सेलेब्रिटीज की आहार विशेषज्ञ रुजुता दिवाकर ने पिछले महीने ट्विटर पर एक हंगामे को जन्म दिया जब उन्होंने कहा कि आम का फल मधुमेह के लिए भयरहित है। यह उनके कई विवादास्पद दावों में एक और दावा था।
बेंगलुरु: यदि आपने भारत में “हाउ टू लूज़ वेट” को गूगल किया है तो एक नाम जिसे आपने गूगल परिणामों में जरूर देखा होगा है वह है रुजुता दिवाकर।
यह सेलिब्रिटी पोषण विशेषज्ञ, करीना कपूर और अनुपम खेर जैसे नामी लोगों की सलाहकार हैं और लोकप्रिय किताब डोन्ट लूज़ योर माइंड, लूज़ योर वेट की लेखक हैं।
दिवाकर अपनी ऑनलाइन उपस्थिति भी वृहद रूप से दर्ज कराती हैं,उनके ट्विटर फॉलोअर्स और यूट्यूब वीडियो व्यूज दोनों आधे मिलियन से अधिक हैं।
44 वर्षीय दिवाकर स्थानीय रूप से उपलब्ध उत्पादों से खाना बनाने पर जोर देती हैं, जिससे उन्होंने बहुत सारे प्रशंसक अर्जित किए हैं।वह “भारतीय भोजन को पकाने के दादी माँ के तरीकों की” प्रशंसा करती हैं, वह कैलोरी की बजाय प्राणिक मूल्य (जिसे वह भोजन की ताजगी के रूप में वर्गीकृत करती है) को तरजीह देती हैं जबकि साथ ही साथ वह शुगर के सेवन के समर्थन के लिए हृदय रोग पर नये अमेरिकी शोध का हवाला देती हैं और डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों का इस्तेमाल करती हैं।
लेकिन उनके विचारों ने उतने ही आलोचक पैदा किये हैं जितने उनके फॉलोअर्स हैं क्योंकि वह डॉक्टरों, पोषण विशेषज्ञों और शोधकर्ताओं के गुस्से का शिकार हुई हैं।
30 अप्रैल को दिवाकर, जो 2008 में टशन मूवी के लिए जीरो फिगर पाने में करीना कपूर की मदद करने के बाद सुर्खियों में आयीं थीं, ने तब हलचल मचा दी जब उन्होंने मधुमेह के लिए आमों की सिफारिश की और ट्वीट किया कि यह फल मौसमी है, स्थानीय है और ग्लाइसेमिक इंडेक्स में नीचे है।
Khao aur khane do, Mangoes ?
Separating the familiar lies from the truth.
The lies –
1. It’s very high in sugar and calories
2. It’s very high on glycemic index
3. People with Diabetes and obesity should avoid eating it.— Rujuta Diwekar (@RujutaDiwekar) April 30, 2018
इसने चिकित्सा पेशेवरों को नाराज कर दिया, जिन्होंने इस सलाह को खतरनाक बताया।
Disagree. Common joke that Blood Glucose Levels (as well as HbA1c) of Diabetics is off the charts in the months of May, June & July.
