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Sunday, 22 December, 2024
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सैम मानेकशॉ, वह जनरल जिसने इंदिरा गांधी से कहा था भारतीय सेना अभी युद्ध के लिए तैयार नहीं

दिप्रिंट ने सैम मानेकशॉ के सैन्य कैरियर और उनसे जुड़ी अन्य बातों और मिथकों पर एक नज़र डाली है.

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नई दिल्लीः आजाद भारत के इतिहास में फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ जैसा कोई मिलिटरी जनरल शायद ही रहा हो जिसने राष्ट्रीय पटल पर इतना नाम कमाया हो. 1971 के भारत-पाक युद्ध के महानायक मानेकशॉ अपनी उस शानदार वाकपटुता के लिए भी जाने जाते हैं जब उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को साफ शब्दों में कह दिया था कि अप्रैल 1971 में भारतीय सेना युद्ध के लिए तैयार नहीं थी.

यह कहते हुए कि उनका काम जीतने के लिए लड़ना था, उन्होंने इंदिरा गांधी से कुछ महीनों के समय का अनुरोध किया. जिसे गांधी ने उनके कहने पर स्वीकार कार लिया. जब दिसंबर 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ, तो मानेकशॉ ने भारत को अब तक की सबसे शानदार सैन्य जीत की सौगात देते हुए अपना लोहा मनवाया.

जैसा कि यह हर महान व्यक्ति के साथ जुड़ा होता है, मानेकशॉ की सरलता, वीरता और बुद्धि लाजवाब थी. उनके बारे में कही अधिकांश बातें काफी हद तक सही हैं भले ही कुछ बातें डिटेल कम्युनिकेशन में आईं त्रुटियों के माध्यम से या उसके आसपास की पौराणिक कथाओं को हवा मिलने से समय के साथ जुड़ी हुई हों.

एक बार की बात है. मानेकशॉ ने जब सैनिकों के वर्दी भत्ते में नियोजित कटौती के बारे में सुना तो उन्होंने वेतन आयोग के सदस्यों को आमंत्रित किया. इसके बाद उन्होंने सदस्यों से पूछा, ‘अब आप मुझे बताएं, अगर मैं गंदी धोती और कुर्ता पहनूं तो कौन मेरी आज्ञा मानेगा.’ इस वाकया ने मसले को सुलझा दिया.

भारतीय सेना में अपनी पुस्तक लीडरशिप में, पूर्व प्रमुख जनरल वी.के. सिंह एक व्यक्तिगत अनुभव से उन्हें याद करते हैं कि कैसे मानेकशॉ युवा अधिकारियों के साथ अपनी बातचीत में बहुत मिलनसार थे.

मानेकशॉ के सहयोगी रहे बेहराम पंथाकी ने एक बार कुन्नूर स्थित अपने निवास पर एक पार्टी का आयोजन किया. वहां चल रहे कानफोड़ू संगीत को सुनकर वे अंदर गए और कहा, ‘आपने एक पार्टी किया, और मुझे आमंत्रित नहीं किया. यह पता चलने पर कि यह एक पाउंड पार्टी थी, जहां हर कोई अपना भोजन और ड्रिंक ले आया था, उन्होंने अपने एक आदमी को स्कॉच की बोतल लाने के लिए भेजा.

मानेकशॉ का जन्म 3 अप्रैल 1914 को अमृतसर में पेशे से डॉक्टर होर्मसजी मानेकशॉ और हीराबाई के घर हुआ था. छह भाई बहनों में 5वें नंबर पर रहे मानेकशॉ ने अपनी स्कूली पढ़ाई नैनीताल के शेरवुड कॉलेज से की. इसके बाद, वह पढ़ने के लिए हिंदू सभा कॉलेज में अमृतसर लौट आए. जुलाई 1932 में, वह भारतीय सैन्य अकादमी के पहले बैच में शामिल हुए. ऐसा बताया जाता है कि उन्होंने सेना में जाने का फैसला अपने पिता के खिलाफ विद्रोही बन कर लिया जब उन्होंने मानेकशॉ को मेडिकल की पढ़ाई करने के लिए लंदन भेजने से मना कर दिया था.

