नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ्ते पॉक्सो मामले में अपील दायर नहीं करने के लिए मध्य प्रदेश सरकार की खिंचाई की, जिसमें उच्च न्यायालय ने आरोपी को बरी कर दिया था.
न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की पीठ ने कहा कि इस मामले में निराशाजनक बात यह रही कि एक पिता को ही सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा. राज्य सरकार ने इसके लिए पहल नहीं की.
अदालत एक लड़की के पिता की ओर से दायर एक अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसने अप्रैल 2020 में बच्चे को जन्म देने के बाद आत्महत्या कर ली थी. उसके एक साल बाद बच्चे के पिता अमित तिवारी पर एक विशेष अदालत ने बलात्कार और POCSO का आरोप लगाया गया था. लेकिन दिसंबर 2021 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने उसे बरी कर दिया.
हाईकोर्ट ने मामला दर्ज करने में ‘देरी’ का हवाला देते हुए कहा कि शिकायत और एफआईआर लड़की के आत्महत्या करने के बाद दर्ज की गई थी, न कि तब जब वह जिंदा थी या जब वह प्रेग्नेंट हुई थी. हाईकोर्ट ने लड़की की उम्र को लेकर चल रहे भ्रम पर भी संज्ञान लिया था.
हालांकि, उसके माता-पिता ने दावा किया कि जब वह 17 साल और कुछ महीने की थी, तब उसने आरोपी के साथ शारीरिक संबंध बनाए थे. लेकिन तिवारी इस तथ्य का विरोध करते हुए कहा कि वे दोनों एक सहमति के साथ संबंधों में थे और घटना के समय बालिग थे.
उच्च न्यायालय के आदेश को ‘कानून से इतर’ बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, ‘राज्य से उच्च न्यायालय के गैर-कानूनी फैसले को चुनौती देने की अपेक्षा की जाती है.
सर्वोच्च अदालत ने कहा, ‘कुछ अपवादों को छोड़कर आपराधिक मामलों में, जिस पार्टी को पीड़ित पार्टी के रूप में माना जाता है, वह राज्य है, जो बड़े पैमाने पर समुदाय के सामाजिक हितों का संरक्षक है और इसलिए यह राज्य पर निर्भर करता है कि वह उस व्यक्ति को सजा दिलाने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाए, जिसने समुदाय के हितों के खिलाफ काम किया है.’
फैसला 12 अगस्त को सुनाया गया था.
फैसले के मुताबिक, पीड़िता को अप्रैल 2020 में पेट में ‘तेज दर्द’ हुआ और उसके पिता उसे अस्पताल लेकर गए. वहां उसने एक बच्चे को जन्म दिया. उसी दिन उसने अपने पिता से कहा कि उसने तिवारी के साथ शारीरिक संबंध बनाए थे.
एक दिन बाद उसने अस्पताल में दुपट्टे से फांसी लगा ली. तब POCSO अधिनियम के प्रावधानों के साथ IPC की धारा 376 (बलात्कार) और 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी.
मामले के तथ्यों को बताते हुए अदालत ने कहा कि कहानी ‘काफी दिल दुखाने वाली’ थी, लेकिन साथ ही यह भी कहा कि ‘बलात्कार के अपराध के आरोपी को आरोपमुक्त करने का उच्च न्यायालय का फैसला पूरी तरह से समझ से बाहर और बेहद निराशाजनक है.’
अदालत ने उच्च न्यायालय के फैसले को ‘दुराग्रह और कानून से परे’ बताते हुए रद्द कर दिया. लेकिन अदालत ने पीड़िता की उम्र के बारे में आगे कुछ भी कहने से परहेज किया और कहा कि यह निचली अदालत को फैसला करना है. निचली अदालत अब आरोपी के खिलाफ तय आरोपों के आधार पर उसके खिलाफ सुनवाई करेगी.
‘बिल्कुल समझ से बाहर’
अपने फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरोपी के खिलाफ लगाए गए आरोप को रद्द करने का आदेश ‘केवल असाधारण मामलों और दुर्लभ अवसरों पर’ पारित किया जाना चाहिए.
इसके बाद यह नोट किया गया कि उच्च न्यायालय ने आरोपी को इस आधार पर आरोप मुक्त कर दिया कि ‘मृतक के माता-पिता की ओर से रखा गया पूरा मामला संदिग्ध था.’
सुप्रीम कोर्ट इससे सहमत नहीं था.
इसने कहा, ‘हम फिर से दोहराते हैं कि उच्च न्यायालय का आवंछित आदेश पूरी तरह से समझ से बाहर है. हमें अभी तक एक ऐसा मामला नहीं मिला है, जहां उच्च न्यायालय ने एफआईआर दर्ज करने में देरी के आधार पर बलात्कार के एक आरोपी को बरी करना उचित समझा हो.
शीर्ष अदालत की पीठ को यह भी निराशाजनक लगा कि निचली अदालत ने आरोपी के खिलाफ आईपीसी की धारा 306 के तहत आरोप तय करना उचित नहीं समझा. लेकिन, चूंकि किसी ने भी आदेश के उस हिस्से पर सवाल नहीं उठाया था, इसलिए अदालत ने इस पर और कुछ नहीं कहा.
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