लुधियाना: भारत में प्रमुख कृषि अर्थशास्त्रियों में से एक डॉ. सरदारा सिंह जोहल का कहना है कि अगर पंजाब को रेगिस्तान बनने से बचाना है तो सबसे अच्छा तरीका यही है कि करीब 50 लाख हेक्टेयर भूमि पर होने वाली धान और गेहूं की खेती को यहां की जगह उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के गंगा के मैदानी इलाके में कराया जाए.
डॉ. जोहल, जो अगले महीने 93 वर्ष के होने वाले हैं, ने दिप्रिंट को दिए एक इंटरव्यू में पंजाब में खेती से संबंधित कई मुद्दों पर खुलकर बात की, विशेषकर राज्य में पिछले एक दशक या इससे भी ज्यादा समय से बढ़ते कृषि संकट पर.
पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित डॉ. जोहल मौजूदा समय में बठिंडा स्थित पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय के पहले कुलपति हैं और उन्हें भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की तरफ से अर्थशास्त्र के प्रख्यात प्रोफेसर के तौर पर मान्यता हासिल है. पंजाब यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र रहे डॉ. जोहल इससे पहले पंजाब विश्वविद्यालय, पटियाला और पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना के कुलपति के रूप में कार्य कर चुके हैं.
वह भारत सरकार के कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के अध्यक्ष और चार प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य भी रहे हैं. अन्य पदों के अलावा वह भारतीय रिजर्व बैंक के केंद्रीय शासी बोर्ड के निदेशक और पंजाब राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी रहे हैं. वह इंडियन सोसाइटी ऑफ एग्रीकल्चर इकोनॉमिक्स, एग्रीकल्चर इकोनॉमिक्स रिसर्च एसोसिएशन और इंडियन सोसाइटी फॉर एग्रीकल्चर मार्केटिंग के अध्यक्ष भी रहे.
यह भी पढ़ें: शादियों की तैयारी, भैंसों को चारा, खेतों का काम- पंजाब के आंदोलनकारी किसानों की मदद को आए पड़ोसी
वैश्विक मंच पर भी उनका अहम योगदान रहा है. डॉ. जोहल कई देशों में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन, विश्व बैंक और पश्चिम एशिया के लिए आर्थिक आयोग के सलाहकार के रूप में कार्य कर चुके हैं.
हालांकि, डॉ. जोहल ने कहा कि तीन नए कृषि कानूनों पर उनकी ‘कोई राय’ नहीं है, लेकिन उन्होंने पंजाब में कृषि को प्रभावित करने वाली समस्याओं और यह राज्य कैसे फिर समृद्धि की राह पर लौट सकता है, इस पर काफी विस्तार से बात की. पेश है बातचीत के अंश….
हरित क्रांति भारत में क्या लेकर आई
1960 के दशक के मध्य में हमारे भुगतान के लिए तैयार होने पर भी अंतरराष्ट्रीय बाजारों से हमें खाद्यान्न नहीं मिलता था. हमें पीएल-40 नामक एक योजना के तहत अमेरिका से गेहूं मिलता था. भारत रुपये में भुगतान करता था, लेकिन अनाज और उसकी कीमत अमेरिका निर्धारित करता था.
1960 के दशक में कम अवधि में होने वाले छोटे दानों वाले गेहूं के बीज को भारत में पेश किया गया और पूरे देश में इसे बांटा गया. लेकिन पंजाब और हरियाणा स्थित सरकारी कृषि विश्वविद्यालय और आईएआरआई, दिल्ली शोध में काफी मजबूत थे. इसलिए हमने इसे जरूरी सुधार कर लिए और हमारी पारिस्थितिकी के अनुसार हमारी उपज और गुणवत्ता बढ़ गई. हमने इसे मूल लाल रंग की जगह गेहुंआ में बदल दिया. जैसे-जैसे पैदावार बढ़ी इसमें रसायनों की मात्रा भी बढ़ गई, फिर भी गेहूं की खेती लाभदायक बनी रही.
फिर 1970 के दशक की शुरुआत में फिलीपींस स्थित इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट की तरफ से भारत में कम अवधि वाले छोटे चावल की किस्म पेश की गई. इससे दोनों फसलों का एक पैटर्न तैयार हुआ. 1970 के दशक के मध्य तक हम, कुछ सूखा प्रभावित सीजन को, अनाज की कमी से इसकी अधिकता वाली स्थिति में पहुंच गए.
