नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ्ते एक पोक्सो (पोक्सो) केस में आरोपी को दोषी ठहराया, लेकिन उसे जेल की सजा नहीं दी. यह फैसला कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपने विशेष अधिकार का इस्तेमाल करते हुए दिया गया. इससे पहले कलकत्ता हाई कोर्ट ने एक विवादास्पद टिप्पणी में कहा था कि किशोरियों को अपनी ‘यौन इच्छाओं पर नियंत्रण’ रखना चाहिए, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने दरकिनार कर दिया.
इस मामले में आरोपी और पीड़िता की आपसी सहमति से संबंध बना था, और बाद में दोनों की शादी हो गई थी. उनके एक बच्चा भी है.
जस्टिस अभय एस. ओका और उज्जल भुयान की पीठ ने कहा, “पीड़िता को पहले ही काफी दर्द और तकलीफ झेलनी पड़ी है. हम नहीं चाहते कि उसके पति को जेल भेजकर उस पर और अन्याय हो,” कोर्ट ने कहा. “हम न्यायाधीश होकर भी इन कठोर सच्चाइयों से आंखें बंद नहीं कर सकते. पीड़िता को असली न्याय देने का यही एकमात्र रास्ता है कि आरोपी को उससे अलग न किया जाए.”
कोर्ट ने 44 पेज के फैसले में यह भी कहा कि पीड़िता को न तो कानूनी व्यवस्था, न समाज और न ही अपने परिवार से न्याय मिला.
अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट किसी भी मामले में ‘पूरा न्याय’ देने के लिए विशेष शक्तियां रखता है.
कुछ वकीलों ने इस फैसले को अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट की शक्तियों का सही इस्तेमाल बताया, जबकि कुछ का मानना है कि नाबालिगों की आपसी सहमति वाले मामलों में एक जैसा हल नहीं हो सकता.
यह मामला यह भी दिखाता है कि पोक्सो एक्ट, 2012 को लेकर युवाओं में जागरूकता की कमी है. नाबालिगों को बचाने के लिए बना यह कानून कई बार ऐसे युवाओं को भी फंसा देता है, जो अनजाने में अपराध कर बैठते हैं.
अनुच्छेद 142 का आह्वान
दिप्रिंट से बात करते हुए सुप्रीम कोर्ट के वकील निज़ाम पाशा ने कहा कि यह फैसला एक तरफ व्यावहारिकता और दूसरी तरफ नाबालिग लड़कियों की सुरक्षा करने वाले कानून के बीच एक अच्छा संतुलन बनाता है.
पाशा ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि बच्चों के यौन शोषण से पीड़ितों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी राज्य और समाज दोनों की है. उन्होंने इस फैसले को अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियों के “उचित उपयोग” का उदाहरण बताया. उन्होंने कहा कि संविधान में यह अनुच्छेद ऐसे ही मामलों के लिए रखा गया है.
असल में, सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के आरोपी को बरी करने के फैसले को पलटते हुए आरोपी को दोषी ठहराया, लेकिन उसे जेल नहीं भेजा. ऐसा करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट की महिलाओं को लेकर की गई टिप्पणी — जिसमें युवतियों को अपनी यौन इच्छाओं पर नियंत्रण रखने की सलाह दी गई थी — को भी खारिज किया.
वहीं, बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच में प्रैक्टिस करने वाले वकील दीपक चाटप ने कहा कि इस केस में अनुच्छेद 142 के उपयोग से यह संकेत मिलता है कि किशोर न्याय व्यवस्था में एक प्रगतिशील बदलाव आ रहा है. उन्होंने कहा, “जब नाबालिगों, खासकर लड़कियों की सुरक्षा की बात हो, तो यह जरूरी है कि कानून में इतना लचीलापन हो कि नाबालिगों के यौन शोषण और सहमति से बने किशोर संबंधों के बीच फर्क किया जा सके.”
‘कोई मिसाल नहीं’
वकील पल्लवी गर्ग ने कहा कि यह फैसला राज्य तंत्र और चाइल्ड वेलफेयर कमेटी (सीडब्ल्यूसी) जैसे वैधानिक निकायों की कार्यप्रणाली में मौजूद अहम कमियों को उजागर करता है. उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “इस केस में कोर्ट द्वारा नियुक्त कमेटी ने अपनी 28 जनवरी 2025 की रिपोर्ट में कई प्रणालीगत खामियों की पहचान की, जिसमें कानूनी सहायता की अनुपलब्धता और जांच में देरी शामिल हैं.”
