नई दिल्ली: नवंबर 2021 में मोहम्मद सलीम ने अपनी 18 और 20 साल की दो बेटियों (नाम जाहिर नहीं किया जा रहा) को यूक्रेन स्थित खार्किव नेशनल मेडिकल यूनिवर्सिटी भेजा था. बड़ी बेटी एमबीए कर रही है, जबकि छोटी मेडिसिन की पढ़ाई कर रही है. एक छोटा-सा रेस्तरां चलाने वाले सलीम अपनी आय को देखते हुए भारत में निजी कॉलेजों की भारी-भरकम फीस वहन नहीं सकते थे और इसलिए उन्होंने अपनी बेटियों को यूक्रेन भेजना तय किया.
चार महीने बाद उनकी बेटियों को अपनी यूनिवर्सिटी के बेसमेंट में छिपकर रहना पड़ रहा है और उनके पास थोड़े-बहुत जरूरी सामान वाला एक बैगपैक ही है. शुक्रवार सुबह उनके साथ फोन पर आखिरी बार बात हुई थी, जब उन्होंने बताया कि गोलियों और विस्फोटों की आवाज साफ सुनी जा सकती है.
सलीम ने कहा, ‘हमें भी यहां घबराहट हो रही है. उनके पास इंटरनेट कनेक्शन नहीं है और जल्द ही उनके फोन की बैटरी खत्म हो जाएगी. जिन एजेंसियों ने उन्हें वहां भेजा है, वे इस समय मॉरल सपोर्ट से ज्यादा कुछ नहीं कर सकती हैं.’
सलीम की बेटियों की तरह ही अनुमानित तौर पर 18,000 अन्य छात्रों— जिनमें अधिकांश टियर 2 और टियर 3 शहरों के हैं, को कांट्रैक्टर के एक नेटवर्क के जरिये ही यूक्रेन के विश्वविद्यालयों में एडमिशन मिला है.
यूक्रेन में मेडिकल डिग्री हासिल करने के लिए छह साल के कोर्स पर 15-17 लाख रुपये खर्च आता है जो भारत के निजी मेडिकल कॉलेजों की तुलना में काफी सस्ता है. और यह सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित भारतीय संस्थानों में प्रवेश के लिए अपेक्षित ग्रेड हासिल न कर पाने वाले छात्रों के लिए एक लोकप्रिय विकल्प है.
यहां पढ़ने वाले छात्र विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमि के होते हैं. डॉक्टरों के बच्चे, जिन्हें फैमिली प्रैक्टिस को आगे बढ़ाने और नर्सिंग होम आदि को संभालना होता है और ऐसे मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चे जो चिकित्सा पेशेवर बनकर समाज में एक प्रतिष्ठा हासिल करने के इच्छुक होते हैं.
यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के एक दिन बाद भारत सरकार ने शुक्रवार को एक एडवाइजरी जारी की, जिसमें भारतीय नागरिकों से कहा गया है कि वे इस देश की हंगरी और रोमानिया से लगी सीमाओं के पास पहुंचें.
लेकिन यूक्रेन के विभिन्न शहरों में अपनी-अपनी यूनिवर्सिटी के तहखानों में छिपे हजारों भारतीय छात्रों का कहना है कि आवाजाही का सुरक्षित साधन न होने की स्थिति में वे सीमा तक यात्रा का जोखिम नहीं उठा सकते. और वे लगातार खुद को बचाने की अपील कर रहे हैं.
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कम खर्च में एमबीबीएस की पढ़ाई के लिए पसंदीदा जगह
भारतीय छात्रों का यूक्रेन की ओर रुझान करीब एक दशक पहले बढ़ा था.
कोलकाता में एस्पायरिंग लाइफ नाम की एक निजी कंसल्टेंसी फर्म चलाने वाले मनीष जायसवाल ने बताया, ‘भारत के प्राइवेट कांट्रैक्टर ने यूक्रेन में तमाम यूनिवर्सिटी के साथ करार किया और भारत में बहुत से छात्र तलाशे जो विदेश जाना चाहते थे.’
