नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को राज्यसभा सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ सोशल मीडिया पर पोस्ट की गई एक “भड़काऊ” कविता को लेकर दर्ज एफआईआर को रद्द करते हुए कहा कि साहित्य, जिसमें कविता और नाटक, फिल्में, स्टेज शो जैसे स्टैंड-अप कॉमेडी, तंज़ और कला शामिल हैं, जीवन को और अधिक सार्थक बनाते हैं.
अपने 54-पेज के ऐतिहासिक फ़ैसले में, जस्टिस अभय एस. ओका और उज्जल भुयान की बेंच ने यह भी कहा कि “हमारे गणतंत्र के 75 साल बाद भी, हम अपने बुनियादी सिद्धांतों पर इतने कमज़ोर नहीं दिख सकते कि सिर्फ़ एक कविता या किसी भी तरह की कला या मनोरंजन, जैसे स्टैंड-अप कॉमेडी, के ज़रिए विभिन्न समुदायों के बीच दुश्मनी या नफ़रत पैदा करने का आरोप लगाया जा सकता है.”
आदेश में आगे कहा गया कि इस तरह के नजरिए को अपनाने से “सार्वजनिक क्षेत्र में सभी वैध विचारों की अभिव्यक्ति को दबा दिया जाएगा, जो एक स्वतंत्र समाज के लिए बहुत ज़रूरी है.”
यह फ़ैसला कुणाल कामरा विवाद के बाद आया है, जिसमें स्टैंडअप कॉमेडियन महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे पर अपने चुटकुलों के लिए आलोचनाओं का सामना कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को यह भी कहा कि संज्ञेय अपराधों के मामलों में जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या लिखित या मौखिक शब्द के अधिकार से संबंधित हैं, अभियुक्त के खिलाफ औपचारिक कानूनी कार्रवाई करने से पहले, विषय-वस्तु की जांच करने और यह देखने के लिए कि क्या कोई मामला बनता है, “प्रारंभिक जांच करना हमेशा उचित होता है.” इसने कहा कि इससे यह सुनिश्चित होगा कि संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत मौलिक अधिकार सुरक्षित रहें.
कांग्रेस सांसद प्रतापगढ़ी पर जनवरी में पुलिस ने गुजरात के जामनगर में सामूहिक विवाह कार्यक्रम के बाद 46 सेकंड का वीडियो और कविता सोशल मीडिया पर पोस्ट करने के लिए भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 196 और 197 के तहत मामला दर्ज किया था, जो विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने और राष्ट्रीय अखंडता के लिए हानिकारक बयान देने से संबंधित है.
गुजरात हाई कोर्ट ने 17 जनवरी को प्रतापगढ़ी की उस याचिका को खारिज कर दिया था जिसमें उनके खिलाफ एफआईआर को रद्द करने की मांग की गई थी, जिसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था जिसने अब उन्हें राहत दी है, जिसमें कहा गया है कि उर्दू कविता का किसी भी धर्म, समुदाय, क्षेत्र या जाति से कोई लेना-देना नहीं है. अदालत ने कहा, “किसी भी तरह से, इसकी सामग्री राष्ट्रीय एकता को प्रभावित नहीं करती है,” साथ ही कहा कि कविता भारत की संप्रभुता, एकता, अखंडता या सुरक्षा को खतरे में नहीं डालती है.
कोर्ट की टिप्पणियां
शुक्रवार को अपने फैसले में अदालत ने सांसद के खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द करते हुए ये बातें कहीं.
सबसे पहले, इसने बीएनएस की धारा 173(3) की ओर ध्यान आकर्षित किया, जिसमें प्रावधान है कि किसी पुलिस थाने के प्रभारी को तीन से सात साल की सजा वाले किसी संज्ञेय अपराध की शिकायत मिलने पर सबसे पहले प्रारंभिक जांच करनी चाहिए. एफआईआर दर्ज करने से पहले की जाने वाली यह जांच प्रभारी के वरिष्ठ अधिकारी की अनुमति के अधीन होनी चाहिए.
