नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को 20,000 करोड़ रुपए मूल्य की संपत्ति पर 30 साल से चले आ रहे शाही विवाद का अंत करते हुए, फरीदकोट की भूतपूर्व रियासत के आख़िरी शासक सर हरिंदर सिंह बरार की दो जीवित बेटियों के पक्ष में फैसला सुना दिया.
भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) यूयू ललित की अगुवाई में एक तीन-सदस्यीय बेंच ने, इस साल जुलाई में अपना फैसला सुरक्षित रखने के बाद, महाराजा की संपत्ति के उत्तराधिकार से जुड़े पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहरा दिया.
कोर्ट ने आगे आदेश देते हुए महाराजा खेवाजी ट्रस्ट को तत्काल रूप से भंग करने का आदेश दे दिया, जो अभी तक शासक की संपत्तियों का प्रबंध करता आ रहा था.
फरीदकोट के पूर्व राजा की पंजाब, दिल्ली और हरियाणा समेत कई राज्यों में चल और अचल संपत्तियां थीं. उनकी प्रमुख संपत्तियों में फरीदकोट का राजमहल और क़िला मुबारक, एक ख़ैराती अस्पताल, और दिल्ली के कॉपरनिकस मार्ग पर फऱीदकोट हाउस आदि शामिल हैं.
यह भी पढ़ेंः भारत में जोर पकड़ रहा ‘राइट टू बी फॉरगॉटन’, हाईकोर्ट ने कई याचिकाओं पर सुनाए फैसले
1948 का अधिनियम और रहस्यमय वसीयत
फरीदकोट के तत्कालीन शासक महाराजा हरिंदर सिंह ने 1948 में भारतीय संघ के साथ एक विलय के दस्तावेज़ पर दस्तख़त किए थे. इस दस्तावेज़ के ज़रिए उन्होंने रियासत का शासन, अधिकार, अथॉरिटी, और अधिकार क्षेत्र संघ को स्थानांतरित कर दिए थे.
लेकिन महाराजा- जो तीन बेटियों और एक बेटे के पिता थे- अपनी निजी संपत्तियों के पूरी तरह हक़दार थे.
फिर उन्होंने राजा फरीदकोट एस्टेट एक्ट,1848, बनाया, जिसमें ऐलान किया था कि उनकी मौत होने पर, उनकी संपत्ति का मालिकाना हक़ उनके पुरुष उत्तराधिकारी के पास पहुंच जाएगा.
लेकिन क़ानून बनाने के कुछ ही समय बाद, महाराजा के इकलौते बेटे टिक्का हरमोहिंदर सिंह की अपनी पत्नी नरिंदर कौर के साथ, एक सड़क हादसे में मौत हो गई.
1989 में महाराजा हरिंदर सिंह की अपनी मौत के बाद, एक वसीयत सामने आ गई.
इस वसीयत के अनुसार, शासक की संपत्तियां उनकी दो बेटियों राजकुमारी दीपिंदर कौर और राजकुमारी महीपिंदर कौर के बीच बराबर बांटी जानी थीं. महाराजा की तीसरी बेटी राजकुमारी अमृत कौर को वसीयत से बाहर रखा गया, चूंकि उन्होंने अपने पिता की इच्छा के खिलाफ शादी की थी.
इस वसीयत में- जिसे 1952 में लागू किया गया- विशेष रूप से कहा गया था कि महाराजा की संपत्तियों की विरासत माहरवाल खेवाजी ट्रस्ट को दी जाएगी, जिसकी ट्रस्टी, अन्य लोगों के अलावा, उनकी बेटियों दीपिंदर और महीपिंदर को बनना था.
1992 में, शासक की सबसे बड़ी बेटी अमृत कौर ने चंडीगढ़ ज़िला न्यायालय में एक याचिका दायर करके इस वसीयत को चुनौती दे दी.
उनका तर्क था कि उनके पिता क़ानूनी रूप से अपनी जायदाद को महारावल खेवाजी ट्रस्ट को वसीयत में नहीं दे सकते थे, क्योंकि परिवार हिंदू संयुक्त परिवार क़ानून के दायरे में आता है. अमृत कौर ने अपने क़ानूनी प्रतिनिधियों के ज़रिए, अपने दिवंगत पिता की वसीयत की सत्यता पर भी सवाल खड़े किए.
यह भी पढ़ेंः जहां पतियों का उपनाम लगाने पर पाबंदी है, और कैसे आखिरी नाम पर दुनिया भर में अलग-अलग कानून हैं
सुप्रीम कोर्ट के आदेश
21 साल बाद 2013 में याचिका पर फैसला करते हुए, चंडीगढ़ ज़िला न्यायालय इस निर्णय पर पहुंचा कि 1952 में लागू की गई वसीयत अवैध, और निरस्त थी और अमल के लायक नहीं थी.
कोर्ट ने फिर विरासत को दो जीवित बेटियों अमृत और दीपिंदर को दे दिया; महीपिंदर की 2001 में रहस्यमय हालात में मौत हो गई थी.
ज़िला अदालत के आदेश को राजकुमारी दीपिंदर कौर, ट्रस्ट, और अन्य ट्रस्टियों की ओर से पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट के समक्ष चुनौती दी गई, जिसने 2020 में आदेश को सही ठहरा दिया.
हाईकोर्ट ने आगे कहा कि महाराजा के भाई मंजीत इंदर सिंह के वारिस, अपनी मां मोहिंदर कौर के हिस्से के हक़दार होंगे.
इसके अलावा, हाईकोर्ट ने ये भी कहा कि महाराज की जायदाद पर क़ब्ज़ा करने के लिए ट्रस्टियों ने साज़िश करके वसीयत तैयार की, और संबंधित वसीयत ‘फर्ज़ी, काल्पनिक, गढ़ी हुई और रहस्यमय हालात में लिपटी हुई है’.
लेकिन महारावल खेवाजी ट्रस्ट ने उसी साल एचसी के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी. 2021 में शीर्ष अदालत ने आदेश दिया कि ट्रस्ट एक केयरटेकर के तौर पर जारी रह सकता है, और ‘यथास्थिति’ को बरक़रार रखा जाए.
राजा फरीदकोट एस्टेट एक्ट,1948, का हवाला देते हुए याचिकाकर्त्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में ‘ज्येष्ठाधिकार नियम’ का आह्वान किया, और तर्क दिया कि महाराजा द्वारा अपने पीछे छोड़ी गई संपत्ति की विरासत, उनके पुरुष उत्तराधिकारी- उनके भाई कुंवर मंजीत इंदर सिंह, और उनके बाद भरत इंदर सिंह को पहुंचनी चाहिए.
बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, ‘उच्च न्यायालय समेत नीचे की अदालतें जिन विशेष निष्कर्षों पर पहुंचीं, उनके मद्ददेनज़र हमारे विचार में ज्येष्ठाधिकार नियम के लागू होने, और उक्त नियम पर आधारित उत्तराधिकार का कोई मामला नहीं बनता.’
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
यह भी पढ़ेंः बाल शोषण या ‘टीन रोमांस’- अदालतों ने POCSO के मामलों में 9 बार सुनाए अलग-अलग आदेश