नई दिल्ली: यूक्रेन पर रूस के फ़िलहाल जारी आक्रमण से भारत के लिए भी अपने गेहूं के निर्यात को बढ़ावा देने के एक अवसर के रूप में उम्मीद की किरण जगी है.
गेहूं के इन दो खपत से ज्यादा उत्पादन करने वाले देशों के बीच का युद्ध अब एक महीने से ज्यादा समय से चल रहा है और इसका कोई अंत भी नजर नहीं आ रहा. नतीजतन, इस अनाज की आपूर्ति की लगे झटके ने वैश्विक स्तर पर गेहूं की कीमतों में तेजी ला दी है – ये सभी बातें भारत के पक्ष में काम करती हैं.
पिछले पांच वर्षों में औसतन 100 मिलियन टन (एमटी) उत्पादन के साथ भारत चीन (133 मीट्रिक टन) के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा गेहूं उत्पादक है, लेकिन एक उच्च घरेलु खपत वाले आधार ने शायद ही कभी इस देश को इस खाद्यान्न का एक बड़ा निर्यातक बनने दिया है.
संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन – एफएओ) के अनुसार, रूस और यूक्रेन कुल मिलकर कमोबेश उतनी ही मात्रा (104 मीट्रिक टन) में गेहूं का उत्पादन करते हैं जितना की भारत. मगर, इन देशों की सामूहिकआबादी (18-19 करोड़) भारत (134 करोड़) की तुलना में सात गुना कम हैं, जो उन्हें भारी मात्रा में गेहूं निर्यात करने की सहूलियत देता है.
इसलिए, गेहूं के अपर्याप्त उत्पादन वाले देश, विशेष रूप से पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका के देश, इसके लिए रूस और यूक्रेन पर निर्भर हैं.
रूस और यूक्रेन के गेहूं के लिए का बाजार
डेटा विज़ुअलाइज़ेशन वेबसाइट, ऑब्जर्वेटरी ऑफ़ इकोनॉमिक कॉम्प्लेक्सिटी, के पास उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, साल 2019 में रूस का गेहूं निर्यात $ 8.14 बिलियन मूल्य का था, और यूक्रेन ने लगभग 3.11 बिलियन डॉलर का गेहूं निर्यात किया था. कुल मिलाकर, इन दो देशों का दुनिया के कुल गेहूं निर्यात में एक चौथाई हिस्सा था.
इस निर्यात का एक बड़ा हिस्सा मिस्र को गया, जिसने रूस के निर्यात का लगभग 31.3 प्रतिशत (2.55 बिलियन डॉलर) और यूक्रेन के निर्यात का 22 प्रतिशत (685 मिलियन डॉलर) गेहूं आयात किया. ये दोनों देश मिस्र की गेहूं के आयात सम्बन्धी जरूरतों का लगभग 70 प्रतिशत भाग पूरा करते हैं और यही वजह है कि वर्तमान संकट ने इस देश को बुरी तरह प्रभावित किया है.
मिस्र को अपने खाद्य अनुदान कार्यक्रम, जिसके तहत वह अपने लाखों नागरिकों को लगभग 5.5 बिलियन डॉलर की लागत से सब्सिडी वाला ब्रेड प्रदान करता है, को चलाने के लिए भारी मात्रा में गेहूं की आवश्यकता होती है. इस लड़ाई की वजह से इसका खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम अब एक बड़े खतरे में है.
इंडोनेशिया, तुर्की, बांग्लादेश, फिलीपींस, ट्यूनीशिया, मोरक्को, बांग्लादेश, यमन, नाइजीरिया और थाईलैंड जैसे अन्य देश भी रूस और यूक्रेन से 100 मिलियन डॉलर से अधिक के मूल्य का गेहूं खरीदते हैं.
क्या भारत इस मौके का फायदा उठा सकता है?
गेहूं उत्पादन के मामले में एक समृद्ध राष्ट्र होने के बावजूद, भारत अभी तक अपनी उपज का केवल 1 प्रतिशत निर्यात करता था और वह भी ज्यादातर अपने पड़ोसियों – बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका – और संयुक्त अरब अमीरात जैसे अन्य देशों को.
रूस-यूक्रेन युद्ध ने भारत को अपना गेहूं निर्यात बढ़ाने का मौका दिया है, खासकर तब जब फरवरी 2022 तक 24 मीट्रिक टन गेहूं सरकारी भंडारों में पड़ा है.
हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि भारत का गेहूं निर्यात एक कड़ी चुनौती वाले बाजार का सामना कर रहा है, और इसकी प्रतिस्पर्धा में बने रहने की क्षमता वैश्विक उत्पाद की ऊंचीं कीमतों पर निर्भर करती है.
पूर्व कृषि और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग सचिव ने सिराज हुसैन कहा, ‘इस साल, हम लगभग 8-10 मिलियन टन गेहूं के निर्यात की उम्मीद कर सकते हैं. मुंद्रा और कांडला (गुजरात में) इसके लिए हमारे मुख्य बंदरगाह होंगे.’
यहां यह ध्यान देने की बात है कि रूस द्वारा यूक्रेन पर आक्रमण करने से पहले ही भारत का गेहूं निर्यात पहले की तुलना में बढ़ रहा था. यह कोविड -19 महामारी की वजह से था जिसने वैश्विक आपूर्ति को सीमित कर दिया था और इसके परिणामस्वरूप वैश्विक स्तर पर कीमतें ऊंचीं हुईं थी.
वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के अनुसार, भारत ने 2020-21 में लगभग 2 मीट्रिक टन गेहूं का निर्यात किया और चालू वित्तीय वर्ष 2021-22 के अप्रैल-जनवरी की अवधि में, हमारा देश पहले से ही 6 मीट्रिक टन गेहूं का निर्यात कर चुका था. भारत सरकार किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की पेशकश करती है जिस पर वह उनका माल लेने का वादा करती है. पहले यह एमएसपी बाजार मूल्य से अधिक हुआ करता था, लेकिन, जैसा कि जुलाई 2021 में अमेरिकी कृषि विभाग द्वारा प्रकाशित अंतर्राष्ट्रीय कृषि व्यापार रिपोर्ट में दावा किया गया था, वैश्विक स्तर पर इस उत्पाद की कीमतों में हुई हालिया वृद्धि ने भारत को एक प्रतिस्पर्धी आपूर्तिकर्ता बना दिया.
22 मार्च तक की जानकारी के अनुसार गेहूं की वैश्विक कीमतें पहले ही 378 यूरो या लगभग 3,167 रुपये प्रति क्विंटल को छू चुकी थी, जो इस साल के लिए निर्धारित एमएसपी, 2,015 रुपये प्रति क्विंटल, से काफी अधिक है.
गुजरात के कांडला बंदरगाह पर गेहूं निर्यात करने के लिए लगी किसानों की भीड़ भी इन ख़बरों की पुष्टि करती है कि भारत की ओर से इसके निर्यात की होड़ है. लेकिन यह मामला कब तक टिक सकता है?
हुसैन ने कहा, ‘भविष्य में यह वैश्विक स्तर की कीमतों पर निर्भर करेगा. इस साल युद्ध के कारण कीमतें अभी तक के सबसे उच्च स्तर पर हैं. यदि यह समाप्त हो जाता है तो कीमतें भी कम हो जाएगी, जिससे हमारी प्रतिस्पर्धात्मकता भी कम हो जाएगी. ‘
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क्या कहते हैं विशेषज्ञ?
कमोडिटी रिसर्च विशेषज्ञ राहुल चौहान ने दिप्रिंट को बताया कि कई राज्यों की अनाज मंडियां वैश्विक कीमतों में आये इस उछाल के कारण एमएसपी से अधिक कीमत पर गेहूं खरीद रही हैं. चौहान, जो आई- ग्रेन इंडिया के निदेशक हैं, ने कहा, ‘मुझे लगता है कि 15 अप्रैल के बाद, जब आवक चरम पर होगी, गेहूं की कीमतें गिर सकती हैं.’
हालांकि, रोलर फ्लोर मिल्स फेडरेशन के पूर्व अध्यक्ष प्रेम गुप्ता के अनुसार, भारत के लिए यह समय गेहूं निर्यात की दुनिया में अपने लिए एक बाजार बनाने का अवसर भी है.
गुप्ता ने कहा कि भारत को अब गेहूं निर्यात उद्योग जगत के प्रमुख खिलाड़ियों में से एक बनने के लिए काम करना चाहिए.
गुप्ता ने कहा, ‘रूस के आक्रमण ने न केवल यूक्रेन के निर्यात सम्बन्धी बुनियादी ढांचे को ध्वस्त कर दिया है, बल्कि कई देशों को रूस के बाहर से आयात के विकल्पों की तलाश करने के लिए भी मजबूर किया है. मेरे अनुसार, कुल वैश्विक गेहूं निर्यात में इन देशों का हिस्सा 25 प्रतिशत से घटकर अब मात्र 5-6 प्रतिशत रह गया है और अगर हालात और बदतर नहीं होते हैं, तो भी इसे ठीक होने में कम-से-कम एक साल का समय लग सकता है.‘
उन्होंने कहा, ‘इसके उपरांत वैश्विक आपूर्ति में एक खाली स्थान उभरा है, जिसमें से 75 प्रतिशत को भारत द्वारा भरा जा सकता है. हम पहले से ही गेहूं की एक जोरदार फसल की उम्मीद कर रहे हैं और सरकार भी इसके जरुरत से ज्यादा भरे हुए भंडार को निकालना चाहती है. अभी यह सभी तरह से फायदे की स्थिति है. मेरी जानकारी में, हमने पिछले एक महीने में पहले की तुलना में लगभग दो-तीन गुना अधिक गेहूं का निर्यात किया है और सरकार भी गेहूं का निर्यात बढ़ाने में दिलचस्पी दिखा रही है.’
मगर चौहान ने चेताया कि यह एकदम से आसान काम भी नहीं होगा.
उन्होंने कहा, ‘भारत ही नहीं, बल्कि कनाडा और ऑस्ट्रेलिया से भी गेहूं की निर्यात मांग बढ़ रही है. भारतीय गेहूं प्रोटीन की मात्रा और कीटनाशक के स्तर जैसी कुछ जरुरी शर्तों को पूरा नहीं करता है, लेकिन युद्ध के कारण, सभी देश अपने मानदंडोंको दरकिनार कर खरीदी कर रहे हैं. हरियाणा और पंजाब में उत्पादित गेहूं प्रोटीन की कम मात्रा की वजह से निर्यात योग्य नहीं है, लेकिन मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात और राजस्थान के कुछ हिस्सों में उत्पादित गेहूं हमारे निर्यात को बढ़ावा दे सकता है.’
चौहान के मुताबिक सरकार भी ज्यादा से ज्यादा गेहूं निर्यात करने को इच्छुक है.
उन्होंने बताया, ‘भारत सरकार भी गेहूं के निर्यात को बढ़ावा दे रही है. भारतीय रेलवे गेहूं का परिवहन करने वाली मालगाड़ियों में अतिरिक्त डब्बे जोड़ रहा है; मध्य प्रदेश सरकार ने तो निर्यात को बढ़ावा देने के लिए मंडी में लगने वाले करों को भी माफ कर दिया है.’
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