के 5 फरवरी के शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पर प्रतिबंध लगाने के आदेश को रद्द कर दिया.

लेकिन इस बारे में विस्तार से नहीं बताया गया कि क्या हिजाब पहनना इस्लाम का एक अनिवार्य हिस्सा है. हालांकि याचिकाकर्ताओं में से एक पक्ष ने ऐसा होने का दावा किया था. संयोग से कर्नाटक HC ने अपने 15 मार्च के फैसले में इस आधार पर हिजाब पर लगे प्रतिबंध को कानूनी तौर पर जायज ठहराया था कि यह इस्लाम में एक अनिवार्य धार्मिक प्रथा नहीं है.

याचिकाकर्ता और राज्य सरकार दोनों ने शीर्ष अदालत में ईआरपी पर व्यापक तर्क दिए, लेकिन पीठ ने इस मुद्दे पर ध्यान नहीं देने का फैसला किया.


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ईआरपी टेस्ट और सिद्धांत

वर्षों से सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्धारित करने के लिए एक व्यावहारिक टेस्ट प्रक्रिया विकसित की है कि कौन सी धार्मिक प्रथाओं को संवैधानिक रूप से संरक्षित किया जा सकता है और क्या अनदेखा किया जा सकता है. अनुच्छेद 25 और 26 (पूजा करने, धर्म को मानने, धर्म का प्रचार करने और धार्मिक मामलों का प्रबंधन करने के मौलिक अधिकार) ईआरपी के तहत संरक्षित है.

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हालांकि अनुच्छेद 25(2) एक राज्य को किसी भी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या अन्य धर्मनिरपेक्ष गतिविधि को लागू करने के लिए एक कानून को अधिसूचित करने का अधिकार देता है जो सामाजिक कल्याण और सुधार प्रदान करने के लिए धार्मिक अभ्यास से जुड़ा हो सकता है.

ईआरपी टेस्ट अदालतों को यह निर्धारित करने की अनुमति देता है कि धर्म के लिए कौन सी प्रथाएं अनिवार्य हैं और क्या उन्हें दूर करने से उस धर्म की प्रकृति बदल जाएगी. ईआरपी सिद्धांत यह निर्देश देता है कि सिर्फ अनिवार्य धार्मिक प्रथाओं को सरकारी हस्तक्षेप से सुरक्षित किया जाए.

शीर्ष अदालत में याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि हिजाब पहनना एक ईआरपी है जिसका पालन मुस्लिम महिलाएं अनादि काल से करती आ रही हैं. यह तर्क दिया गया था कि इस्लाम के धार्मिक ग्रंथों में इस प्रथा का प्रावधान किया गया है और इसलिए यह धर्म के लिए अनिवार्य है.

उन्होंने कहा कि सरकारी आदेश एक ईआरपी के रूप में एक हिजाब पहनने के उनके अधिकार को प्रभावित करता है. और यह अनुच्छेद 25 के तहत उनके अधिकारों का उल्लंघन है.

कुछ याचिकाकर्ताओं ने यह भी कहा कि कौन सी धार्मिक अनिवार्य प्रथाएं हैं और कौन सी नहीं, यह तय करना अदालत का काम नहीं है.

दूसरी ओर कर्नाटक सरकार ने कहा कि हिजाब पहनना एक प्रथा या आदर्श या जायज प्रथा हो सकती है, लेकिन ईआरपी नहीं है. राज्य के वकील ने तर्क दिया कि यह दलील वाजिब नहीं है कि हिजाब नहीं पहनने से उस आस्था में विश्वास करने वाले व्यक्ति की पहचान खतरे में पड़ जाएगी.

‘कोरी आस्था या शिक्षा का टिकट’

शीर्ष अदालत के कई फैसलों और कुरान की आयतों की व्याख्याओं की जांच करने के बाद, न्यायमूर्ति गुप्ता ने माना कि ईआरपी सिद्धांत तब विकसित हुआ जब राज्य ने धार्मिक स्थानों या धार्मिक उत्सवों या सार्वजनिक रूप से धार्मिक अनुष्ठानों के प्रदर्शन से संबंधित कुछ प्रथाओं में हस्तक्षेप किया या जहां इस तरह की प्रथाएं मौलिक अधिकारों को कम कर रहीं थीं.