— Vedang Desai (@VedangDesai02) April 30, 2018
लेकिन उनके लिए समर्थन कुछ ऐसा है कि उनके कई फॉलोअर्स ने फल की अपेक्षाकृत कम ग्लाइसेमिक इंडेक्स को इंगित करते हुए दिवाकर का तेजी से बचाव किया।
ईमेल द्वारा दिप्रिंट के प्रश्नों का जवाब देते हुए दिवाकर ने कहा कि उनकी सिफारिश डॉक्टरों के समूह पर आधारित थी।उन्होंने कहा कि “आम और रक्त शर्करा पर आम का प्रभाव,यह एसोसिएशन ऑफ़ फिजियंस ऑफ इंडिया के कर्नाटक अध्याय से है।इस अध्ययन के उद्देश्यों में से एक उद्देश्य मधुमेह रोगियों द्वारा ताजे, स्थानीय फलों का बिना डर के सेवन करने के बारे में था।”
उन्होंने यह भी जोर दिया कि उनके बयान उपलब्ध शोध पर आधारित हैं। उन्होंने कहा कि “प्रत्येक विचार, जिसके बारे में मैं बात करती हूँ या ट्वीट करती हूँ, एक दशक से भी ज्यादा समय से लोगों के बीच रहा है।एक सरसरी गूगल खोज आपको अधिकारिक दैनिक पत्रिकाओं के उन लेखों को ढूँढ़ने में मदद करेगी जो इस जानकारी का समर्थन करते हैं।”
संदर्भ की कमी
तकनीकी रूप से दिवाकर के बयान अक्सर सही होते हैं। चिकित्सकीय विशेषज्ञों का कहना है कि आमों में कम जीआई तो होती है लेकिन उनकी अस्थायी सलाह में अंश नियंत्रण और कुल शर्करा सेवन के बड़े सन्दर्भ की कमी है।आम सिर्फ शुगर से ही भरे नहीं होते; वे पोषक तत्वों से भी भरे होते हैं।लेकिन आम सिर्फ पोषक तत्वों से ही भरे हुए नहीं होते; वे शुगर से भी भरे होते हैं।
हर दिन हजारों मधुमेह रोगियों की देखभाल करने वाली भारत की पहली डिजिटल चिकित्सकीय फर्म, वेल्थी थेरेपीटिक्स के सह संस्थापक माज़ शेख ने स्पष्ट किया कि “सिर्फ जीआई के आधार पर किसी भी खाद्य पदार्थ की सिफारिश करना बहुत ही गलत है।एक मधुमेह रोगी के लिए जो सबसे ज्यादा मायने रखता है वह है ग्लाइसेमिक लोड, यानि कि उसके सिस्टम में जाने वाली शुगर की कुल मात्रा।
अतः समस्या यह नहीं है कि एक मधुमेह रोगी आम का सेवन करता है बल्कि समस्या यह है कि उसे यह नहीं पता है कि इसका सेवन बंद कब करना है।
लेकिन दिवाकर अंश नियंत्रण का सार्वजानिक रूप से उल्लेख करना न केवल टालती हैं बल्कि वह एक साक्षात्कार में जाहिर तौर पर इसके खिलाफ वकालत करती हैं। जैसा कि इस साक्षात्कार में वह कहती हैं कि “हम इस क्षमता के साथ पैदा हुए हैं कि हम अपने आप किसी चीज का सेवन बंद कर सकते हैं और हमें इसे बंद करने के लिए एक आहार विशेषज्ञ या एक डॉक्टर की आवश्यकता नहीं है।
देखा जाए तो उनके संदर्भ में यह पूर्णतः गलत नहीं है।
सेंटर फॉर डाइटरी काउंसिलिंग, दिल्ली में क्लिनिकल न्यूट्रिशनिस्ट और सेलेक सोसाइटी ऑफ इंडिया की संस्थापक ईशी खोसला ने स्पष्ट किया कि “सभी जानवरों में भी नियंत्रण और संतुलन होता है जो उन्हें ज्यादा खाने से रोकता है।यह एक सटीक उदाहरण है कि आप एक बच्चे या पालतू जानवर को एक सीमा से अधिक भोजन नहीं करा सकते हैं।लेकिन ये तभी मान्य है जब वह चीनी या हानिकारक खाने के संपर्क में ना हों।”