गर्ग ने सुप्रीम कोर्ट के “सहानुभूति भरे रुख” का स्वागत किया, लेकिन यह भी जोड़ा कि यह कोई मिसाल नहीं बन सकता, जैसा कि कोर्ट ने खुद स्पष्ट किया है.
गर्ग ने कहा कि पीड़िता की सुरक्षा और पुनर्वास सुनिश्चित करने में राज्य की भूमिका बेहद अहम है, जिसमें व्यापक कानूनी सहायता, मुफ्त प्रतिनिधित्व, राज्य और केंद्र की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ और मुआवजा शामिल है. उन्होंने कहा, “यह केस यह दिखाता है कि गांव और स्कूल स्तर के काउंसलरों जैसे सहयोग तंत्र की तत्काल जरूरत है, ताकि संवाद, मार्गदर्शन और पुनर्वास के लिए जल्दी हस्तक्षेप किया जा सके.”
अजीब मामला
2018 में, पश्चिम बंगाल की एक 14 साल की लड़की अपने घर से भाग गई और एक 25 साल के युवक के साथ रहने लगी। बाद में दोनों के एक बच्चा भी हुआ.
लड़की की मां ने इस मामले में शिकायत दर्ज करवाई. पोक्सो कोर्ट ने युवक को धारा 6 के तहत गंभीर यौन उत्पीड़न का दोषी पाया. इसके अलावा भारतीय दंड संहिता की धारा 363 और 366 (लड़की को शादी या शारीरिक संबंध के लिए अगवा करना) के तहत भी दोषी ठहराया गया. ट्रायल कोर्ट ने उसे 20 साल की कठोर कैद और 10,000 रुपये जुर्माने की सजा सुनाई.
इस फैसले को युवक ने हाई कोर्ट में चुनौती दी. अक्टूबर 2023 में कलकत्ता हाई कोर्ट की सिंगल बेंच ने उसकी सजा को खारिज कर दिया.
अपने फैसले में हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि हर किशोरी लड़की की यह जिम्मेदारी है कि वह अपने शरीर की गरिमा और आत्मसम्मान की रक्षा करे, लिंग आधारित सीमाओं से ऊपर उठकर अपने विकास के लिए प्रयास करे और यौन इच्छाओं को नियंत्रित करे, क्योंकि समाज की नजर में जब वह यौन सुख के लिए झुकती है, तो वह ‘हारने वाली’ बन जाती है.
अगस्त 2024 में सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने हाई कोर्ट के फैसले को रद्द कर युवक की सजा बहाल कर दी और हाई कोर्ट की टिप्पणियों को “अत्यधिक आपत्तिजनक और पूरी तरह से अनुचित” बताया. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने सजा तय करने की प्रक्रिया को कुछ समय के लिए टाल दिया, क्योंकि पीड़िता और आरोपी एक-दूसरे के साथ रहना चाहते थे और सहमति में थे.
विशेषज्ञों का नजरिया
सीमा मिश्रा, जो पिछले 10 वर्षों से पोक्सो मामलों से जुड़ी अधिवक्ता हैं, ने दिप्रिंट से कहा कि उन्होंने ऐसे कई मामले देखे हैं और हर मामले में अलग तरीके और समाधान की जरूरत होती है. उन्होंने कहा, “यह केस की परिस्थितियों और तथ्यों को देखते हुए एक अच्छा और समझदारी भरा फैसला है.” उन्होंने यह भी जोड़ा कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को संवेदनशीलता से संभाला.
उन्होंने बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने एक कमेटी गठित की थी ताकि यह पता चल सके कि पीड़िता ज़मीनी सच्चाई में आरोपी के साथ रहना चाहती है या नहीं. इस कदम ने कोर्ट को सजा तय करने में मदद की और साथ ही पीड़िता और उसके बच्चे को समग्र सहायता दी.
उन्होंने यह भी कहा कि यह मामला स्कूलों में यौन शिक्षा की कमी और किशोरों में उस कानूनी ढांचे की जानकारी की कमी को उजागर करता है, जो नाबालिगों के बीच सहमति से बने शारीरिक संबंधों को भी अपराध मानता है.
उन्होंने समझाया, “ऐसे मामलों में अक्सर होता यह है कि बहुत कम उम्र में ही नाबालिगों को समाज की नकारात्मकता, महंगा और जटिल आपराधिक न्याय तंत्र झेलना पड़ता है, जिससे उनके जीवन पर बुरा असर पड़ता है.”