1980 के दशक की शुरुआत में चावल का उत्पादन केंद्र सरकार की भंडारण और खरीद क्षमता से अधिक था. मौजूदा समय में हमारा खाद्यान्न उत्पादन बफर स्टॉक मानदंडों से चार गुना ज्यादा है. इस स्टॉक का निपटारा करना भी एक बड़ी समस्या है, क्योंकि एमएसपी के कारण हमारी फसल अंतरराष्ट्रीय फसलों की तुलना में अधिक महंगी है, जिस पर हमारे चावल और गेहूं की तुलना में सिर्फ 70-80 प्रतिशत लागत आती है.
केंद्र सरकार को स्टॉक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खपाना पड़ता है, कभी-कभी तो यह 2-3 रुपये प्रति किलो वाले पीडीएस के दामों से भी कम हो जाता है. लेकिन फिर भी फसलों में रासायनिक सामग्री ज्यादा होने के आधार पर इसे खारिज कर दिया जाता है. हम कमी की समस्या के बजाय अब सरप्लस स्टॉक की समस्या में पहुंच गए हैं.
किसान मुश्किल में क्यों हैं
पैदावार में वृद्धि के साथ पीढ़ी दर पीढ़ी प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता में काफी कमी आई है. भारत में औसत भूमि उपलब्धता 2 एकड़ है और पंजाब में यह लगभग 2.5 एकड़ है. भारत में 80 प्रतिशत किसान छोटे किसान हैं, जबकि पंजाब में यह संख्या 25-30 प्रतिशत है.
कृषि के लिए छोटी-मोटी ही जमीन होना और खेती की उच्च लागत के कारण एमएसपी समय के साथ खेती की लागत के सुसंगत नहीं हो सकता और एमएसपी बढ़ने के साथ मौजूदा कीमत पर मांग स्थिर बनी हुई है.
किसान परेशान हैं, क्योंकि जमीन के एक छोटे से टुकड़े पर कितनी भी अतिरिक्त उपज पैदा कर लें वह बदले में उनकी दैनिक कृषि और आजीविका संबंधी जरूरतों को पूरा नहीं कर सकती.
एमएसपी के परिणामस्वरूप आजीविका संबंधी खर्चे पूरे न हो पाने से किसानों को कर्ज लेना पड़ता है. स्वास्थ्य और परिवार के समक्ष आपात स्थिति जैसी कुछ तत्कालिक जरूरतें पूरी करने के लिए उन्हें कर्ज के अनौपचारिक तरीकों का सहारा लेना पड़ता है. बैंक से ऋण लेने में समय लगता है, इसलिए किसान मकान मालिक, साहूकार या कमीशन एजेंट से अधिक ब्याज पर कर्ज ले लेते हैं. फिर समय पर कर्ज चुकाने में सक्षम नहीं हो पाते. नतीजतन, किसानों को अनौपचारिक कर्जों पर ब्याज चुकाने के लिए अपनी भू-संपत्ति और ट्रैक्टर आदि मशीनरी को बेचना पड़ता है.
पंजाब में किसानों और कृषि श्रमिकों पर 80,000 से 87,000 करोड़ रुपये के बीच कर्ज है. इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई है.
यह भी पढ़ें: वो 7 कारण जिसकी वजह से मोदी सरकार ने कृषि सुधार कानूनों से हाथ खींचे
धान-गेहूं का मोनोकल्चर पंजाब को रेगिस्तान बनाने की ओर बढ़ रहा
धान और गेहूं की खेती के लिए एक तरफ एमएसपी मिलना तय है और दूसरी तरफ मुफ्त बिजली भी उपलब्ध है. इसने धान और गेहूं को नि:संदेह सबसे लाभदायक फसलों में शामिल कर दिया है.
भले ही अन्य फसलों जैसे मक्का, दाल और तिलहन पर एमएसपी है, लेकिन वे खरीदे नहीं जाते, इस साल मक्का का एमएसपी 1,850 रुपये प्रति क्विंटल था, लेकिन यह 700-1,100 रुपये प्रति क्विंटल में बिका. ऐसा इसलिए है क्योंकि एमएसपी के बावजूद सरकार केवल धान और गेहूं खरीदती है, और साथ में थोड़ी कपास की भी खरीद होती है.