मानेकशॉ 1937 में सिल्लू बोडे से मिले. उन्होंने दो साल बाद 22 अप्रैल 1939 को उनसे शादी की और उनकी दो बेटियां थीं.


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सैन्य करियर

मानेकशॉ को 22 दिसंबर 1934 को 4/12 फ्रंटियर फोर्स रेजीमेंट में नियुक्त किया गया था. शुरुआत में, उन्हें एक ब्रिटिश यूनिट के साथ एक वर्ष के लिए लाहौर भेजा गया था. इसके बाद, फरवरी 1936 में, वे अपनी मूल इकाई में फिर से शामिल हुए.

अपने सैन्य करिअर के दौरान, उन्होंने कई कठिन हालातों का सामना किया. मानेकशॉ, तब द्वितीय विश्व युद्ध में लड़ रहे एक युवा कैप्टन थे, जिन्होंने 22 फरवरी 1942 को बर्मा के जंगल में जापानियों के खिलाफ कई बुलेट इंजरी को सहा था. उन्हें अर्दली शेर सिंह द्वारा उस स्थान से हटाया गया और सौभाग्य से वो बच गए.

एक अन्य वाकया है, जब उनका करिअर लगभग पटरी से उतर गया था. 1960 के दशक की शुरुआत में उनके खिलाफ कोर्ट ऑफ इंक्वायरी का आदेश दिया गया था, जब वह वेलिंगटन में डिफेंस सर्विसेज स्टाफ कालेज के कमांडेंट के रूप में कार्यरत थे. इसके सटीक कारणों को कभी स्पष्ट नहीं किया गया क्योंकि मानेकशॉ ने इसके बारे में बोलने से हमेशा इनकार कर दिया.

हालांकि, पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल जे.एफ.आर. जैकब ने अपनी पुस्तक ‘एन ओडिसी इन वॉर एंड पीस’ में लिखा है कि ‘उनके खिलाफ अभियान में प्रमुख रूप से मानेकशॉ, रक्षा मंत्री वी.के. कृष्ण मेनन और उनके समर्थक लेफ्टिनेंट जनरल (बी.एम. कौल) शामिल थे. कौल ने मानेकशॉ को अपना संभावित प्रतिद्वंद्वी माना था.

लेकिन जैकब ने यह भी जोड़ा कि मानेकशॉ को सरकार की अत्यधिक आलोचना की आदत थी.

सिंह ने उल्लेख की गई अपनी पुस्तक में कहा है कि मानेकशॉ के खिलाफ औपचारिक रूप से तीन आरोप लगाए गए थे.

पहला यह कि वह देश के प्रति वफादार नहीं थे, क्योंकि उन्होंने अपने कार्यलाय में भारतीय नेताओं के बजाय ब्रिटिश वाइसराय और गवर्नर जनरलों की तस्वीरें लटका रखी थीं.

दूसरा, वह एक सैन्य प्रशिक्षक के खिलाफ कार्रवाई करने में विफल रहे थे जिसने भारतीयों के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी की थी. भले ही मानेकशॉ ने प्रशिक्षक को अधिक सावधान रहने के लिए कहा था, लेकिन यह तर्क दिया गया कि उन्हें इस पर गंभीर दृष्टिकोण अपनाना चाहिए था.

और तीसरा, मानेकशॉ ने साथी अधिकारियों की पत्नियों के बारे में कुछ अपमानजनक टिप्पणी की थी. हालांकि, जिस अधिकारी ने आरोप लगाए थे, उसने अदालत को बताया कि उसे न तो मानेकशॉ को टिप्पणी सुनाई थी और न ही वह याद कर सकता है कि किसने उसे इसके बारे में बताया था.