सुप्रीम कोर्ट के वकील अमन मेहता ने भी कहा कि कोर्ट ने पीड़िता के मानसिक कष्ट को मान्यता दी जो उसे लगातार कानूनी लड़ाई, सिस्टम की बेरुखी और संस्थागत उदासीनता के चलते सहना पड़ा. कोर्ट ने सजा को गरिमा, पुनर्वास और रिश्तों की स्वतंत्रता के नजरिये से नए सिरे से देखा.
दूसरी ओर, सुप्रीम कोर्ट के वकील जावेद शेख ने कहा कि कोर्ट एक बहुत ही कठिन स्थिति में था. उन्होंने बताया, “एक तरफ आरोपी को कानून के अनुसार सजा देना था, जिससे उसका पूरा परिवार—जिसमें पीड़िता भी शामिल है—बर्बादी की ओर चला जाता. दूसरी तरफ, अनुच्छेद 142 के तहत विशेष अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए सजा को टालना था.”
दिल्ली की वकील उर्जा पांडे, जो दिल्ली हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करती हैं, ने कहा कि यह फैसला पोक्सो कानून को समझने के नजरिये को बदल देता है और अब असल जीवन की परिस्थितियों को भी महत्व देता है. “कानून यह मानता है कि सभी को यौन शोषण से बचाया जाना चाहिए, लेकिन उसे उन गरीब किशोरों की परिस्थितियों को भी समझना चाहिए जिन्हें समाज से उपेक्षा और भेदभाव का सामना करना पड़ता है.”
उन्होंने कहा कि यह मामला उन्हें खास इसलिए लगा क्योंकि पहली बार अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल कर सुप्रीम कोर्ट ने धारा 6 के तहत दोष सिद्ध होने के बावजूद सजा नहीं दी. उन्होंने जोड़ा, “न्यायमूर्ति ओका ने कहा कि अगर कानून के तहत तय न्यूनतम सजा दी गई होती तो इससे उस पीड़िता को नुकसान पहुंचता जो अब मां है और एक कामकाजी परिवार का हिस्सा है.”
उन्होंने कहा कि कानून का मतलब केवल सजा देना नहीं है, बल्कि यह भी ज़रूरी है कि पीड़ितों को आश्रय, शिक्षा, व्यावसायिक सहायता और बच्चों के लिए सहायता प्रदान कर उनके जीवन को दोबारा खड़ा करने में मदद की जाए.
दिल्ली की वकील आयुषी मिश्रा ने कहा, “मेरे हिसाब से न्यायमूर्ति ओका द्वारा लिखा गया यह फैसला न्याय के उद्देश्यों की सही सेवा करता है.”
वकील अवीक गांगुली ने कहा कि इस फैसले में समग्र यौन शिक्षा और बच्चों की देखभाल से जुड़ी नीतियों के लिए डेटा आधारित कार्यवाही की दिशा में व्यापक निर्देश दिए गए हैं. “हालांकि यह फायदेमंद हैं, फिर भी यह देखना बाकी है कि क्या यह मामला कोर्ट के लिए व्यापक दिशानिर्देश जारी करने का चूका हुआ मौका था, जैसा कि विशाखा मामले में किया गया था, जिससे समाज में बदलाव की शुरुआत हो सकती थी.”
वकील सुकृति भटनागर ने कहा कि यह मामला सहमति से बने रिश्तों को पोक्सो मामलों में शामिल करने की ज़रूरत को दिखाता है. “यह कि कोर्ट ने कहा कि यह फैसला एक मिसाल नहीं है, यह दिखाता है कि कोर्ट ने शक्तियों के पृथक्करण का सम्मान किया। अब यह संसद की ज़िम्मेदारी है कि वह ऐसे मामलों की बढ़ती संख्या को देखते हुए कानून में बदलाव करे.”
वकील नौमान बेग ने कहा कि पोक्सो दोषी की सजा को निलंबित करना पीड़िता की कठिन स्थिति को देखते हुए एक व्यावहारिक प्रतिक्रिया है.
हालांकि, बेग ने यह भी जोड़ा कि सुप्रीम कोर्ट ने यह समझा कि पितृसत्ता किस तरह महिलाओं और लड़कियों की जिंदगी को प्रभावित करती है. “पीड़िता और उसके बच्चे की भलाई सुनिश्चित करके कोर्ट ने केवल सैद्धांतिक और औपचारिक दृष्टिकोण अपनाने से इनकार कर दिया, जो अक्सर पीड़ितों के साथ गंभीर अन्याय करता है,” उन्होंने कहा.
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