उच्च एमएसपी के बावजूद कृषि संकट के पीछे उत्पादन, उत्पादन आकार, उत्पादन लागत और बाजार एक बड़ी वजह है.
एमएसपी प्रणाली ने खेती के पैटर्न और खपत के पैटर्न में कोई संतुलन नहीं रखा है. फल और दुग्ध उत्पादन के साथ-साथ अन्य खाद्यान्नों का उत्पादन भी प्रभावित हो गया है.
पंजाब में सबसे बड़ी समस्या जलस्तर में गिरावट, और इसका प्रदूषण है. पंजाब में भूमि की प्रति इकाई के हिसाब से उर्वरक का इस्तेमाल देश में सबसे अधिक होता है, और हर साल जलस्तर 25-30 सेमी घट रहा है. भाखड़ा बांध से पानी का ज्यादातर हिस्सा दिल्ली और हरियाणा भेज दिया जाता है, और यहां से पंजाब का आवंटन उसकी केवल 20 प्रतिशत कृषि जरूरतों को पूरा कर पाता है, इसलिए बाकी के इस्तेमाल के लिए भूजल पर निर्भरता होती है.
बढ़ते शहरीकरण के कारण बारिश का पानी भी जमीन में अवशोषित नहीं होता है, क्योंकि अब सब कुछ कंक्रीट का बन रहा है. खेती की जमीन से जो पानी अवशोषित होता भी है तो उसमें कीटनाशकों और उर्वरकों की काफी मात्रा होती है, जिससे भूजल प्रदूषित हो रहा है. पंजाब में स्वच्छ पेयजल 350 से 500 फीट तक गहरे ट्यूबवेल से ही मिल सकता है.
हो सकता है कि दो-तीन दशकों के बाद पीने के लिए भूजल उपलब्ध नहीं हो. अगर ऐसा ही चलता रहा तो पंजाब एक दिन रेगिस्तान जैसा बन जाएगा.
पंजाब की मंडियों पर
पंजाब में मंडियों को एपीएमसी अधिनियम, 1936 के तहत विनियमित किया जाता है, जिसे बाद में थोड़ा संशोधित किया गया है. मंडी बोर्ड एक नीलामी आयोजित करता है ताकि किसानों को पता चले कि उन्हें अपनी फसलों के लिए क्या कीमत मिल रही है.
कुछ मामलों को छोड़कर कोई भी फसल मंडियों के बाहर नहीं खरीदी जा सकती. किसान के लिए फसलों को मंडियों में लेकर आना अनिवार्य होता है, जहां उनकी उपज की नीलामी होती है और कमीशन एजेंट अपना हिस्सा लेते हैं और फिर उनकी फसल बेची जाती है. धान-गेहूं की उपज में वृद्धि के मद्देनजर हर गांव में कम से कम एक बाजार सब-यार्ड है. मार्केट कमेटी मंडी के यार्ड और सब-यार्ड में बुनियादी ढांचा बनाए रखने और इन गांवों को सड़कों से जोड़े रखने के लिए फीस लेती है.
हालांकि, धन की कमी के कारण इन मंडियों की तरफ से सड़कों का रखरखाव नहीं किया जाता है, क्योंकि अक्सर इन पैसों का इस्तेमाल उन कामों के लिए नहीं होता जिनके लिए होना चाहिए. मंडी समिति द्वारा एकत्र किया गया धन राज्य के बजट का हिस्सा नहीं है, लेकिन मंडी बोर्ड के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री के विवेकाधीन अतिरिक्त बजटीय आय है. उदाहरण के तौर पर पिछली अकाली दल सरकार ने मंडी समिति द्वारा अगले तीन वर्षों में जुटाए जाने वाले धन के ऊपर लोन ले लिया था, जो कि इसकी निधियों का दुरुपयोग है.
आढ़तियों का कमीशन पहले सिर्फ 1 फीसदी होता था, जिसे अब उनकी मांग पर बढ़ाकर 2.5 फीसदी कर दिया गया है. इसे और ज्यादा बढ़ाने के लिए उनका तर्क है कि महंगाई काफी बढ़ गई है इसलिए उनका कमीशन भी बढ़ाया जाना चाहिए. यद्यपि उनका कमीशन एमएसपी के एक प्रतिशत के हिसाब से तय होता है जिसे मुद्रास्फीति के मुताबिक हर साल संशोधित करने की व्यवस्था पहले से ही है.