छात्रों को यूक्रेन भेजने वाले प्राइवेट कांट्रैक्टर ने दिप्रिंट को यह भी बताया कि कैसे यूक्रेन की कुछ सरकारी यूनिवर्सिटी अपनी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए विश्व स्तर पर ख्यात हैं और तमाम भारतीय माता-पिता भारत में बहुत ज्यादा ख्यात न होने वाले निजी मेडिकल कॉलेजों की भारी-भरकम फीस का खर्च उठाने के बजाये अपने बच्चों को इन यूनिवर्सिटी में भेजना पसंद करते हैं.
नई दिल्ली स्थित एक निजी कंसल्टेंसी फर्म एडुरिजोन के निदेशक मैदुल शेख ने बताया, ‘यूक्रेन की करीब 16 मेडिकल यूनिवर्सिटी भारतीय छात्रों के बीच लोकप्रिय हैं. ये यूनिवर्सिटी दशकों से चल रही हैं और यहां तक कि भारत में मेडिकल कोर्स संबंधी सामान्य प्रवेश परीक्षा नीट में उच्च अंक पाने वाले छात्र भी यूक्रेन जाने का विकल्प अपनाते हैं.’
छात्र एक बार जब विदेशी एमबीबीएस डिग्री के साथ भारत लौट आते हैं, तो उन्हें भारत में प्रैक्टिस का लाइसेंस हासिल करने के लिए नेशनल बोर्ड ऑफ एग्जामिनेशन की तरफ से आयोजित फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट एग्जाम (एफएमजीई) पास करनी पड़ती है.
हर साल यूक्रेन से मेडिकल डिग्री लेने वाले करीब 4,000 छात्र एफएमजीई में बैठते हैं लेकिन इनमें से केवल 700 ही पास होते हैं. हालांकि, पास होने का प्रतिशत काफी कम होना छात्रों को यूक्रेन की यूनिवर्सिटी में दाखिला लेने से नहीं रोकता है.
जो छात्र एक बार एफएमजी परीक्षा पास कर लेते हैं, तो वे भारत में डिग्री धारक डॉक्टरों के समान दर्जा हासिल कर लेते हैं.
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‘सभी कॉलेज बेकार होने की धारणा गलत’
देहरादून स्थित एसजीआरआर इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल हेल्थ साइंसेज और एसएमआई अस्पताल में सहायक प्रोफेसर और सलाहकार, रेडियोलॉजी डॉ. सौरभ सच्चर ने कहा, ‘यह धारणा गलत है कि विदेशों में सभी कॉलेज खराब हैं.’
सच्चर ने कहा, ‘यह छात्रों पर निर्भर करता है कि वे कैसे पढ़ते हैं. ये उन्नत देश हैं और वहां के कॉलेज डब्ल्यूएचओ और भारतीय नियामक निकायों की तरफ से मान्यता प्राप्त हैं. इन कॉलेजों में प्रवेश लेने से पहले हमें मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (अब नेशनल मेडिकल कमीशन) से वहां नामांकन की अनुमति लेनी होती है.
उन्होंने बताया कि यूक्रेन और रूस जैसे देशों में कॉलेज सरकार संचालित हैं, जहां प्रबंधन कुछ सीटें विदेशी छात्रों के लिए आरक्षित रखता है. यहां पढ़ना भारत के निजी कॉलेजों की तुलना में सस्ता है.
सुमित (जिन्होंने केवल अपना पहला नाम बताया) निप्रो शहर स्थित निप्रॉपेट्रोस स्टेट मेडिकल यूनिवर्सिटी में पांचवें वर्ष का मेडिकल छात्र है, जो गुरुवार को यूक्रेनी एयर स्पेस बंद होने से ठीक पहले सुरक्षित रूप से भारत लौट आया. उसने बताया कि उसके और उसके परिवार के लिए भारत में पांच साल के मेडिकल कोर्स पर लगभग 80-90 लाख रुपये खर्च करना संभव नहीं था.
हरियाणा के पानीपत स्थित अपने घर लौट आए सुमित ने बताया, ‘मैं अपनी नीट परीक्षा में मेरिट सूची में नहीं था और निजी भारतीय कॉलेजों की भारी-भरकम फीस नहीं भर सकता था. मेरे लिए यूक्रेन एक उचित विकल्प था क्योंकि मुझे छह साल के कोर्स के लिए केवल 25-30 लाख रुपये खर्च करने होंगे.’