इसके बाद, अगर अधिकारी इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि प्रथम दृष्टया मामला बनता है, तो तुरंत एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए और उन्हें मामले की जांच करनी चाहिए. लेकिन, यदि उनका मानना है कि प्रथम दृष्टया मामला आगे बढ़ने लायक नहीं है, तो उन्हें तुरंत प्रथम सूचनाकर्ता/शिकायतकर्ता को सूचित करना चाहिए ताकि वह उचित उपाय अपना सके, अदालत ने कहा.
इसी तरह, ऐसे मामलों में जहां अपराध अनुच्छेद 19 या व्यापक रूप से बोले गए या लिखे गए शब्दों से संबंधित हैं, वहां सामग्री की जांच करने और यह देखने के लिए कि क्या आरोपी के खिलाफ कोई मामला है, अदालत ने सलाह दी, “हमेशा प्रारंभिक जांच करना उचित है.”
दूसरा, इसने कहा कि पुलिस अधिकारियों को संविधान और उसके आदर्शों का पालन करना चाहिए. इसने कहा, “अनुच्छेद 19 (1) (ए) सभी नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्रदान करता है. पुलिस तंत्र अनुच्छेद 12 के अर्थ के भीतर राज्य का एक हिस्सा है. इसके अलावा, नागरिक होने के नाते पुलिस अधिकारी संविधान का पालन करने के लिए बाध्य हैं.”
तीसरा, जब बीएनएस की धारा 196 के तहत दंडनीय अपराध का आरोप लगाया जाता है, तो बोले गए या लिखे गए शब्दों के प्रभाव को “उचित, मजबूत दिमाग वाले, दृढ़ और साहसी व्यक्तियों” के मानकों के आधार पर विचार करना होगा, न कि कमजोर और अस्थिर दिमाग वाले लोगों के मानकों के आधार पर, इसने फैसला सुनाया।
अदालत ने आगे कहा कि बोले गए या लिखे गए शब्दों के प्रभाव का आंकलन उन लोगों के मानकों के आधार पर नहीं किया जा सकता है, जो हमेशा असुरक्षा की भावना रखते हैं या जो हमेशा आलोचना को अपनी शक्ति या पद के लिए खतरा मानते हैं.
अंत में, अदालत ने कहा कि अगर विचार और राय व्यक्त करने की आज़ादी नहीं होगी, तो सम्मानजनक जीवन जीना नामुमकिन होगा, जो अनुच्छेद 21 के तहत गारंटी दी गई है.
“एक स्वस्थ लोकतंत्र में, किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह द्वारा व्यक्त किए गए विचारों, राय या विचारों का विरोध दूसरे दृष्टिकोण को व्यक्त करके किया जाना चाहिए,” अदालत ने कहा कि भले ही बड़ी संख्या में लोग दूसरे द्वारा व्यक्त किए गए विचारों को नापसंद करते हों, लेकिन उन विचारों को व्यक्त करने के अधिकार की रक्षा की जानी चाहिए.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को समझने में विफल रहने के लिए कानून प्रवर्तन एजेंसियों और कोर्ट की आलोचना करते हुए अदालत ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध उचित होने चाहिए और काल्पनिक या दमनकारी नहीं हो सकते.
यह फैसला अदालतों और पुलिस को उनके संवैधानिक कर्तव्य की याद दिलाता है कि वे लोगों के अधिकारों की रक्षा करें और उन्हें लागू करें.
विचारों की रक्षा की जानी चाहिए, भले ही न्यायाधीश उन्हें पसंद न करें। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, “हम अदलातों का भी संविधान को बनाए रखने का दायित्व है.”
इसमें आगे कहा गया कि जब पुलिस और प्रशासन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने में असफल होते हैं, तो न्यायालयों का कर्तव्य बनता है कि वे हस्तक्षेप करें.
इसने जोर देकर कहा, “कोई अन्य संस्था नहीं है जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों को बनाए रख सके. अदालतों, खासतौर से संवैधानिक न्यायालयों को नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में सबसे आगे रहना चाहिए.”
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