पंजाब के कृषि संकट के समाधान पर
फसलों का आर्थिक विविधीकरण आवश्यक है. मैंने पंजाब में जलस्तर का संतुलन बनाए रखने के बाबत 1986 और 2002 में दो रिपोर्टें दी हैं. 2002 में समिति में शामिल मेरे 16 साथी सदस्यों ने कम से कम 10-15 लाख हेक्टेयर भूमि को धान की खेती से बाहर लाने और किसानों को अन्य फसलें उगाने के लिए मुआवजा देने का प्रस्ताव रखा.
उस समय भारत ने 14,000 करोड़ रुपये के तिलहन और दलहन का आयात किया. इसके बजाय हमने 10 लाख हेक्टेयर भूमि पर दलहन और तिलहन की उपज के लिए किसानों को 1,600 करोड़ रुपये बतौर मुआवजा देने का प्रस्ताव रखा था. ये धनराशि वित्त मंत्रालय द्वारा कृषि मंत्रालय को जारी की गई, लेकिन उसके बाद कोई कदम नहीं उठाया गया. फसलों के विविधीकरण को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार अब किसानों को प्रति हेक्टेयर 10,000 रुपये दे सकती है.
मक्का, कपास, तिलहन और दलहन जैसी अन्य फसलों के लिए एमएसपी और खरीद की व्यवस्था की जानी चाहिए. अकेले पंजाब पोल्ट्री फीड के लिए 2 मिलियन टन मक्का का आयात करता है; यही पैसा इसके बजाय मक्का उगाने के लिए सब्सिडी के तौर पर दिया जा सकता है.
कृषि सब्सिडी के भविष्य पर
दुनिया में कहीं भी कृषि क्षेत्र बिना सब्सिडी के आगे नहीं बढ़ सकता. अमेरिका, जापान और यूरोपीय देश अपने किसानों पर अरबों डॉलर खर्च करते हैं. उन्हें 1,000-1,500 एकड़ तक के बड़े खेतों के साथ भी सब्सिडी मिलती है.
लेकिन पंजाब में मुफ्त बिजली सब्सिडी देना गलत है, इसका दुरुपयोग होता है. यदि उन्हें इसका भुगतान करना हो तो किसान ऐसा नहीं करेंगे. सरकार 5,500-10,000 करोड़ रुपये की वर्तमान बिजली सब्सिडी को ‘पर एकड़ अंडर कल्टीवेशन’ के आधार पर डायवर्ट कर सकती है. फिर, उन्हें बिजली के भुगतान के लिए कहा जाना चाहिए. अगर मेरे खाते में 100 रुपये की बिजली सब्सिडी है तो मैं 100 रुपये से कम ही खर्च करूंगा, जिससे पानी का इस्तेमाल भी सोच-समझकर किया जा सकेगा. मैं कम पानी वाली फसल की खेती भी करूंगा.
दर्जनों ट्यूबवेल की सुविधा वाले बड़े किसान सब्सिडी का पूरी तरह फायदा उठाते रहते हैं, जबकि छोटे किसान जिनके पास एक भी ट्यूबवेल नहीं होता है, उन्हें कुछ नहीं मिलता है. इसलिए, प्रति एकड़ के आधार पर स्विच करने से छोटे किसानों को लाभ होगा, जबकि बड़े किसानों को 25 एकड़ से ज्यादा पर यह सुविधा नहीं दी जानी चाहिए.
प्रत्यक्ष आय सब्सिडी भी सही है क्योंकि यह मौजूदा व्यवस्था के विपरीत भारत को विश्व व्यापार संगठन के मानकों के ज्यादा अनुरूप बनाएगी.
किसानों की आय बढ़ाने पर
किसानों की आय की समस्या केवल कृषि क्षेत्र में ही हल नहीं की जा सकती. छोटे किसानों को पार्ट-टाइम मॉडल पर अमल के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, और उन्हें डेयरी और अन्य क्षेत्रों की ओर रुख करने के लिए सब्सिडी दी जानी चाहिए, जैसा कि जापान में किया गया है.
