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Sunday, 17 November, 2024
होमदेशसेंट्रल विस्टा फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने PILs को लेकर लगाई फटकार, कहा- अदालत को बार-बार शासन के मामलों में न घसीटें

सेंट्रल विस्टा फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने PILs को लेकर लगाई फटकार, कहा- अदालत को बार-बार शासन के मामलों में न घसीटें

ये एक महत्वपूर्ण टिप्पणी थी जो न्यायमूर्तियों एएम खानविलकर और दिनेश माहेश्वरी ने मंगलवार को सेंट्रल विस्टा पुनर्विकास मामले में बहुमत से दिए अपने फैसले में की.

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नई दिल्ली: न्यायपालिका का समय सरकारी नीतियों की ‘अप्रमाणित ख़ामियों’ की जांच करने और फिर विरोधियों को खुश करने के लिए उनका राजनीतीकरण करने के लिए नहीं है.

ये एक महत्वपूर्ण टिप्पणी थी जो न्यायमूर्तियों एएम खानविलकर और दिनेश माहेश्वरी ने मंगलवार को सेंट्रल विस्टा पुनर्विकास मामले में बहुमत से दिए अपने फैसले में की.

कोर्ट ने, 2:1 के बहुमत से नरेंद्र मोदी सरकार के लिए सेंट्रल विस्टा पर निर्माण कार्य का रास्ता साफ कर दिया, जो उसकी सबसे महत्वाकांक्षी परियोजनाओं में से एक है, जिसकी अनुमानित लागत लगभग 20,000 करोड़ रुपए है. बहुमत से दिए गए फैसले में कहा गया है कि परियोजना को दी गई मंज़ूरियों में, कहीं कोई कमज़ोरियां नहीं हैं, लेकिन परियोजना को कार्यान्वित कर रहे पदाधिकारियों को, धरोहर संरक्षण समिति से मंज़ूरी लेनी होगी.

न्यायमूर्तियों खानविल्कर और माहेश्वरी ने कहा कि जनहित याचिका (पीआईएल) या समाज हित याचिका का हथियार, ‘संवैधानिक आदालतों के द्वार खोलने के लिए बनाया गया था, ताकि लोगों के साथ स्पष्ट तौर पर हो रही नाइंसाफियों का इलाज किया जा सके,और उनके संवैधानिक अधिकार सुरक्षित किए जा सकें’.

ये (पीआईएल) ‘कभी भी संवैधानिक अदालतों को, रोज़मर्रा के शासन के ऊपर, एक सर्वोच्च अथॉरिटी के रूप में परिवर्तित करने के लिए नहीं थी’.

बहुमत फैसले के पेज 420 पर जजों ने कहा, ‘हमें ये इसलिए कहना पड़ रहा है, कि हाल में जनहित/समाज हित याचिकाओं का रास्ता अपनाने का रुझान बढ़ रहा है, जिनमें अदालत से मांग की जाती है, कि वो विशुद्ध रूप से नीतियों से जुड़े मामलों, और सिस्टम से जुड़ी सामान्य शिकायतों पर विचार करे’.

फैसले में कोर्ट ने इस पर भी टिप्पणी की, कि हल्की जनहित याचिकाएं किस तरह उसका समय खाती हैं, जो ज़्यादा ज़रूरी मामलों पर ख़र्च किया जा सकता है. कोर्ट ने कहा कि हालांकि कुछ जनहित याचिकाओं के ‘सराहनीय नतीजे निकले हैं’, लेकिन इनकी सीमाओं का भी ध्यान रखा जाना चाहिए.

जजों ने कहा कि इस पर प्रकाश डालना ज़रूरी था, चूंकि कोर्ट को इस मामले पर, महामारी के हालात के बावजूद, काफी समय और ऊर्जा लगानी पड़ी (कहीं फरियादी ये महसूस न करें कि उन्हें एक उचित अवसर नहीं मिला), और जिसके अंत में हमें उसमें कुछ ख़ास दम नहीं दिखा’.

कोर्ट ने इस बात पर भी ज़ोर दिया: ‘न्यायपालिका का समय चलते-फिरते जांच पड़ताल करने, या मौजूदा सरकार की नीतियों में, अप्राणित ख़ामियों अथवा कमियों पर फैसला सुनाने, और फिर उनसे असहमत नागरिकों के समूहों को ख़ुश करने के लिए, उनका राजनीतिकरण करने के लिए नहीं है- चाहे वो किसी सिविल सोसाइटी के रूप में हो, या किसी राजनीतिक संगठन के’.