लेकिन शुगर सब कुछ बदल देती है।
शुगर के बारे में सब कुछ
कहने के लिए तो शुगर को लेकर दिवाकर के दावे विवादास्पद हैं।उनकी नई किताब ‘इंडियन सुपर फूड्स’ में शुगर को भी सूचीबद्ध किया गया है।
एक कल्पना बनाम तथ्य तालिका में चिकित्सकीय सलाह,‘यदि मधुमेह रोगी हों तो शर्करा से बचें’, को वह एक कल्पना बताती हैं और दावा करती हैं कि मेटा स्टडीज़ ने “मधुमेह और शर्करा उपभोग के बीच कोई निर्णायक सम्बन्ध” नहीं दर्शाया है।दिवाकर यह भी दावा करती हैं कि परिष्कृत चीनी और गुड़ चुकंदर से बनी चीनी से अधिक स्वास्थ्यकर होती है।
शेख ने स्पष्ट किया कि “अधिकांश प्रकार की चीनी शरीर के अन्दर ग्लूकोज में परिवर्तित हो जाती है।हमारे दैनिक इस्तेमाल वाली सफ़ेद शुगर हमारे खून में शर्करा के स्तर को बहुत तेजी से बढ़ाती है जबकि अन्य मिश्रित शुगर इस स्तर को धीमी गति से बढ़ाती हैं।गन्ना, गुड़ और चुकंदर चीनी ये सभी साधारण शुगर हैं जो तेजी से अवशोषित होती हैं और रक्त में शर्करा के स्तर को बढ़ाते हैं।
अपनी पुस्तक में दिवाकर दावा करती हैं कि कम कैलोरी वाले मीठे पदार्थ कैंसर का कारण बन सकते हैं।इस दावे का ढंग से भंडाफोड़ हो चुका है।विशेष रूप से ट्विटर पर उनकी सलाह, जहाँ उनके शब्द 5 लाख से अधिक लोगों तक पहुँचते हैं, पोषण की जटिलताओं की व्याख्या नहीं करते हैं और न ही वह आधिकारिक सूत्रों का हवाला देती हैं।
दिप्रिंट को उनके द्वारा दिए गये सभी लिंक, (जैसे यहाँ, यहाँ, यहाँ) जो मीठे पदार्थों पर उनके बयान का समर्थन करते हैं, चूहों पर किए गये पुराने अध्ययनों का वर्णन करते हैं।आज, सबसे रुढ़िवादी अध्ययन भी यह दिखाता है कि बढ़ी हुई कैंसर की घटनाओं का तंत्र केवल चूहों में ही देखा जा सकता है। यह मानव शरीर विज्ञान में पुनरुत्पादनीय नहीं है और कृत्रिम स्वीटनर्स को सन 2000 में कैंसरकारी तत्वों की सूचियों से पूरी तरह से हटा दिया गया था।
वह अक्सर घोषणा करती हैं कि माइक्रोवेव हानिकारक होते हैं क्योंकि सूक्ष्म पोषक तत्वों के बंध “टूट जाते हैं, उनका ऑक्सीकरण हो जाता है और फिर वे विषैले हो जाते हैं।” इस मिथक का बार-बार खंडन किया गया है कि पोषक तत्व बेहतर परिरक्षित होते हैं जब इन्हें तेजी से पकाया जाता है और माइक्रोवेव इसके लिए धीमी आग की तुलना में अधिक उपयुक्त हैं।
इन बयानों का समर्थन करने वाले उनके लिंक (जैसे 1992 का यह अध्ययन,लहसुन को किसी भी आंच पर गर्म करने का यह अध्ययन, दूध पर 1995 का यह पेपर और माइक्रोवेव प्लास्टिक पर यह स्वयं में ही संकटपूर्ण भाग) कम से कम 10 साल पुराने हैं।
दिवाकर अपने उद्देश्य को अध्ययन की आयु का इस्तेमाल करके मान्य बनाती हैं वह भी यह स्वीकार किए बिना कि यह सब बहुत ही पुराना है और अब बेहतर उत्पादों और सुरक्षित उत्पादों के साथ बदल दिया गया है।
उन्होंने कहा कि “ट्विटर पर मुझे फॉलो करने वाले लोग बुद्धिमान हैं और शक्ल पे नहीं जाते हैं।वे भोजन पर खुद फैसला करते हैं।मैं बस यही आशा करती हूँ कि वे तथ्यों के आधार पर निर्णय लें न कि डर के कारण।
