नई दिल्ली: 2011 में अपनी पत्नी और चार बच्चों की हत्या कर देने के मामले में एक व्यक्ति को दो निचली अदालतों की तरफ से सुनाई गई मौत की सजा को पलटते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ्ते उसे दोनों ही जगहों पर ‘औसत से कम’ कानूनी सहायता मिलने की आलोचना की.
चीफ जस्टिस यू.यू. ललित की अगुवाई वाली एक पीठ ने सरकार की तरफ से आरोपी को मुहैया कराए गए बचाव पक्ष के वकील की क्षमताओं और कानूनी सेवा प्राधिकरण की तरफ से उपलब्ध कराई गई मुफ्त कानूनी सहायता के स्तर को लेकर गंभीर सवाल उठाए.
शीर्ष कोर्ट ने पाया कि बचाव पक्ष के वकील ने जिस तरह से मुकदमा लगा उसमें कई विसंगतियां थीं और वकील की तरफ से ‘हर गवाह से की गई जिरह औसत से कम थी.’ अदालत ने कहा, ‘इस तरह के सवालों के जवाब के कानूनी निहितार्थों को समझे बिना ही उन्हें आगे बढ़ाया गया.’
इसके बाद पीठ ने न केवल उस व्यक्ति को दी गई मौत की सजा को रद्द कर दिया, बल्कि उसे हत्या के आरोपों से भी बरी कर दिया.
बरी करने संबंधी अपने आदेश में पीठ ने इस मामले को ‘सबसे उथली जांच’ में से एक करार दिया.
अभियोजन पक्ष के मुताबिक, आरोपी रामानंद ने 21 और 22 जनवरी 2011 की दरम्यानी रात अपनी शादी शुदा जिंदगी के अलावा चल रहे प्रेस प्रसंग के लिए (विवाहेतर संबंध का) रास्ता साफ करने के मकसद से अपनी पत्नी और चार बच्चों की हत्या कर दी थी और फिर बाद में उन्हें आग के हवाले कर दिया.
कुछ दिनों बाद 24 जनवरी को उसे गिरफ्तार कर लिया गया. निचली कोर्ट ने रिकॉर्ड में आए सबूतों को देखने के बाद उसे दोषी ठहराया. उसकी अपील को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया, और 2016 में उसकी मौत की सजा की पुष्टि की.
इसके बाद रामानंद ने खुद को निर्दोष बताते हुए शीर्ष अदालत का रुख किया.
चूंकि वह किसी निजी वकील का खर्च नहीं उठा सकता था, इसलिए उसे संविधान के अनुच्छेद 39ए और आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के तहत ट्रायल कोर्ट के साथ-साथ हाई कोर्ट दोनों में मुफ्त कानूनी सहायता मुहैया कराई गई. दोनों प्रावधान किसी आरोपी को सरकार के खर्च पर अपने बचाव की कोशिश का अधिकार देते हैं. इसके पीछे उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि आर्थिक या अन्य अभावों की वजह से कोई नागरिक न्याय पाने के अधिकार से वंचित न रह जाए.
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बचाव पक्ष के वकील की ‘नाकामी’
सुनवाई के दौरान पुलिस साक्ष्यों को देखने-सुनने के बाद पीठ ने रामानंद को मिली कानूनी सहायता के स्तर पर असंतोष जताया. निचली अदालत के रिकॉर्ड ने पीठ को ‘असंतुष्ट’ कर दिया क्योंकि उसने पाया कि ‘प्रत्येक गवाह से औसत से कम जिरह’ की गई थी.
कोर्ट ने कहा कि जिरह से पता चलता है कि बचाव पक्ष का वकील यह समझने में नाकाम था कि उसके सुझावों पर दिया गया कोई भी बयान आरोपी पर बाध्यकारी होगा. इसका मतलब यह था कि बचाव पक्ष के वकील ने जो सवाल पूछे, गवाहों की तरफ से उनके जवाब आरोपी को ही घेरेंगे और सीधे तौर पर उसके बचाव को प्रभावित करेंगे.