कोर्ट ने दूसरी ज़्यादा ‘योग्य याचिकाओं’ पर प्रकाश डाला, जिनपर न्यायालय का समय ख़र्च होना चाहिए, बजाय हल्के और तुच्छ दावों के.

फैसले के 393-394 पन्नों पर कोर्ट ने कहा, ‘पूर्ववर्ती टिप्पणियां इसलिए नहीं हैं, कि अदालतें असमर्थनीय और हल्के दावों को एक बोझ समझती हैं, बल्कि उनका मक़सद इस बात पर प्रकाश डालना है, कि ‘बचाया हुआ समय अर्जित समय होगा, जिसका सबसे अच्छा इस्तेमाल निर्धन लोगों के ज़्यादा योग्य दावों पर किया जा सकता है, जैसे लंबी क़ैद, आज़ादी का हनन, पेंशन और वेतन से इनकार, मोटर दुर्घटना दावे, और भूमि अधिग्रहण मुआवज़े आदि. इनमें वास्तविक कॉर्पोरेट पुनरुत्थान, व पुनरुद्धार भी शामिल है, जिससे बड़ी संख्या में श्रमिकों और निवेशकों आदि को फायदा पहुंच सकता है. इस तरह की योग्य याचिकाओं की एक कभी न ख़त्म होने वाली लिस्ट है.


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उपसंहार

फैसले के पेज नंबर 419 पर शुरू ‘उपसंहार’ नामक अनुभाग में ये भी कहा गया: ‘हम ये सोचने को मजबूर हैं, कि किसी क़ानूनी जनादेश की अनुपस्थिति में, क्या हम सरकार को हुक्म दे सकते हैं, कि वो किसी एक परियोजना पर धन धर्च न करके, दूसरी परियोजना पर इस्तेमाल करे, या, क्या हम सरकार से कह सकते हैं कि वो अपने दफ्तर सिर्फ कोर्ट द्वारा तय की हुई जगहों से चलाए, या फिर, क्या हम विकास की किसी विशेष दिशा पर फोकस करने की, सरकार की समझ पर सवाल खड़े कर सकते हैं’.

फैसले में, इस बात पर भी ग़ौर किया गया, कि क्या कोर्ट ‘किसी क़ानूनी आधार के बिना, नैतिक मामलों पर सरकार का मार्गदर्शन कर सकती है’. उन्होंने यहां तक कहा कि इस केस में कोई असंगति नहीं थी, बल्कि ये एक हालिया रुझान था, जिसमें याचिकाओं में मांग की जाती है, कि जज नीतिगत मामलों की भी जांच करें.

कोर्ट ने कहा कि उससे शासन करने के लिए नहीं कहा जा सकता, और उसकी भूमिका नीतियों और सरकारी कार्यों की संवैधानिकता जांचने तक सीमित है.

न्यायमूर्तियों खानविलकर और माहेश्वरी ने कहा कि वो ये कहने के लिए ‘विवश’ हैं कि इस मामले में याचिकाकर्ता चाहते हैं, कि ‘कोर्ट ऐसे क्षेत्रों में जाने का साहस करे, जो किसी संवैधानिक कोर्ट की अपेक्षित शक्तियों से बहुत आगे है’. उन्होंने अधिकारों के विभाजन के सिद्धांत पर प्रकाश डाला और इस बात पर ज़ोर दिया कि ‘राजनीतिक मुद्दों पर, जिनमें मौजूदा सरकार की विकास नीतियां शामिल होती हैं, संसद में बहस होनी चाहिए जिसके प्रति वो जवाबदेह है’.

जजों ने कहा, ‘कोर्ट की भूमिका नीतियों और सरकारी कार्यों की संवैधानिकता, जिसमें वैधता भी शामिल है, जांचने तक सीमित है. हमसे शासन करने के लिए नहीं कहा जा सकता. क्योंकि हमारे पास उस मामले में कोई साधन, कौशल, या विशेषज्ञता नहीं है’.