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रूस के हमला नहीं करने का आश्वासन दिया
जब रूस और यूक्रेन के बीच तनाव बढ़ने लगा तो सुमित और उसके दोस्तों ने विमानों की टिकट की कीमतों की जांच की. उनके लिए, एक तरफ की उड़ान के लिए 60,000 रुपये से अधिक का भुगतान करना बहुत कठिन था और वे कीमतें कम होने का इंतजार करते रहे. सामान्य समय में यूक्रेन आने-जाने का दोनों तरफ का किराया लगभग 37,000 रुपये है.
सुमित ने बताया, ‘कॉलेजों में पढ़ने वाले यहां के अधिकांश छात्र मध्यम आय वाले परिवारों से हैं. हम इतने महंगे टिकट नहीं खरीद सकते. हम उम्मीद करते रहे कि भारत सरकार की तरफ से भेजी जाने वाली उड़ानें सस्ती होंगी लेकिन उन उड़ानों के टिकट भी उतने ही महंगे थे.’
आखिरकार उसने एक निजी एयरलाइन का टिकट बुक कराया और थोड़ी छूट पाने के लिए अपनी छात्र आईडी का इस्तेमाल किया. लेकिन उसने बताया कि उसके कई दोस्तों को एयरपोर्ट से लौटकर फिर अपनी यूनिवर्सिटी जाना पड़ा क्योंकि एक दिन में ही हालात एकदम बिगड़ गए थे.
इसके अलावा, छात्रों का कहना है कि उनके विश्वविद्यालयों ने आश्वासन दिया है कि रूस वहां पर हमला नहीं करेगा.
कुछ यूनिवर्सिटी में अभी फिजिकल क्लासेज भी चल रही थी और ऐसे में छात्रों, खासकर जो मेडिकल कोर्स के आखिरी साल की पढ़ाई कर रहे हैं, को डर था कि वो महत्वपूर्ण पाठों की पढ़ाई से चूक सकते हैं.
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बंकरों में छिपकर रह रहे
जो छात्र सुमित की तरह लौटने में सक्षम नहीं हो पाए, वे अभी अपने विश्वविद्यालयों के तहखानों में छिपे हैं और इसे लेकर तस्वीर कुछ साफ नहीं है कि वे सीमाओं तक कैसे पहुंचेंगे.
इस तरह के संकट के बीच शेख, जो पिछले 12 वर्षों से छात्रों को यूक्रेन और रूस भेज रहे हैं और वहां अपना ऑफिस भी खोल रखा है, अपने स्थानीय संपर्कों का इस्तेमाल कर रहे हैं और छात्रों के पोलैंड सीमा तक पहुंचाने के लिए बसों की व्यवस्था कराने में लगे हैं.
उन्होंने कहा, ‘मैंने दो बसों के लिए प्रति बस 5 लाख रुपये खर्च किए हैं. और मैं इंतजार में खाली खड़ी 10 बसों के लिए प्रति घंटे लगभग 300 डॉलर का भुगतान कर रहा हूं.’
कीव स्थित बोगोमोलेट्स नेशनल मेडिकल यूनिवर्सिटी के चौथे वर्ष के छात्र सूरज कुमार ने दिप्रिंट को बताया कि उनके छात्रावास के करीब 300 भारतीय छात्र शुक्रवार को यूनिवर्सिटी के बेसमेंट में चले गए.
उनकी यूनिवर्सिटी खार्किव, लवीव, उजहोरोड, टेरनोपिल और विंनीत्सिया जैसे कई अन्य शहरों के भारतीय छात्रों को भी आश्रय दे रहा है.
बिहार के रहने वाले सूरज कुमार ने बताया, ‘हंगरी की सीमा कीव से 1,000 किमी से अधिक दूर है. यह 15 घंटे का रास्ता है और स्थिति बहुत खराब है. कभी भी और कहीं भी हमला हो सकता है. हमारे पास अपने दम पर सीमा तक पहुंचने का कोई रास्ता नहीं है.’
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