नई दिल्ली: बिहार में जातिगत सर्वे की वैधता को बरकरार रखने के पटना हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देने संबंधी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट सोमवार को सुनवाई करेगा.
हाई कोर्ट ने सर्वे को चुनौती देने वाली सभी याचिकाएं एक अगस्त को खारिज कर दी थी, जिसके बाद याचिकाकर्ता यूथ फॉर इक्वेलिटी का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील दीनू कुमार ने कहा था कि वो फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगे.
बता दें कि सर्वे का आदेश पिछले साल दिया गया था और इसकी प्रक्रिया इस साल जनवरी में शुरू हुई थी.
शीर्ष अदालत की वेबसाइट पर अपलोड की गई वाद सूची के अनुसार, हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) ‘एक सोच एक प्रयास’ की याचिका न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति एस वी एन भट्टी की पीठ के समक्ष सात अगस्त को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध है.
एनजीओ की याचिका के अलावा हाई कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ एक अन्य याचिका शीर्ष अदालत में दायर की गई है. नालंदा निवासी अखिलेश कुमार द्वारा दायर याचिका में दलील दी गई है कि इस कवायद के लिए राज्य सरकार द्वारा जारी अधिसूचना संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ है.
याचिका में कहा गया है कि संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार, केवल केंद्र सरकार को जनगणना का अधिकार है.
इसमें कहा गया है, ‘‘मौजूदा मामले में बिहार सरकार ने आधिकारिक राजपत्र में एक अधिसूचना प्रकाशित करके केंद्र सरकार के अधिकारों का हनन किया है.’’
वकील बरुण कुमार सिन्हा के जरिये दायर याचिका में कहा गया है कि 6 जून, 2022 की अधिसूचना राज्य एवं संघ विधायिका के बीच शक्तियों के बंटवारे के संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ है. इसमें कहा गया है कि बिहार सरकार द्वारा ‘‘जनगणना’’ करने की पूरी प्रक्रिया ‘‘किसी अधिकार और विधायी क्षमता के बिना’’ की गई है और इसमें कोई दुर्भावना नज़र आती है.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अक्सर इस बात पर जोर देते रहे हैं कि राज्य जाति आधारित जनगणना नहीं कर रहा है, बल्कि केवल लोगों की आर्थिक स्थिति और उनकी जाति से संबंधित जानकारी एकत्र कर रहा है ताकि सरकार उन्हें बेहतर सेवा देने के लिए विशिष्ट कदम उठा सके.
पटना हाई कोर्ट ने अपने 101 पृष्ठों के फैसले में कहा था, ‘‘हम राज्य सरकार के इस कदम को पूरी तरह से वैध पाते हैं और वह इसे (सर्वेक्षण) कराने में सक्षम है. इसका मकसद (लोगों को) न्याय के साथ विकास प्रदान करना है.’’
पटना कोर्ट द्वारा बिहार में जाति आधारित सर्वेक्षण को ‘‘वैध’’ करार दिए जाने के एक दिन बाद राज्य सरकार हरकत में आई थी और उसने शिक्षकों के लिए जारी सभी ट्रेनिंग प्रोग्राम्स को स्थगित कर दिया था ताकि इस कवायद को शीघ्र पूरा करने के लिए उन्हें इसमें शामिल किया जा सके.
जाति आधारित सर्वेक्षण का पहला चरण 21 जनवरी को पूरा हो गया था. घर-घर सर्वेक्षण के लिए गणनाकारों और पर्यवेक्षकों सहित लगभग 15,000 अधिकारियों को विभिन्न जिम्मेदारियां सौंपी गई थीं. इस कवायद के लिए राज्य सरकार अपनी आकस्मिक निधि से 500 करोड़ रुपये खर्च करेगी.
सर्वेक्षण का दूसरा चरण 15 अप्रैल को शुरू हुआ, जिसमें लोगों की जाति और सामाजिक-आर्थिक स्थितियों से संबंधित डेटा इकट्ठा करने पर ध्यान केंद्रित किया गया. हालांकि, सर्वे की पूरी प्रक्रिया इस साल 15 मई तक पूरी करने की योजना थी, लेकिन 4 मई को हाई कोर्ट ने जनगणना पर रोक लगा दी थी और राज्य सरकार से डेटा को सुरक्षित रखने को कहा था.
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