हिमाचल प्रदेश की तरह पंजाब में भी उद्योग शुरू किए जाने चाहिए, जिसमें कम से कम 70-80 प्रतिशत नौकरियां अनिवार्य/तरजीही तौर पर स्थानीय युवाओं के लिए हों और बाकी तकनीकी स्टाफ होने के कारण उनकी भर्ती अन्य राज्यों के लोगों से की जा सकती है. इन उद्योगों के कमाए दूसरे मुनाफों से कृषि में निवेश किया जा सकता है.
नए कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कानून पर
2002-03 में पंजाब में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग शुरू में विफल रही, क्योंकि कृषि उपज को लेकर किसी भी नुकसान के लिए किसानों का बीमा नहीं था. केंद्र सरकार द्वारा शुरू किया गया नया कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कानून 2013 के पंजाब सरकार अधिनियम का एक प्रतिरूप है.
इसमें बिना मॉरगेज और कोई बाध्यता न होने जैसे बेहतरीन प्रावधान हैं. किसान संभावित लाभ के लिए कर्ज भी ले सकता है. इसके लिए सभी इनपुट और मशीनरी ठेकेदार द्वारा प्रदान की जानी होती है. बाढ़ या कीट जैसे जोखिम भी ठेकेदार के साथ साझा किए जाएंगे. किसान और खेत सुरक्षित हैं.
लेकिन पंजाब अधिनियम नाकाम हो गया क्योंकि किसी ने सही से अमल ही नहीं किया.
नए कृषि कानूनों पर
मौजूदा स्थिति में मैं और मेरा भरा-पूरा परिवार किसान है और आठ एकड़ भूमि का मालिक है. हम 50-60 एकड़ भूमि पर पट्टे पर खेती करते हैं. मेरे बच्चे किसान हैं. मेरी स्थिति महाभारत के अर्जुन की तरह है—ये किसान मेरे बच्चे, बुजुर्ग और भाई-बंधु है. वे बर्बादी के रास्ते पर चल रहे हैं और उन्हें वापस पटरी पर लाना चाहता हूं.
मैं 93 साल का हूं; मेरा किसी अन्य राजनीतिक दल के साथ कोई वास्ता नहीं है. मैंने 60 वर्षों तक चीन, यूएसएसआर, मध्य अफ्रीका, पश्चिम एशिया आदि में कृषि नीति पर काम किया है, और उन्होंने इसे लागू भी किया है. ईरान ने वहां की संसद में मेरी तरफ से 25 पेज की एक रिपोर्ट पेश किए जाने के अगले दिन ही उसे लागू कर दिया.
मैंने पंजाब में कृषि संकट को सुलझाने के लिए दो रिपोर्ट दीं लेकिन किसी ने इसके एक भी पेज पर ध्यान तक नहीं दिया. जाने कितनी बार मैंने मंत्रिपरिषद के सामने आधे घंटे की प्रस्तुति देने और सवालों के जवाब देने की अनुमति देने को कहा है, लेकिन यह भी नहीं किया गया.
(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: क्या देश के किसानों को एमएसपी की गारंटी दी जा सकती है ? मामला राजनीतिक इच्छाशक्ति का है
Dr.sahab girate bhujal star se hum bhi chintit he.Kahi punjab jesa hal hamara bhi n ho jaye .5 sal me hamare yaha bhujal star 5 fitt neeche chala gaya he.deesal pumpset fell ho gaye.
Lekin yeh sab center govt ko state govt ko bolo k woh 23 fasalon pe MSP ki guarantee ka kanoon banye .. Kisan khud b khud dhaan gehu ko chhod k doosri fasal beejna shuru kr dega… Abhi jan sirf dhaan gehu pe hi MSP milti hai mandi mein kharid hoti hai toh Kisan ki majburi hai yeh fasal beejne ki uski roji roti uske bachon k school ki fees beti bete k marriage k kharche uske ilaz k kharche kaha se poore karega woh…. Gyan naa vaanto iska solution yeh nahi k bihar, bengal , up mein hi yeh fasal ho waha k pani ka kya hoga fir? Iska solution 23 fasal pe MSP pe kharid ho jo k Kisan doosri fasal beejne k liye prerat ho
Kisan ki bat mane sarkar