कोर्ट ने कहा, ‘बार में उचित हैसियत रखने वाले बचाव पक्ष के किसी भी वकील से यह समझने में सक्षम होने की उम्मीद की जाती है कि जिरह किसी गवाह को खारिज करने का एकमात्र तरीका नहीं है.’
‘असमान बचाव’
यह सुनिश्चित करना अदालतों का कर्तव्य है कि यदि कोई आरोपी ‘गरीबी, निरक्षरता या किसी अन्य’ वजहों से वकील करने में असमर्थ है तो उसे ‘सरकारी खर्च पर उचित और सार्थक कानूनी सहायता’ प्रदान की जाए.
हालांकि, इस तरह का प्रतिनिधित्व केवल ‘नाम के लिए’ नहीं होना चाहिए. कोर्ट ने कहा कि संविधान के तहत किसी वकील की मौजूदगी का मतलब ‘प्रभावी, वास्तविक और निष्ठावान उपस्थिति होनी चाहिए, न कि केवल उपहासपूर्ण, दिखावटी या आभासी.’
कोर्ट ने नोट किया, ‘बचाव पक्ष के किसी वकील के तौर पर कर्तव्यों के पालन में क्षमता का स्तर संवैधानिक गारंटीकृत अपेक्षा के अनुरूप होना चाहिए.’
पीठ ने 1974 के एक मामले का हवाला भी दिया, जिसमें कहा गया था कि ऐसे गंभीर मामलों में बचाव पक्ष के वकीलों की नियुक्ति को ‘पूरी गंभीरता’ के साथ देखा जाना चाहिए. ऐसे मामलों में सक्षम अधिवक्ताओं को नियुक्त किया जाना चाहिए जो जटिल मामलों से निपट सकते हों.
अदालत ने आगे कहा, ‘यह अपेक्षित है कि ऐसे मामलों में, निचली कोर्ट में अभ्यास कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता से अनुरोध किया जाएगा कि वे बचाव में अक्षम आरोपी की तरफ से खुद केस लड़ें या कम से कम ठीक से मार्गदर्शन करें.’
पीठ ने रामानंद मामले का इस्तेमाल सभी जिला और सत्र न्यायाधीशों को याद दिलाने के लिए किया कि यह सुनिश्चित होना चाहिए कि किसी आरोपी को उपयुक्त और गुणवत्तापूर्ण कानूनी सहायता मिले. बचाव पक्ष के वकील के तौर पर बार के युवा सदस्यों को नियुक्त करने से स्थिति ‘असमान बचाव’ वाली हो सकता है, और कहा कि जहां आवश्यक हो बार के अनुभवी सदस्यों को शामिल किया जाना चाहिए. साथ ही राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण के नियमों का जिक्र भी किया, जिसमें कहा गया है कि कानूनी सहायता के लिए किसी वरिष्ठ वकील को बचाव पक्ष के वकील के रूप में नियुक्त किया जा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट में रामानंद को दिल्ली स्थित नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी की एक आपराधिक न्याय परियोजना, प्रोजेक्ट 39ए से कानूनी सहायता मिली. प्रोजेक्ट 39 के तहत वरिष्ठ अधिवक्ता एस. निरंजन रेड्डी ने शीर्ष कोर्ट में दलीलें पेश और इसके बाद ही रामानंद बरी हो पाया.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस केस में कोई भी सबूत रामानंद को सीधे तौर पर इस अपराध से नहीं जोड़ता है और पुलिस की तरफ से बताया गया हत्या का मकसद उसे दंडित करने के लिए पर्याप्त नहीं है. उनकी अपील स्वीकारते हुए अदालत ने माना कि आपराधिक कानून में मौलिक धारणा यही है कि आरोपी दोषी साबित होने तक निर्दोष रहता है.
यहां तक जहां ‘अपराध जघन्य हो और मानव विवेक विद्रोह कर रहा हो’, तब भी आरोपी को तभी दंडित किया जा सकता है जब अन्य सभी परिकल्पनाएं खारिज हो जाती हों.
अदालत ने कहा कि यह सच ‘हो सकता है’ और इसे सच ‘होना चाहिए’ के बीच एक लंबा अंतराल होता है.
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