ऐसा कहा जाता है कि 1962 में चीन के खिलाफ युद्ध के बाद हुई भारत की पराजय ने मानेकशॉ को बचा लिया. मेनन और कौल को इस्तीफा देना पड़ा और मानेकशॉ को 4 कॉर्पस की कमान दे दी गई थी.

इसके बाद, मानेकशॉ का सितारा बुलंदियों को छूने लगा और जुलाई 1969 में पीएम इंदिरा गांधी द्वारा उन्हें सेना प्रमुख नियुक्त किया गया.


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फील्ड मार्शल के रूप में बढ़ा करिअर

सेना प्रमुख के रूप में अपनी भूमिका में, सैम मानेकशॉ के नेतृत्व में भारत ने बांग्लादेश से न केवल युद्ध में जीत दर्ज की बल्कि एक गैरजरूरी समय पर हस्तक्षेप करने के लिए राजनीतिक दबाव का विरोध करते हुए, इस्तीफा देने की पेशकश तक कर डाली थी.

उसके साथ अपने मतभेदों के बावजूद, जे.एफ.आर. जैकब लिखते हैं, ‘उन्होंने सेना की गरिमा बनाए रखने के लिए किसी भी अन्य प्रमुख से अधिक काम किया और आवश्यकता पड़ने पर नौकरशाही के खिलाफ हमेशा खड़े रहे.’

जनवरी 1973 में, उनकी सेवानिवृत्ति के महीने, मानेकशॉ को फील्ड मार्शल के रूप में नियुक्त किया गया था. एक बड़े पैमाने पर औपचारिक रैंक, लेकिन भारतीय सशस्त्र बलों के इतिहास में उनके कद को प्रतिबिंबित करता है.

वह इस पद से सम्मानित होने वाले पहले भारतीय थे, और अब तक इसे केवल दो ही लोगों को प्रदान किया गया है. मानेकशॉ के अलावा इस सम्मान से नवाजे जाने वाले जनरल कोडंडेरा करियप्पा हैं जिन्हें 1986 में ये सम्मान दिया गया था.

दोषमुक्त नहीं थे

मानेकशॉ जितने महान थे, वे अक्सर अधिकारियों के साथ उलझ जाते थे. पूर्व सिविल सेवक पी.आर. चारी ने अपने नोट में बताया कि, मानेकशॉ ने एक रिपोर्टर को बताया था कि उन्हें 1947 में पाकिस्तान की सेना में शामिल होने के लिए कहा गया था, और अगर उन्होंने ऐसा कर लिया होता, तो 1971 के युद्ध का परिणाम अलग होता.

वी.के. सिंह नोट करते हैं कि इस घटना के कारण, मानेकशॉ को सरकार का फेवर मिलना बंद हो गया. उन्होंने कहा, ‘सरकार ने भले ही उनका पद नहीं छीना, लेकिन इसने बाकी सब कुछ छीन लिया और उन्हें जो वेतन दिया गया, वो उनके हक से बहुत कम था.

चारी एक अन्य घटना का उल्लेख करते हैं. लड़कियों की एनसीसी कैडेट के एक इवेंट में, मानेकशॉ मुख्य अतिथि थे और मंच पर पुरस्कार विजेताओं में से वे एक को चूम लिए जिसके बाद बड़ा हंगामा हुआ. इस मामले को संभालने के लिए, एक जांच का आदेश दिया गया. हालांकि, यह इतनी तेजी से हुआ कि यह मुद्दा आम लोगों के मन मस्तिष्क से भुला दिया गया.

जीवन भर बहादुरी से लड़ने वाले मानेकशॉ, अपने अंतिम क्षणों में काफी उद्दंड हो गए थे. ‘मैं ठीक हूं‘, 27 जून 2008 को मरने से दो दिन पहले ये उनके अंतिम शब्द थे.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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