कोर्ट ने आगे कहा कि इस मामले में, ‘नियंत्रण और संतुलन’ के संवैधानिक रूप से परिकल्पित सिस्टम को, सही तरह से समझने और लागू करने, दोनों में ग़लती की गई है.

कोर्ट ने समझाया कि ‘नियंत्रण और संतुलन’ के सिद्धांत में दो बातें होती हैं- ‘नियंत्रण’ और ‘संतुलन’. नियंत्रण की अभिव्यक्ति न्यायिक समीक्षा की अवधारणा में होती है, जबकि ‘संतुलन’ अच्छे से प्रतिष्ठापित शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त से लिया गया है’.

कोर्ट ने कहा कि विकास का अधिकार एक मौलिक मानवाधिकार है और ये भी कहा कि ‘सरकार के किसी भी अंग से अपेक्षा नहीं की जाती कि जब तक सरकार क़ानून के मुताबिक़ चलती है, तब तक वो विकास की प्रक्रिया में बाधा खड़ी करेगा’.

SC ने ये केस ख़ुद को ट्रांसफर किया

यहां पर ग़ौरतलब है कि सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के खिलाफ याचिकाएं, शुरू में दिल्ली हाईकोर्ट के समक्ष दायर की गईं थीं, और सुप्रीम कोर्ट ने अपनी पहल पर ही, उन्हें शीर्ष अदालत में स्थानांतरित किया.

पिछले वर्ष फरवरी में, दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस राजीव शकधर ने याचिकाकर्ताओं को अंतरिम राहत देते हुए, दिल्ली विकास प्राधिकरण को आदेश दिया था कि भूमि उपयोग में प्रस्तावित संशोधनों में से किसी को भी अधिसूचित करने से पहले, अदालत को सूचित करे. लेकिन कुछ दिन बाद, दिल्ली हाईकोर्ट की दो एक दो-सदस्यीय बेंच ने, इस आदेश पर रोक लगा दी.

खंडपीठ द्वारा पिछले आदेश पर रोक लगाए जाने के सीमित पहलू के खिलाफ याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए. लेकिन 6 मार्च 2020 को कोर्ट ने, हाईकोर्ट में लंबित याचिकाओं को ये कहते हुए अपने आपको स्थानांतरित कर लिया: ‘हमारे विचार में ये न्यायसंगत और उचित रहेगा कि ख़ुद रिट याचिका की सुनवाई ही इस कोर्ट में की जाए, बजाय इसके कि उन शिकायतों की जांच की जाए कि किस तरीक़े से अंतरिम निर्देश जारी किए गए और फिर हाईकोर्ट ने उन्हें ख़ारिज कर दिया.

उसने आगे कहा: ‘वास्तव में ये आदेश किसी भी तरह से हाईकोर्ट के समक्ष हुई कार्यवाही की मीमांसा नहीं है, लेकिन विस्तृत लोक हित में हमें ये उचित लगता है कि हाईकोर्ट में लंबित पड़ी चुनौतियों से जुड़े पूरे मामले को ये कोर्ट अविलंब सुने और उस पर फैसला सुनाए’.

असहमत राय

बेंच के तीसरे जज, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने एक असहमत राय पेश करते हुए कहा कि इलाक़े के भूमि उपयोग में बदलाव को रद्द कर दिया जाना चाहिए क्योंकि ये बिना किसी परामर्श प्रक्रिया के किया गया. उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि सरकार ने जो परामर्श प्रक्रिया अपनाई वो पर्याप्त नहीं थी- लोगों को उचित दस्तावेज़ मुहैया नहीं कराए गए और सरकार ने लोगों को अपनी चिंताएं ज़ाहिर करने का उचित अवसर नहीं दिया.

जस्टिस खन्ना ने ये भी स्पष्ट किया कि वो प्रोजेक्ट के गुणों की जांच नहीं कर रहे थे और कहा कि ये जटिल और गूढ़ मुद्दे हैं, जिन पर पहले चरण में ही, धरोहर संरक्षण समिति जैसी, विशिष्ट अथॉरिटीज़ द्वारा विचार करके निर्णय लिया जाना चाहिए’.

खन्ना ने आगे कहा, ‘अगर हम याचिकाओं के गुणों पर विचार और जांच करेंगे तो हम सीधे उनके अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण करेंगे और ये न्यायिक समीक्षा के अधिकार से आगे जाना होगा’.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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