नई दिल्ली: विदेशों खासकर प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाले देशों में भारत की ‘आंख और कान’ के तौर पर तैनात रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के अधिकारियों में स्थानीय भाषाओं की समझ नहीं होने के कौशल का अभाव इस खुफिया एजेंसी के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है. दिप्रिंट को ये जानकारी मिली है.
सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि विदेशों में तैनात अधिकतर अधिकारी, खासकर जो चीन जैसी महत्वपूर्ण पोस्टिंग पर हैं, स्थानीय भाषा की समझ नहीं रखते हैं और यह ह्यूमन इंटेलिजेंस बढ़ाने और विकसित करने के अलावा स्थानीय स्तर पर संपर्क साधने जैसे उनके कार्यों में रुकावट बन रहा है.
एजेंसी से जुड़े एक सूत्र ने दिप्रिंट के साथ बातचीत में इसे एक ‘वास्तविक’ चुनौती माना, लेकिन साथ ही कहा कि इन पदों पर तैनाती के समय कोई भाषा जानना ही एकमात्र ऐसा कौशल नहीं है, जिस पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाता हो और यह बहुत ‘बड़ा फैक्टर’ नहीं है.
सूत्र ने कहा, ‘‘बशर्ते भाषाई कौशल अहम भूमिका निभाता है. उदाहरण के तौर पर, यदि कोई मंदारिन यानी चीनी भाषा जानता होगा, लिहाज़ा उसे चीन पर नज़र रखने के लिए तैनाती में तरजीह दी जाएगी. अगर कोई अधिकारी स्थानीय भाषा नहीं जानता है तो एजेंसी के पास उनके सहायक के तौर पर नियुक्त करने के लिए भाषा विशेषज्ञ होते हैं. निश्चित तौर पर ही यह कोई आदर्श स्थिति नहीं हो सकती.’’
सूत्र ने कहा, ‘‘अधिकारी को किसी देश में तैनात किया जाता है, उसे अपने कामकाज के बारे में अच्छी तरह पता होना चाहिए, उन्हें उस देश के मामलों, उसके इतिहास, और राजनीति की पूरी समझ होनी चाहिए और संभावित घटनाक्रमों का अनुमान लगाने के काबिल होना चाहिए.’’
सूत्र ने कहा, ‘‘निश्चित तौर पर अगर कोई अधिकारी स्थानीय भाषा जानता है, तो ये एक बड़ा गुण होगा, जो कई लोगों में नहीं होता. कम ही अधिकारी ऐसे होते हैं जो उस देश की भाषा समझते हों जहां उनकी पोस्टिंग की गई है.’’
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‘ह्यूमन इंटेलिजेंस के लिए भाषा ज़रूरी’
हालांकि, खुफिया एजेंसी के साथ काम कर चुके एक पूर्व वरिष्ठ अधिकारी ने अधिकारियों के लिए भाषाई विशेषज्ञता हासिल करने को एक बड़ी ज़रूरत बताया.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, विदेशों में ह्यूमन इंटेलिजेंस बढ़ाने के लिए स्थानीय भाषा को समझना और डोमेन नॉलेज बेहद ज़रूरी है, जिसे डिपार्टमेंट को सुनिश्चित करना चाहिए.
उन्होंने कहा, ‘‘स्थानीय भाषाएं जानने में अक्षम अधिकारियों के लिए भाषा विशेषज्ञों का एक कैडर रखने का आइडिया उपयुक्त समाधान नहीं हो सकता है. स्थानीय भाषाओं पर कमांड के बिना किसी अधिकारी को विदेश में तैनात करना समय, प्रयासों और धन की बर्बादी ही है.’’
अधिकारी ने कहा, ‘‘अधिकारी कह सकते हैं कि किसी पोस्टिंग के लिए भाषा कौशल ज़रूरी नहीं है क्योंकि सहायता तो उपलब्ध है ही, लेकिन यह तभी होगा, जब पोस्टिंग किसी मैत्रीपूर्ण विदेशी एजेंसी वाले देश में हो, न कि शत्रुवत रुख अख्तियार करने वाले किसी देश में.’’
अधिकारी ने कहा कि एजेंसी के पास भाषा कौशल और डोमेन नॉलेज में दक्ष पेशेवर ही होने चाहिए.
अधिकारी ने आगे सुझाव दिया कि ऐसा करना है तो इसे सेवा में शामिल होने के शुरुआती चरण में ही किया जाना चाहिए तब भाषाएं सीखी जा सकती हैं.
अधिकारी ने कहा, ‘‘किसी भी अधिकारी के लिए रॉ में शामिल होने की औसत आयु 38 से 40 वर्ष होती है, जब वे पांच से आठ साल तक सेवाएं देने के बाद प्रतिनियुक्ति पर यहां आते हैं, तो ये एक ऐसी उम्र होती है जब भाषाएं सीखना मुश्किल हो सकता है. इस मसले को शुरुआती स्तर पर ही सुलझाने की ज़रूरत है.’
एक अन्य सेवानिवृत्त अधिकारी ने दिप्रिंट से कहा कि इस तरह के असाइनमेंट में भाषा कौशल एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि यह काम पब्लिक डीलिंग और सूत्रों के साथ संपर्क बढ़ाने पर केंद्रित होता है.
अधिकारी ने कहा, ‘‘यदि आप किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति से मिल रहे हैं, तो व्यक्तिगत स्तर की मुलाकात के लिए ट्रांसलेटर्स की मदद नहीं ले सकते. ट्रांसलेटर्स के साथ काम करना एक धीमी और बोझिल प्रक्रिया है. सबसे अच्छा तरीका यही है कि आप खुद उस भाषा को जानते हों. यदि आप उस भाषा में कुशल हैं तो यह एक बहुत अच्छी बात है और यदि ऐसा नहीं है तो निश्चित रूप से यह एक चुनौती है, एक खामी है.’’
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‘भाषा सिर्फ एक पहलू’
इस एजेंसी के लिए काम कर चुके एक खुफिया विशेषज्ञ ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा कि भाषा सिर्फ एक पहलू है, लेकिन ऐसी पोस्टिंग में इसे ‘बड़ा फैक्टर’ नहीं माना जाना चाहिए.
अधिकारी ने कहा, ‘‘जब विदेशों में पोस्टिंग होती है तो इससे जुड़े तमाम पहलू होते हैं. आपको इस बात का अंदाज़ा होना चाहिए कि उस देश में क्या चल रहा है क्योंकि आप वहां भारत की आंखें और कान हैं और आपके जरिये ही ये जानकारियां अपने देश को हासिल होती हैं. ये एक सच है और पड़ोसी देशों के मामले में तो यह और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है लेकिन कई दूसरे फैक्टर हैं जो किसी अधिकारी की सफलता या विफलता को तय करते हैं. इसमें भाषा कौशल की भूमिका सीमित ही होती है.’’
अधिकारी ने कहा, ‘‘इससे और भी बहुत कुछ जुड़ा होता है, सिर्फ भाषा से जोड़कर देखना इसका बहुत ज्यादा सरलीकरण करना है.’’
(अनुवादः रावी द्विवेदी | संपादनः फाल्गुनी शर्मा)
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