न्यायाधीश ने कहा, फिलहाल इस मामले में याचिकाकर्ता एक संस्था में एक धार्मिक गतिविधि नहीं करना चाहते थे, बल्कि सामाजिक आचरण के मामले में सार्वजनिक स्थान पर एक हिजाब पहनना चाहते हैं, जैसा कि उस धर्म में आस्था रखने वालों से उम्मीद की जाती है. उन्होंने कहा, ‘इस मामले में छात्र राज्य के बजाय धर्म के बताए गए नियमों के आधार पर अपनी पसंद की पोशाक पहनने की आजादी चाहते हैं.’

उन्होंने याचिकाकर्ताओं के अपने मामले को सिख प्रथाओं के साथ तुलना करने के प्रयास को खारिज कर दिया.

न्यायाधीश ने कहा कि सिख धर्म के अनुयायियों के ईआरपी को इस्लाम में विश्वास रखने वालों को हिजाब पहनने का आधार नहीं बनाया जा सकता है. न्यायमूर्ति गुप्ता ने ईआरपी पर एक निर्णायक निष्कर्ष प्रस्तुत किए बिना कहा, ‘प्रत्येक धर्म की प्रथाओं का परीक्षण केवल उस धर्म के सिद्धांतों के आधार पर किया जाना चाहिए.’

न्यायमूर्ति धूलिया की व्याख्या के अनुसार, इस विवाद को तय करने के लिए अनिवार्य धार्मिक प्रथा परीक्षण जरूरी नहीं है. अदालतों ने सालों से इस परीक्षण का इस्तेमाल इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए किया है कि कौन सी धार्मिक प्रथाओं को संवैधानिक रूप से संरक्षित किया जा सकता है और क्या अनदेखा किया जा सकता है.

उन्होंने कहा कि इस तरह की प्रथाओं में ‘कोरी आस्था’ शामिल हैं, जिस पर एक धर्म की स्थापना होती है.

लेकिन ये मामला किसी एक व्यक्ति के चुनने के अधिकार के बारे में था. यहां यह सिद्ध करने की जरूरत नहीं है कि यह अनिवार्य धार्मिक प्रथा है.

न्यायमूर्ति धूलिया ने कहा कि ‘यह सिर्फ किसी भी धार्मिक प्रथा, आस्था या विवेक का मामला हो सकता है’. उन्होंने जोर देकर कहा कि परीक्षण की जरूरत तभी होती है जब अदालत ‘एक समुदाय के अधिकार’ (समग्र रूप से एक समुदाय के अधिकार) से जुड़े मामले को देख रही हो.

जस्टिस धूलिया ने लिखा, ‘यह अनिवार्य धार्मिक प्रथा का मामला हो सकता है या नहीं भी हो सकता है. लेकिन यह अभी भी अंतरात्मा, विश्वास और अभिव्यक्ति का मामला है. अगर वह अपनी कक्षा के अंदर भी हिजाब पहनना चाहती है, तो उसे रोका नहीं जा सकता है. अगर वह उसे पहनना चाहती है तो यह उसकी पसंद है, क्योंकि हो सकता है कि यह एकमात्र तरीका हो जिसकी वजह से उसके रूढ़िवादी परिवार ने उसे स्कूल जाने की अनुमति दी हो. ऐसे मामलों में उसका हिजाब उसकी शिक्षा का टिकट हो सकता है.’

कानून के बाकी सवालों पर दोनों जजों की राय एक-दूसरे से अलग होने के कारण अब इस मामले को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच के सामने रखा जाएगा, लेकिन क्या बड़ी बेंच ईआरपी मुद्दे पर गौर करेगी, यह अभी देखा जाना बाकी है.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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