दुर्भाग्यवश, दिवाकर के तथ्यात्मक रूप से गलत वक्तव्य अक्लमंद सलाह के साथ नज़र आते हैं, जैसे जिम्मेदारी के साथ प्लास्टिक को कम करना, इससे उनके शब्दों की विश्वसनीयता बढ़ती है।
स्थानीय भोजन का व्यापार मॉडल
दिवाकर के अधिकांश आग्रह स्थानीय रूप से उपलब्ध खाद्य पदार्थों का उपभोग करने और हमारी दादी की खाना पकाने की तकनीक पर विश्वास करने पर जोर देती हैं।उनकी यूएसपी सामान्य है:भारतीय व्यंजनों से जुड़े रहें जिस तरह से हमारे दादा दादी ने उन्हें खाया है।
दिवाकर अपने दावों का समर्थन इस बात से करती हैं कि हमारे पूर्वज भोजन को इसके क्रमिक विकास के सन्दर्भ या विवरण के बिना ही खाते थे|आलू, टमाटर और शिमला मिर्च जैसी सब्जियां आज से 400 साल पहले भारत आई थीं। सेब एक शताब्दी से थोड़ा पहले भारत में आया था।
वह पूछती हैं,”हमारी दादी और नानीअपनी पसंद की जीचें खाते हुए दिखाई देती हैं। आज भी उनकी त्वचा बहुत अच्छी है और वे अच्छी दिखती हैं। वे ऐसा क्या कर रही हैं जो हम नहीं करते ?” जवाब स्पष्ट है: कोई परिवर्तित खाद्य पदार्थ, शुगर और जंक फूड नहीं जो हर तरफ से हमें घेरे हुए है। यह वह नहीं है जो वे खाती हैं, यह वह है जो वे नहीं खाती हैं।
हर किसी के लिए उनकी यह सामान्य सिफारिश है, यहां तक कि मधुमेह और रक्तचाप वाले लोगों के लिए भी जो प्रतिदिन चावल, दाल और घी खा रहे हैं।
राष्ट्रीय पोषण संस्थान में नैदानिक प्रभाग की पूर्व उप निदेशक और प्रमुख डॉ वीना शत्रुग्न ने कहा,”पारंपरिक ‘खाद्य पदार्थों पर उनकी बहुत सारी सलाह उन लोगों पर लागू नहीं होती है जो शिक्षित, उच्च जातीय अभिजात वर्ग से संबंधित नहीं हैं।”
आज भी, देश का अधिकांश हिस्सा रोजाना चावल, घी और दाल खाने का इंतजाम नहीं कर सकता है। शत्रुग्न ने आगे कहा,”मजदूर वर्ग का एक बड़ा हिस्सा चटनी के साथ चावल या प्याज के साथ रोटी खाता है। धरातल पर यह महत्वपूर्ण है कि वर्गों और सामाजिक परतों को व्यापक वक्तव्यों से अलग अलग न किया जाए|”
दिवाकर सरल परिवर्तनों की भी वकालत करती हैं जो ज्यादातर सामान्य समझ वाले और साधारण होते हैं: हर दिन व्यायाम करें, रक्त शर्करा स्थिरता के लिए छोटे अंतराल में खाएं, पैक किए गए खाद्य पदार्थों से बचें, स्वास्थ्यवर्धक वसा का सेवन करें, उन्हीं खाद्य पदार्थों को पकाएं जिन्हेंहम ढंग समझते हैं।
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “ब्राजील इस क्षेत्र में है,उनके आधिकारिक आहार दिशानिर्देश वर्तमान स्थान को दर्शाते हैं कि पोषण विज्ञान अभी कहाँ है, भोजन करना एक सामाजिक कार्य है, हमें पारंपरिक और घरेलू पकाहुआ भोजन (व्यंजनों और जलवायु में विविधता के लिए) करना चाहिए, और हमें मार्गदर्शन करने के लिए भोजन के भाग के बारे में झगड़ा करने के बजाय निश्चित मात्रा में खाने पर ध्यान देना चाहिए।”
पोषण विशेषज्ञ या आहार विशेषज्ञ?
