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Sunday, 22 December, 2024
होमदेश2006 में स्कूल ट्रिप के बाद से बिस्तर पर पड़ी बेंगलुरू की महिला के लिए SC ने सुनिश्चित किया ₹88 लाख का मुआवजा

2006 में स्कूल ट्रिप के बाद से बिस्तर पर पड़ी बेंगलुरू की महिला के लिए SC ने सुनिश्चित किया ₹88 लाख का मुआवजा

सुप्रीम कोर्ट ने 2016 के उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के आदेश को रद्द कर दिया जिसने कर्नाटक राज्य आयोग के तय किए गए मुआवजे को 88 लाख से घटाकर 50 लाख कर दिया था.

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने अब 29 वर्ष की हो चुकी एक महिला को 88 लाख रुपए मुआवजा देने की पुष्टि कर दी है जो उस समय से बिस्तर पर है जब दिसंबर 2006 में एक स्कूल ट्रिप के दौरान वो बीमार पड़ गई थी जब उसकी उम्र 14 वर्ष थी.

14 जुलाई को जारी एक आदेश में न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा और न्यायमूर्ति आर सुभाष रेड्डी की एक बेंच ने सितंबर 2016 में राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (एनसीडीआरसी) द्वारा जारी आदेश को रद्द कर दिया, जिसने मुआवजा राशि को घटाकर 50 लाख कर दिया था.

मार्च 2016 में कर्नाटक राज्य आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि स्कूल के अध्यापकों ने ‘घोर लापरवाही’ दिखाई थी और उसने स्कूल को 88,73,798 रुपए की मुआवजा राशि लड़की को देने का निर्देश दिया था. इस राशि के साथ शिकायत दर्ज किए जाने की तिथि से 9 प्रतिशत सालाना ब्याज भी दिया जाना था. एनसीडीआरसी भी लापरवाही की बात से सहमत था लेकिन सितंबर 2016 के अपने आदेश में उसने मुआवजा राशि घटा दी.

सुप्रीम कोर्ट ने अब एनसीडीआरसी के आदेश को रद्द कर दिया है.

शिकायतकर्ता अक्षता बेंगलुरू के बीएनएम प्राइमरी एंड हाई स्कूल की छात्रा थीं जब दिसंबर 2006 में उसे दिल्ली समेत कई जगहों पर शैक्षिक टुअर के लिए भेजा गया. उस समय वो 14 साल की थी और 9वीं कक्षा में पढ़ती थी.

एनसीडीआरसी आदेश के अनुसार ट्रिप के दौरान वो बीमार पड़ गई और उसके पिता ने आरोप लगाया कि उसे तुरंत चिकित्सा सहायता उपलब्ध नहीं कराई गई जिसकी वजह से उसकी तबीयत बिगड़ गई. अंत में जब उसे अस्पताल ले जाया गया तो पता चला कि उसे एक वायरल बुखार था जिसे ‘तीव्र दिमागी बुखार’ कहा जाता है. उस समय डॉक्टरों ने कहा था कि अगर समय पर चिकित्सा सहायता मिलती तो उसका इलाज आसानी से किया जा सकता था.

उसने 53 दिन दिल्ली के एक अस्पताल में बिताए, जिस दौरान इलाज के उसके माता-पिता को राजधानी शहर में रहना पड़ा था. अंत में उसे हवाई जहाज से बेंगलुरू ले जाना पड़ा था. न्यायिक आदेशों में कहा गया कि व्यापक उपचार के बावजूद अक्षता बिस्तर से नहीं उठ पाई क्योंकि बीमारी ने उसकी याददाश्त और बोलने की क्षमता को प्रभावित कर दिया था. एनसीडीआरसी को बताया गया कि उसकी मानसिक स्थिति और आईक्यू कथित रूप से 21 महीने के किसी बच्चे के बराबर हो गया था.


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‘घोर लापरवाही’

एनसीडीआरसी आदेश के अनुसार एक न्यूरोलॉजिस्ट ने आयोग में दाखिल किए गए अपने हलफनामे में दावा किया था कि ‘उसकी मौजूदा स्थिति का एक मात्र कारण इलाज में हुई देरी था’.

इसलिए एनसीडीआरसी ने विचार व्यक्त किया था कि टीचर्स ने अक्षता की देखभाल करने में लापरवाही बरती थी. आयोग ने कहा, ‘…ये कहा जा सकता है कि शिकायतकर्ता और अन्य बच्चों के साथ गए अध्यापकों ने अपने कर्त्तव्यों के निर्वहन में लापरवाही बरती और उन अध्यापकों के नियोक्ता होने के नाते अपीलकर्ता उनके बदले में उक्त लापरवाही के नतीजे में हुए नुकसान के उत्तरदायी हैं और इसलिए शिकायतकर्ता को मुआवजा अदा करने के जिम्मेदार हैं’.

कमीशन ने आगे कहा था कि ‘उसकी विकलांगता की सीमा को देखते हुए …उसके जीवन में कोई खुशी या उद्देश्य नहीं बचा है’, लेकिन उसने मुआवजा राशि को घटाकर 50 लाख रुपए कर दिया जिसमें एक मुश्त सब कुछ शामिल था. साथ ही शिकायत दर्ज किए जाने की तिथि से 8 प्रतिशत वार्षिक ब्याज भी दिया जाना था.

लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट को लगा कि मुआवजा राशि घटाने को लेकर एनसीडीआरसी ने न तो कोई चर्चा की और न ही उसके लिए कोई कारण बताए.

कोर्ट ने कहा, ‘राष्ट्रीय आयोग ने इस पर कोई राय नहीं दी कि किसी विशेष मद में दिया गया मुआवजा बहुत अधिक था लेकिन फिर भी उसने मुआवजा राशि को घटाने का आदेश दिया. ऐसी किसी सामग्री चर्चा या तर्क के न होने की स्थिति में मुआवजे में कटौती मनमानी हो जाती है इसलिए उसे न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता’.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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