दिवाकर के शब्दों की पहुँच और प्रभाव का एक कारण यह है किपोषण को लेकर, विशेष रूप से पेशेवर चिकित्सकों की, आवाजें मंद रही हैं|
“शत्रुघ्न ने कहा,मैं डाक्टरों की भारी गलती मानती हूँ, जिनमें अधिकांशतः ऐसे है जिन्होंने पोषण को पूरी तरह समाप्त कर दिया है।वे मधुमेह रोगी को चावल और मांस जैसी शर्करा और कार्बोहाईड्रेट खाने से बचने की सलाह देते हैं, लेकिन वे उन्हें ये नहीं बताते कि इन खाद्द पदार्थो केबजाय क्या खाना चाहिए। इसलिए रोगी उनपोषण विशेषज्ञों के पास जाते हैं जो कि प्रायःबिना चिकित्सा प्रशिक्षण के होते हैं, और जिनके महत्वपूर्ण विज्ञान कोडॉक्टरों द्वारा शैक्षिक या उपयोगी नहीं माना जाता है|”
यह कहना व्यर्थ है की दिवाकर ने इस स्थिति को समझ लिया है। बहुत से ऐसे लोग हैं जिनकी परेशानियों को आहार द्वारा नियंत्रित करने की आवश्यकता है, वास्तव में वह यह नहीं जानते कि उन्हें क्या खाना चाहिए,इसलिए उन्हें जो भी सलाह देता हैवे उसका अनुसरण करने लगते हैं।
प्रजननशील एंडोक्राइनोलॉजिस्ट और प्रजनन चिकित्सा के मिलन सेंटर के संस्थापक डॉ कामिनी राव ने कहा, “पोषण संबंधी सलाह किसी ऐसे व्यक्ति पर लागू हो सकती है जो तंदुरस्त और फुर्तीला हो और वजन कम करना चाहता हो।”
“किसी भी बीमारी से पीड़ित व्यक्ति को व्यक्तिगत सलाह की आवश्यकता होती है।
उन्होंने कहा कि,”किसी भी बीमारी से पीड़ित व्यक्ति को व्यक्तिगत सलाह की आवश्यकता होती है।एक ही प्रकार की बीमारी वाले हर किसी व्यक्ति को एक ही समूह मंे नहीं जोड़ा जा सकता है।पोषण, चिकित्सकीय सलाह का स्थान नहीं ले सकता है, औरऑनलाइन भोजन की सलाह देना बीमार लोगो के लिये सुरक्षित नहीं है। ”
भारत में, आहार विज्ञान और पोषण अच्छी तरह से व्यवस्थित नहीं हैं।जबकि पोषण विशेषज्ञों का दायरा दुनिया के अधिकांश हिस्सों में काफी अनियमित है, एक आहार विशेषज्ञ होने के नाते कई देशों में लाइसेंस की आवश्यकता होती है। लेकिन भारत में नहीं, जहांविनिमयशीलता की दृष्टि से दो शब्दों का उपयोग किया जाता है।
एक नैदानिक पोषण विशेषज्ञ खोसला, समझाया,” “पोषण कुछ ऐसा है कि आज इसको ले कर हर लोई जागरूक है। यह एक विकसित विज्ञान है जो प्रायः बहुत सवेदनशीलता के साथ होता है, “।
दुर्भाग्यवश, आज भारत में पोषण विशेषज्ञ के लिए कोई आधार नहीं है। स्वयं का वजन घटाने वालो की कहानी या पोषक तत्वों के परिपूरक के विक्रेता भी खुद को पोषण विशेषज्ञ कह सकते हैं। ”
ऑनलाइन सलाह मांगने वालों के लिए यह अच्छी खबर नहीं है,जो की हम लोगो में से अधिकांशतः हैं।
दीवाकर ने द प्रिंटर को बताया, “आपके शोध और मेरी लड़ाई में, सामान्य ज्ञान, अनुभव और व्यावहारिकता जीतती है।” “इंटरनेट के लिए धन्यवाद, हम खाद्य को लेकर होने वाले शोध के बारे में अधिक पारदर्शिता की मांग कर रहे हैं, और एक प्रश्न पूछ रहीं हू कि इस अध्यन पर धन किसने खर्च किया और यदि यहउस निष्कर्ष को प्रभावित करता है जो कि उससे निकलता है।
जैसे दिवाकर खुद से सहमत हैं,सेलिब्रिटी के पोषण विशेषज्ञों के शब्द – खासकर गैर पेशेवर परामर्श में – शायद नमक की प्रचुर के साथ मदद लेने की जरुरत है।